बुधवार, 10 जून 2015

राष्ट्रीय विभूतियों पर कब्जा जमाने की संघी कवायद

Posted: 06 Jun 2015 08:23 PM PDT
पिछले कुछ वर्षों से, राजनैतिक और सामाजिक स्तरों पर कुछ राष्ट्रीय विभूतियों का महिमामंडन करने और कुछ का कद घटाने के सघन प्रयास हुए हैं। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के पिछले शासनकाल ;1998.2004 में संसद परिसर में सावरकर के तैलचित्र का अनावरण किया गया था।
कुछ विभूतियों की भूमिका को बढ़ाचढ़ा कर प्रस्तुत करने और कुछ की छवि बिगाड़ने के खेल में आरएसएस पुराना उस्ताद है,यद्यपि अन्य राजनैतिक समूह भी ऐसा करते रहे हैं। संघ की मशीनरी, कुछ नेताओं का महिमामंडन, कुछ को नजरअंदाज करने और कुछ को बदनाम करने का काम दशकों से करती आई है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से संघ परिवार के कई सदस्य महात्मा गाँधी के हत्यारे गोडसे की खुलकर तारीफ कर रहे हैं। एक भाजपा सांसद ने गोडसे को देशभक्त बताया तो दूसरे ने फरमाया कि गोडसे ने गलत व्यक्ति को निशाना बनाया था। उसे नेहरु की हत्या करनी चाहिए थी। कई लोगों ने माँग की है कि अलग.अलग स्थानों पर गोडसे की मूर्तियाँ स्थापित करने के लिए जमीन आवंटित की जाए।
सरदार पटेल को नेहरु के प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। अपने एक भाषण में मोदी ने कहा कि नेहरु की जगह पटेल को देश का पहला प्रधानमंत्री होना चाहिए था। नेहरु को कलंकित करने का मानों अभियान.सा छेड़ दिया गया है। हाल में, नेहरु को संकुचित मनोवृत्ति वाले व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करने के लिए मोदी ने एक ऐसी बात कही जो कि सच नहीं है। उन्होंने कहा कि नेहरु, सरदार पटेल के अंतिम संस्कार में नहीं गए थे। तथ्य यह है कि नेहरू ने पटेल के अंतिम संस्कार, जो कि मुंबई में हुआ था, में भाग लिया था। जहाँ तक गांधीजी का सवाल है, उन्हें केवल साफ.सफाई के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। महात्मा गाँधी का कद इतना ऊंचा है कि उनके समावेशी राष्ट्रवाद में विश्वास न करने वाले भी उन्हें श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। भारत ही नहीं वरन पूरी दुनिया में बापू श्रद्धा के पात्र हैं। अब चूँकि गांधीजी के कद को कम करना संघ परिवार के बस की बात नहीं है इसलिए उनके हिन्दू.मुस्लिम एकता के सन्देश को दरकिनार कर,राष्ट्रीय एकता की उनकी सीख को भुलाकर, उन्हें केवल स्वच्छता अभियान का शुभंकर बना दिया गया है।
अब संघ परिवार अम्बेडकर पर कब्जा करने की जुगत में है। यह कहा जा रहा है कि अम्बेडकर और आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार की आस्था एक.से मूल्यों में थी। उदाहरण के लिएए दोनों अस्पृश्यता के खिलाफ थे। आरएसएस के अंग्रेजी और हिंदी मुखपत्र क्रमश: 'आर्गनाइजर' व 'पाञ्चजन्य' ने अंबेडकर पर केंद्रित विशेष परिशिष्ट निकाले, जिनमें उनकी शिक्षाओं को इस तरह से तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि आरएसएस की हिंदुत्व की विचारधारा और अंबेडकर के मूल्यों में अनेक समानताएं हैं। अंबेडकर ने सामाजिक न्याय और प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान तो दिया ही था, उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी जाति के उन्मूलन के लिए उनका संघर्ष। यहां यह याद रखना समीचीन होगा कि जहां अंबेडकर जाति के उन्मूलन की बात कहते थेए वहीं संघ ने 'सामाजिक समरसता मंच' की स्थापना की है, जो विभिन्न जातियों के बीच 'समरसता' के लिए काम करता है। यह संस्था जाति की अवधारणा को चुनौती नहीं देती और ना ही जाति के उन्मूलन की बात करती हैए जो कि अंबेडकर के प्रिय लक्ष्य थे।
