मंगलवार, 2 जून 2015

हरयाणा का सामाजिक सांस्कृतिक परिद्रश्य

हरयाणा का सामाजिक सांस्कृतिक परिद्रश्य
रणबीर सिंह दहिया
हरयाणा एक कृषि प्रधान प्रदेश के रूप में जाना जाता है द्यराज्य के समृद्ध और सुरक्षा के माहौल में यहाँ के किसान और मजदूर व  महिला और पुरुष ने अपने खून पसीने की कमाई से नई तकनीकों , नए उपकरणों , नए खाद बीजों व पानी का भरपूर इस्तेमाल करके खेती की पैदावार को एक हद तक बढाया  ,जिसके चलते हरयाणा के एक तबके में सम्पन्नता आई मगर हरयाणवी समाज का बड़ा हिस्सा इसके वांछित फल नहीं प्राप्त कर सका ।
         किसी भी समाज में बराबरी और न्याय की स्थिति का जायजा इस बात से लिया जा सकता है कि उस समाज के वंचित, अभावग्रस्त और कमजोर तबके तक बुनियादी सुविधाओं की पहुंच कितनी हुई है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, सड़क और मकान ऐसी बुनियादी सुविधाएं हैं जो गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक हैं। शिक्षा को सामाजिक विकास की धुरी तथा गुणवत्तापूर्ण जीवन के लिए अपरिहार्य माना जाता है। अनुभव बताते हैं कि सरकारें तमाम बुनियादी सुविधाओं के साथ-साथ इन तबकों तक शिक्षा की पहुंच की अनदेखी करती रही हैं। समाज के एक बड़े हिस्से को अभी तक सही मायने में ये सुविधाएं मुहैया नहीं हो पाई हैं। इस मायने में विकास के दावों और नारों  की जमीनी हकीकत के बीच खाई नजर आती है। यह एक सच्चाई है कि हरयाणा के आर्थिक विकास के मुकाबले में सामाजिक विकास बहुत पिछड़ा रहा है ।  ऐसा क्यों हुआ ?  यह एक गंभीर सवाल है और अलग से एक गंभीर बहस कि मांग करता है । हरयाणा  के सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्र पर शुरू से ही इन्ही संपन्न तबकों का गलबा रहा है । यहाँ  के काफी लोग फ़ौज में गए और आज भी हैं मगर उनका हरयाणा में क्या योगदान रहा इस पर ज्यादा ध्यान नहीं गया है ।  इसी प्रकार देश के विभाजन के वक्त जो तबके हरयाणा में आकर बसे उन्होंने हरयाणा कि दरिद्र संस्कृति को कैसे प्रभावित किया य इस पर भी गंभीरता से सोचा जाना शायद बाकी है ।  क्या हरयाणा की संस्कृति महज रोहतकए जींद व सोनीपत जिलों कि संस्कृति है? क्या हरयाणवी डायलैक्ट एक भाषा का रूप ले ले सकता है ? महिला विरोधी, दलित विरोधी तथा प्रगति विरोधी तत्वों को यदि हरयाणवी संस्कृति से बाहर कर दिया जाये तो हरयाणवी संस्कृति में स्वस्थ पक्ष क्या बचता है ? इस पर समीक्षात्मक रुख अपना कर इसे विश्लेषित करने कि आवश्यकता है ।  क्या पिछले दस पन्दरा सालों में और ज्यादा चिंताजनक पहलू हरयाणा के सामाजिक सांस्कृतिक माहौल में शामिल नहीं हुए हैं ? व्यक्तिगत स्तर पर महिलाओं और पुरुषों ने बहुत सारी सफलताएँ हांसिल की हैं ।  समाज के तौर पर १८५७ की आजादी की पहली जंग में सभी वर्गों , सभी मजहबों व सभी जातियों के महिला पुरुषों का सराहनीय योगदान रहा है ।  इसका असली इतिहास भी कम लोगों तक पहुँच सका है ।