संघ परिवार जो कवायद कर रहा है, उसके दो स्पष्ट उद्देश्य हैं। चूंकि आरएसएस ने कभी देश की स्वाधीनता की लड़ाई में हिस्सेदारी नहीं की इसलिए उसके पास खुद का कोई स्वाधीनता संग्राम सेनानी है ही नहीं। यही कारण है कि उसे सावरकर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने के मिथक को गढ़ना पड़ा। सावरकर ने अपने जीवन के शुरूआती दौर में ब्रिटिश शासन के खिलाफ काम किया था परंतु अंडमान के सेल्युलर जेल में कुछ दिन सजा काटने के बाद वे ब्रिटिश.विरोधी क्रांतिकारी की जगह अंग्रेज सरकार के समर्थक बन गए। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से लिखित माफी मांगी और फिर कभी किसी ब्रिटिश.विरोधी आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया। आरएसएस का सावरकर के सिवा ऐसा कोई भी नेता नहीं है, जिसने अंग्रेजों का तनिक भी विरोध किया हो। वैसे तो सावरकर भी आरएसएस के सदस्य नहीं थे यद्यपि उनका और संघ का उद्देश्य एक ही था.हिंदू राष्ट्र की स्थापना।
संघ परिवार के कई सदस्य गोडसे के प्रति श्रद्धा रखते हैं और उसे एक महान विभूति मानते हैं। गोडसे ने आरएसएस की शाखाओं में प्रशिक्षण प्राप्त किया और बाद में हिंदू महासभा की पुणे इकाई का सचिव बन गया। चूंकि कई भाजपा नेताओं ने भी खाकी हाफपेंट पहनकर आरएसएस की शाखाओं में भाग लिया है इसलिए वे गोडसे और अपनी हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा में कई समानताएं पाते हैं और गांधीजी के हत्यारे के प्रशंसक हैं। सावरकर और गोडसे के प्रतीकों का उपयोग वे हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए करते हैं। हिंदू राष्ट्रवादए उस भारतीय राष्ट्रवाद से बिलकुल भिन्न है जो कि भारतीय संविधान की बुनियाद है। ऐसा करना उनके लिए इसलिए जरूरी है क्योंकि वे स्वयं को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी सिद्ध करना चाहते हैं। यहए इस तथ्य के बावजूद कि उनका राष्ट्रवादए हिंदू राष्ट्रवाद हैए भारतीय राष्ट्रवाद नहीं। वे सावरकर की शुरूआती ब्रिटिश.विरोधी गतिविधियों को बढ़ाचढ़ा कर प्रस्तुत कर अपनी स्वीकार्यता बढ़ाना चाहते हैं जबकि सच यह है कि सावरकर ने अपनी जेल यात्रा के बाद से स्वाधीनता संग्राम से दूरियां बना लीं थीं और आरएसएस का तो स्वाधीनता आंदोलन से कोई लेनादेना ही नहीं था।
इसके साथ.साथए संघ परिवार पटेल और नेहरू को एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है। उद्देश्य है नेहरू के कद को छोटा करना। पटेल और नेहरू एक.दूसरे के निकट सहयोगी थेय दोनों महात्मा गांधी के अनुयायी थे और दोनों ने मिलजुल कर राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सेदारी की और बाद में स्वाधीन भारत के पहले मंत्रिमंडल में एक साथ काम किया। दरअसलए आरएसएसए नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनकी असंदिग्ध प्रतिबद्धता और फिरकापरस्ती से किसी स्थिति में समझौता न करने की उनकी नीति को कभी पचा नहीं सका। वे पटेल को नेहरू का विरोधी सिद्ध करना चाहते हैं जबकि सच यह है कि पटेल भी पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष नेता थे।
आरएसएस अपने कुछ नेताओं की छवि को चमकाना भी चाहता है। संघ के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर,संघ कार्यकर्ताओं की कई पीढि़यों के प्रेरणास्त्रोत रहे हैं। उनकी पुस्तक 'व्ही ऑर अवर नेशनहुड डिफांइड' ने हजारों संघ कार्यकर्ताओं की सोच को आकार दिया है। गोलवलकर,हिटलर की कार्यप्रणाली को उचित मानते थे और हिटलर ने जिस तरह के राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया था, उसके प्रशसंक थे। उनकी यह पुस्तक लंबे समय तक आरएसएस कार्यकर्ताओं की बाईबल थी। इस पुस्तक का एक उद्धरण, संघ की विचारधारा का संक्षिप्त और सटीक विवरण प्रस्तुत करता हैः 'जर्मनी का राष्ट्रीय गौरव चर्चा का विषय है। अपनी नस्ल तथा संस्कृति की शुद्धता की रक्षा करने के लिएए देश की यहूदी नस्ल काए यहूदियों का सफाया करके जर्मनी ने सारी दुनिया को स्तंभित कर दिया था। यहाँ नस्लीय गौरव के चरमोत्कर्ष की अभिव्यक्ति हुई है। जर्मनी ने यह भी दिखा दिया है कि बुनियादी भिन्नताओं वाली नस्लों तथा संस्कृतियों का एक एकीकृत समग्रता में घुलमिल पाना लगभग असंभव ही है। यह हम हिन्दुस्तान के लोगों के लिए एक अच्छा सबक है कि इससे सीखें और लाभ उठाएँ' ;व्ही ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड, पृष्ठ 27, नागपुर, 1938। लगभग एक दशक पहले, आरएसएस को चुनावी.राजनैतिक मजबूरियों के चलते इस पुस्तक से शर्मिंदगी महसूस होने लगी और संघ की ओर से यह कहा जाने लगा कि यह पुस्तक गोलवलकर ने लिखी ही नहीं थी! इस पुस्तक की प्रतियां बाजार से गायब हो गईं। परंतु यहां हमें यह स्मरण रखना होगा कि संघ ने ऐसा केवल चुनावी गणित के कारण किया न कि किसी विचारधारात्मक परिवर्तन के कारण।
अब संघ दीनदयाल उपाध्याय को अपने सर्वोच्च चिंतक के रूप में प्रचारित कर रहा है। दीनदयाल उपाध्याय ने 'एकात्म मानवतावाद' की अवधारणा को गढ़ा। इस विचारधारा का मूल भाव यह है कि सामाजिक रिश्तों' विशेषकर जाति' के मामले में यथास्थिति बनाए रखी जाए। एकात्म मानवतावाद पर जोर, आरएसएस की राजनीति के असली और गहरे एजेण्डे की ओर संकेत करता है। संघ, राष्ट्रीय विभूतियों में से कुछ का महिमामंडन करके और कुछ को बदनाम कर हिंदुत्ववादी राजनीति का प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है। यह राजनीति ऊपरी तौर पर तो एक धर्म पर आधारित है परंतु असल में यह हिंदू श्रेष्ठी वर्ग का राजनीतिक एजेंडा लागू करने की कोशिश है। और इस एजेण्डे को पूरा करने के लिए यदि समाज के निम्न तबकों में से कुछ को साथ मिलाना भी पड़े तो आरएसएस को इससे परहेज नहीं है। आश्चर्य नहीं कि आरएसएस एक ऐसी संस्कृति का वाहक है जो सांप्रदायिक और प्रतिगामी है। यही हिंदू राष्ट्रवाद का एजेण्डा भी है।
-राम पुनियानी
 

मोदी सरकार की पहली वर्षगांठ-भाग.2

Posted: 08 Jun 2015 05:56 AM PDT



पिछले अंक से जारी
न्यायपालिका से टकराव: प्रजातांत्रिक संस्थाओं की अवहेलना