            हमारे हरयाणा के गाँव में पहले भी और कमोबेश आज भी गाँव की संस्कृति , गाँव की परंपरा , गाँव की इज्जत व शान के नाम पर बहुत छल प्रपंच रचे गए हैं और वंचितों,  दलितों व महिलाओं के साथ न्याय कि बजाय बहुत ही अन्याय पूर्ण व्यवहार किये जाते रहे हैं । उदाहरण के लिए हरयाणा के गाँव में एक पुराना तथाकथित भाईचारे व सामूहिकता का हिमायती रिवाज रहा है कि जब भी तालाब (जोहड़) कि खुदाई का काम होता तो पूरा गाँव मिलकर इसको करता था ।  रिवाज यह रहा है कि गाँव की हर देहल से एक आदमी तालाब कि खुदाई के लिए जायेगा ।  पहले हरयाणा के गावों क़ी जीविका पशुओं पर आधारित ज्यादा रही है ।(पेस्टोरल सोसाइटी )।   गांव  के कुछ घरों के पास १०० से अधिक पशु होते थे ।  इन पशुओं का जीवन गाँव के तालाब के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा  होता था ।  गाँव क़ी बड़ी आबादी के पास न ज़मीन होती थी न पशु होते थे ।  अब ऐसे हालत में एक देहल पर तो सौ से ज्यादा पशु हैं  वह भी अपनी देहल से एक आदमी खुदाई के लिए भेजता था और बिना ज़मीन व पशु वाला भी अपनी देहल से एक आदमी भेजता था ।  वाह कितनी गौरवशाली और न्यायपूर्ण परंपरा थी हमारी ! यह तो महज एक उदाहरण है परंपरा में गुंथे अन्याय को न्याय के रूप में पेश करने का ।
             महिलाओं के प्रति असमानता व अन्याय पर आधारित हमारे रीति रिवाज , हमारे गीत, चुटकले व हमारी परम्पराएँ आज भी मौजूद हैं ।  इनमें मौजूद दुभांत को देख पाने क़ी दृष्टि अभी विकसित होना बाकी है ।  लड़का पैदा होने पर लडडू बाँटना मगर लड़की के पैदा होने पर मातम मनाना , लड़की होने पर जच्चा को एक धडी घी और लड़का होने पर दो धडी घी देना, लड़के क़ी छठ मनाना, लड़के का नाम करण संस्कार करना,  शमशान घाट में औरत को जाने क़ी मनाही , घूँघट करना इज़्ज़त का प्रतीक , यहाँ तक कि गाँव कि चौपाल से घूँघट करना आदि बहुत से रिवाज हैं जो असमानता व अन्याय पर टिके हुए हैं ।  सामन्ती  पिछड़ेपन व सरमायेदारी बाजार के कुप्रभावों के चलते महिला पुरुष अनुपात चिंताजनक स्तर तक चला गया है ।  मगर पढ़े लिखे हरयाणवी भी इनका निर्वाह करके बहुत फखर महसूस करते हैं ।  यह केवल महिलाओं की संख्या कम होने का मामला नहीं है बल्कि सभ्य समाज में इंसानी मूल्यों की गिरावट और पाशविकता को दर्शाता है ।  हरयाणा में पिछले कुछ सालों से यौन अपराध , दूसरे राज्यों से महिलाओं को खरीद के लाना और उनका यौन शोषण तथा बाल विवाह आदि का चलन बढ़ रहा है ।  सती, बाल विवाह, अनमेल विवाह के विरोध में यहाँ बड़ा सार्थक आन्दोलन नहीं चला ।  स्त्री शिक्षा पर बल रहा मगर को एजुकेसन का विरोध किया गया ।  स्त्रियों कि सीमित सामाजिक भूमिका की भी हरयाणा में अनदेखी की गयी ।  उसको अपने पीहर की संपत्ति में से कुछ नहीं दिया जा रहा जबकि इसमें उसका कानूनी हक़ है ।  