मोदी सरकार ने अगस्त 11ए 2014 को लोकसभा में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियां आयोग विधेयक 2014' व 'संविधान ;121वां संशोधन: विधेयक 2014' प्रस्तुत किए। इन दोनों विधेयकों को राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियां आयोग ;एनजेएसी: के गठन के लिए लाया गया था। एनजेएसी अधिनियम में उस प्रक्रिया का वर्णन किया गया है, जो कि एनजेएसी भारत के मुख्य न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों, उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों व उच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अपनाएगा। अगर न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलिजियम व्यवस्था में कमियां थीं तो एनजेएसी एक ऐसी दवा हैए जो मर्ज को और बिगाड़ेगी। इस आयोग के अध्यक्ष होंगे भारत के मुख्य न्यायाधीश। इसके सदस्यों में केन्द्रीय विधि मंत्री, उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश व दो प्रतिष्ठित विधिवेत्ता होंगे। प्रतिष्ठित विधिवेत्ताओं का नामांकनए प्रधानमंत्री,विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश की सदस्यता वाली त्रिसदस्यीय समिति करेगी।
इस समय देश की विभिन्न अदालतों में व विशेषकर उच्च व उच्चतम न्यायालयों में जितने भी मुकदमे चल रहे हैं, उनमें से अधिकांश में भारत सरकार एक पक्षकार है। न्यायिक नियुक्तियां आयोग में केंद्रीय कानून व न्याय मंत्री.जो कि सबसे बड़े पक्षकार के प्रतिनिधि हैं.और भारत के मुख्य न्यायाधीश.जिन्हें उन कई मुकदमों में निर्णय सुनाना है, जिनमें भारत सरकार एक पक्षकार है.एक साथ बैठेंगे। एक बड़ी पुरानी कहावत है कि न्याय न केवल होना चाहिए वरन् होते हुए दिखना भी चाहिए। अगर विधि मंत्री और आयोग के दो में एक विधिवेत्ता सदस्य मिल जाएं तो उनके पास किसी भी प्रस्तावित नियुक्ति को वीटो करने का अधिकार होगा क्योंकि एनजेएसी एक्ट में यह व्यवस्था है कि अगर आयोग के दो या दो से अधिक सदस्य किसी व्यक्ति के नाम पर सहमत न हों तो आयोग उसकी नियुक्ति की सिफारिश नहीं करेगा। जाहिर है कि एनजेएसी अधिनियम का उद्देश्य, केंद्र सरकार के प्रति नर्म रूख रखने वाले या उसकी पसंद के व्यक्तियों की उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियां सुनिश्चित करना है। भारत में लंबित मुकदमों का अंबार है। इन मुकदमों के जल्द से जल्द निपटारे और न्याय व्यवस्था को अधिक सुगम व सरल बनाने के लिए कुछ करने की बजाए,मोदी सरकार अपनी पसंद के जजों की नियुक्ति करने की जुगत भिड़ा रही है। ज्ञातव्य है कि जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे,तब मोदी और उनके मंत्रिमंडल के अनेक साथियों पर कई मुकदमे चले थे और उनके दो निकटस्थ सहयोगियों.मायाबेन कोडनानी और अमित शाह.को अदालतों ने दोषी करार दिया था।
एनजेएसी, न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सीमित करेगा। कुछ समय पहले प्रधानमंत्री मोदी ने न्यायपालिका का आह्वान किया था कि वो आत्मावलोकन व आत्म.मूल्यांकन के लिए आंतरिक मशीनरी विकसित करे। उन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू व अन्य न्यायाधीशों को यह सलाह भी दी थी कि वे इस पर विचार करें कि कहीं 'पांच सितारा कार्यकर्ता' व 'पांच सितारा परिप्रेक्ष्य' तो न्यायपालिका पर हावी नहीं हो रहा है। एक तरह से यह कार्यपालिका के मुखिया द्वारा सार्वजनिक रूप से न्यायपालिका पर आक्षेप था। मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ताओं को'पांच सितारा कार्यकर्ता' कहना न केवल दुर्भाग्यपूर्ण बल्कि आधारहीन भी था। इससे ऐसा प्रतीत होना स्वाभाविक था कि कार्यपालिका, न्यायपालिका से टकराव की ओर बढ़ रही है। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने एनजेएसी की कार्यवाही में भाग लेने से यह कहकर इंकार कर दिया कि उच्चतम न्यायालय,एनजेएसी के गठन को चुनौती देने वाली जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है।
मोदी सरकार ने सूचना का अधिकार अधिनियम ;आरटीआई के अंतर्गत मुख्य सूचना आयुक्त और खाली पड़े चार आयुक्तों के पदों पर नियुक्तियां नहीं की। इस कारण आरटीआई अर्थहीन.सा हो गया। केंद्रीय सूचना आयोग में 2011 में छः आयुक्तों ने 22,351 प्रकरणों का निपटारा किया था वहीं 2014 में सात आयुक्तों ने केवल 16,006 मामले निपटाए।
मोदी सरकार ने लोकपाल की नियुक्ति भी नहीं की। हिंदू राष्ट्रवादियों की जयजयकार के बीचए 'टीम अन्ना' ने लोकपाल की नियुक्ति के लिए कानून बनाए जाने की मांग को लेकर लंबा आंदोलन किया था। टीम अन्ना का मानना था कि लोकपाल की नियुक्ति से भ्रष्टाचार की समस्या समाप्त हो जाएगी। मोदी सरकार ने चुनाव के पहले जनता से यह वायदा किया था कि वो देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाएगी परंतु उसने तो लोकपाल की नियुक्ति करने तक की ज़हमत नहीं उठाई।
सांस्कृतिक व नैतिक पुलिस 
जहां एक ओर सड़कों और चौराहों पर नैतिकता और संस्कृति के स्वनियुक्त रक्षकों की गतिविधियों में तेजी से वृद्धि हुई वहीं मोदी सरकार ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणीकरण बोर्ड के अध्यक्ष पद पर पहलाज निहलानी की नियुक्ति कर यह स्पष्ट कर दिया कि वह समाज पर अनुदारवादी व दकियानूसी परंपराएं लादने की हामी है। निहलानी फिल्म निर्माता हैं परंतु इस क्षेत्र में उनकी कोई विशेष उपलब्धि नहीं है। हां,उन्होंने मोदी के प्रचार के लिए एक फिल्म जरूर बनाई थी जिसका शीर्षक थाए 'हर हर मोदी, घर घर मोदी'।
फिल्म प्रमाणीकरण अपीलीय अभिकरण ने एक फिल्म 'मेसेंजर ऑफ गॉड' को प्रमाणीकृत कर दिया। इसके पहलेए सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म, जिसमें डेरा सच्चा सौदा के मुखिया गुरूमीत राम रहीम सिंह की मुख्य भूमिका है, को पास करने से इंकार कर दिया था। इसके कारण बोर्ड की पूर्व मुखिया लीला सैमसन के लिए उनके पद पर बने रहना कठिन हो गया और उनके साथ बोर्ड के 12 अन्य सदस्यों ने भी इस्तीफा दे दिया।
बोर्ड के 12 सदस्यों इरा भास्कर, एमके रैना, पंकज शर्मा, टीजी थियागराजन, शाजी करूण, अंजुम राजाबलि, शुभ्रा गुप्ता, निखिल अल्वा, राजीव मसंद, मनमंग दाई, केसी शेखर बाबू व आईके प्रभु ने केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन राठौर को भेजे एक संयुक्त ईमेल में अपने इस्तीफे की सूचना देते हुए लिखा किए 'लंबे समय से हमारे धैर्य की परीक्षा ली जा रही थी और अंततः, हालिया घटनाक्रम के बाद, अध्यक्षा सुश्री लीला सैमसन ने मजबूर होकर अपने पद से इस्तीफा दे दिया.हम लोग काफी लंबे समय से कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तनों की मांग करते आए हैं जो कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणीकरण बोर्ड की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए आवश्यक हैं। परंतु 'कई बार सिफारिशें और अपीलें भेजने,मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों व सचिवों के साथ कई बैठकों के आयोजन और पिछले मंत्री के साथ एक मुलाकात के बाद भी मंत्रालय ने एक भी सकारात्मक कदम नहीं उठाया'।
पहलाज निहलानी के काम करने के तरीके के विरूद्ध सेंसर बोर्ड में विद्रोह हो गया। बोर्ड के एक प्रतिष्ठित सदस्य अशोके पंडित ने निहलानी को एक 'आदिम बादशाह' बताया जो कि बोर्ड को अपना'व्यक्तिगत साम्राज्य'समझता है।  बोर्ड के कई सदस्य पहलाज निहलानी की निर्णय लेने की तानाशाहीपूर्ण प्रक्रिया से सहमत नहीं हैं और ना ही वे फिल्मों में जबरन कांटछांट करने की उनकी प्रवृत्ति से इत्तेफाक रखते हैं। वे निहलानी द्वारा बनाई गई 'गालियों' की सूची से भी सहमत नहीं हैं,जिसमें हिंदी के 15 और अंग्रेजी के 13 ऐसे शब्द शामिल हैंए जिन्हें निहलानी के अनुसार, किसी फिल्म में नहीं होना चाहिए। फिल्मी दुनिया ने निहलानी पर 'नैतिक पुलिस' बनने का प्रयास करने का आरोप लगाया तो फिल्म निर्माता विशाल भारद्वाज ने कहा कि वे तालिबान की तरह व्यवहार कर रहे हैं।
पांच सितारा कार्यकर्ता
गुजरात के सन् 2002 के दंगों के बाद, प्रधानमंत्री मोदी को कई सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा दायर किए गए ऐसे मुकदमों का सामना करना पड़ा था, जिनमें यह आरोप लगाया गया था कि उनकी और उनकी सरकार की गुजरात दंगों में भूमिका थी। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने औद्योगिकरण के नाम पर आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की जमीनें जबरदस्ती अधिग्रहित किए जाने का विरोध भी किया था। जो लोग विस्थापित किए गएए उनमें मुख्यतः आदिवासी और दलित थे। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने उन लोगों के पक्ष में भी आवाज़ उठाई जिन्होंने गुजरात कत्लेआम के पीडि़तों की न्याय की लड़ाई लड़ी थी। यही कारण है कि मोदी सरकार,मानवाधिकार संगठनों पर निशाना साध रही है। प्रधानमंत्री की 'पांच सितारा कार्यकर्ता' वाली टिप्पणी को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। 'विदेशी योगदान नियमन अधिनियम';एफसीआरए के अंतर्गत 'सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस' की तीस्ता सीतलवाड और 'ग्रीनपीस' की प्रिया पिल्लई की जांच की गई। उनको मिलने वाले अनुदान और सहायता के स्त्रोतों की पड़ताल की गई और प्रिया पिल्लई को तो इंग्लैंड जाने से रोक दिया गया। वहां वे इसलिए जा रही थीं ताकि इंग्लैंड में पंजीकृत एस्सार कंपनी द्वारा छत्तीसगढ़ में किए जा रहे भारी पर्यावरणीय नुकसान के बारे में ब्रिटिश सांसदों के समक्ष एक प्रस्तुतिकरण दे सकें। इन कार्यकर्ताओं को इसलिए निशाना बनाया गया ताकि अन्य एनजीओ, हाशिए पर पड़े लोगों के अधिकारों की रक्षा से तौबा कर लें और नागरिक समाजए पर्यावरणीय व श्रम कानूनों के उल्लंघनों पर नजर रखना बंद कर दें और बड़े औद्योगिक घराने, देश की प्राकृतिक संपदा को खुलकर लूट सकें और श्रमिकों का शोषण कर अपने खजाने भर सकें।
जहां एक ओर सरकार मानवाधिकारों के रक्षकों को सींखचों के पीछे पहुंचाने के लिए हर तरह की कोशिश करती रही वहीं माया कोडनानी व बाबू बजरंगी जैसे कई दोषसिद्ध अपराधी, मोदी सरकार के पहले साल में जेलों से बाहर आने में कामयाब हो गए। इनमें गुजरात के ऐसे कई पुलिस अधिकारी शामिल हैं जिनपर झूठी मुठभेड़ों में निर्दोष लोगों को मारने के आरोप हैं। डीजी वंझारा, एमके अमीन व अन्य कई पुलिस अधिकारियों को जमानत मिल गई। जमानत पर जेल से बाहर आने के बाद वंझारा ने कहा कि उनके 'अच्छे दिन' आ गए हैं। गुजरात सरकार ने तुलसीराम प्रजापति को फर्जी मुठभेड़ में मार गिराने संबंधी मामले में गुजरात के पूर्व पुलिस महानिदेशक पीसी पांडे पर मुकदमा चलाने की इजाजत नहीं दी।
सरकार की पलटियां
मोदी सरकार को अलग.अलग मुद्दों पर पलटियां खाने के लिए कई लोगों ने कटघटरे में खड़ा किया। कांग्रेस द्वारा प्रकाशित एक पुस्तिका में शुरूआती 180 दिनों के 25 यू.टर्नों की सूची दी गई है। इनमें शामिल हैं सौ दिन के भीतर विदेशों में जमा काला धन वापिस लाना व हर भारतीय के खाते में 15 लाख जमा करना आदि। बाद में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि अगर काला धन वापिस आया तो भी उसे हर भारतीय के खाते में जमा नहीं कराया जाएगा और यह भी कि हर भारतीय को 15 लाख रूपये मिलने की बात तो चुनाव प्रचार का एक जुमला थी।
स्वच्छ भारत अभियान से भी बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ। यह अभियान केवल नारेबाजी और प्रतीकात्मकता तक सीमित रह गया। इस अभियान को असफल होना ही था क्योंकि सरकार की इसमें बहुत कम भूमिका थी और मुख्य काम नागरिकों को करना था। साफ.सफाई का उच्च स्तर बनाए रखने के लिए ढ़ेर सारे संसाधनों और उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। चाहे वह जमीन हो, हवा, पानी या मनुष्य का दिमाग.सफाई बनाए रखना एक कठिन और खर्चीला काम है। इस अभियान ने गांधी की तौहीन की। गांधीजी की विराट भूमिका को केवल साफ.सफाई तक सीमित कर दिया गया। सरकार ने क्रिसमस के त्योहार का महत्व घटाने की कोशिश भी की। इसके लिए 25 दिसंबर को सुशासन दिवस मनाया गया।
हमें क्या करना चाहिए
हाशिए पर पड़े वर्गों के कुछ हिस्सेए विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले लोगों का मोदी सरकार से मोहभंग हो रहा है। हम यह नहीं कहते कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार का प्रदर्शन बेहतरीन था। परंतु यह सरकार उससे भी बुरी साबित हुई है।
दलितए आदिवासी, श्रमिक व छोटे व सीमांत कृशकों जैसे वंचित समुदायों के लिए अच्छे दिन केवल सरकार की नीतियों के प्रभाव से उन्हें परिचित करवाने से नहीं आएंगे। इन वर्गों के लोगों को साम्प्रदायिकता की अफीम चटाई जा रही है ताकि वे अपनी समस्याओं के असली स्त्रोत को न पहचान सकें और एक दूसरे वंचित तबके.अल्पसंख्यकों.को अपना शत्रु समझ लें। साम्प्रदायिक राजनीति का मूलमंत्र ही यह है कि समाज के एक वंचित व दमित तबके को दूसरे वंचित व दमित तबके से भिड़ा दिया जाए। दरअसल सबसे राक्षसी कुटिलता वाली शासन प्रणाली वह नहीं होती जिसमें ऊपर बैठे लोग नीचे वालों को नियंत्रित करते हैं बल्कि वह होती है जिसमें ऊपर बैठे लोग सभी को आपस में लड़वाते रहते हैं।
हमें लोगों की भौतिक जिंदगी बेहतर बनाने के लिए तो लड़ना ही हैए हमें अपनी संस्कृति व परंपराओं का आलोचनात्मक परीक्षण भी करना होगा। भारत विविधताओं का देश है और हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जरूरत है जो विद्यार्थियों को विविधता और बहुवाद का सम्मान करना सिखाए।
----------इरफान इंजीनियर