चुन्नी उढ़ा कर शादी करके ले जाने की बात चली है ।  दलाली संस्कृति , भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी से पैसा कमाने की बढती प्रवृति चारों तरफ देखी जा सकती है ।  यहाँ समाज के बड़े हिस्से में अन्धविश्वास , भाग्यवाद , छुआछूत , पुनर्जन्मवाद , मूर्तिपूजा , परलोकवाद , पारिवारिक दुश्मनियां , झूठी आन.बाण के मसले, असमानता  पलायनवाद , जिसकी लाठी उसकी भैंस , मूछों के खामखा के सवाल , परिवारवाद ,परजीविता ,तदर्थता आदि सामंती विचारों का गहरा प्रभाव नजर आता है।   ये प्रभाव अनपढ़ ही नहीं पढ़े लिखे लोगों में भी कम नहीं हैं ।   हरयाणा के मध्यमवर्ग का विकास एक अधखबडे मनुष्य के रूप में हुआ ।  आधा विवेकशील ,आधा अविवेकशील । विवेक का अनुपात कम ज्यादा देखा जा सकता  है ।
          तथाकथित स्वयम्भू पंचायतें नागरिक के अधिकारों का हनन करती रही हैं और महिला विरोधी व दलित विरोधी तुगलकी फैसले करती रहती हैं और इन्हें नागरिक को मानने पर मजबूर करती रहती हैं ।  राजनीति  व प्रशासन मूक दर्शक बने रहते हैं या चोर दरवाजे से इन पंचातियों की मदद करते रहते हैं । अब तो खुलम खुला राजनितिक समर्थन मिल रहा है ।  यह अधखबड़ा  मध्यम वर्ग भी कमोबेश इन पंचायतों के सामने घुटने टिका देता है ।  हरयाणा में सर्व खाप पंचायतों द्वारा जाति, गोत ,संस्कृति ,मर्यादा आदि के नाम पार महिलाओं के नागरिक अधिकारों के हनन में बहुत तेजी आई है और अपना सामाजिक वर्चस्व बरक़रार रखने के लिए जहाँ एक ओर ये जातिवादी पंचायतें घूँघट ,मार पिटाई ,शराब ,नशा ,लिंग पार्थक्य ,जाति के आधार पर अपराधियों को संरक्षण देना आदि सबसे पिछड़े विचारों को प्रोत्साहित करती हैं वहीँ दूसरी ओर साम्प्रदायिक ताकतों के साथ मिलकर युवा लड़कियों की सामाजिक पहलकदमी और रचनात्मक अभिव्यक्ति को रोकने के लिए तरह तरह के फतवे जारी करती हैं ।  जौन्धी ,नयाबांस की घटनाएँ तथा इनमें इन पंचायतों द्वारा किये गए तालिबानी फैंसले जीते जागते उदाहरण हैं ।  युवा  लड़कियां केवल बाहर ही नहीं बल्कि परिवार में भी अपने लोगों द्वारा यौन.हिंसा और दहेज़ हत्या की शिकार हों रही हैं ।  ये पंचायतें बड़ी बेशर्मी से बदमाशी करने वालों को बचाने की कोशिश करती है ।  अब गाँव की गाँव गोत्र की गोत्र और सीम के लगते गाँव के भाईचारे की गुहार लगाते हुए हिन्दू विवाह कानून १९५५ ए में संसोधन की बातें की जा रही हैं । धमकियाँ दी जा रही हैं और जुर्माने किये जा रहे हैं।  हरयाणा के रीति रिवाजों की जहाँ एक तरफ दुहाई देकर संशोधन की मांग उठाई जा रही है वहीँ हरयाणा की ज्यादतर आबादी के रीति रिवाजों की अनदेखी भी की जा रही है ।
           गाँव की इज्जत के नाम पर होने वाली जघन्य हत्याओं की हरयाणा में बढ़ोतरी हों रही है ।  समुदाय , जाति या परिवार की इज्जत बचाने के नाम पर महिलों को पीट पीट कर मार डाला जाता है  उनकी हत्या कर दी जाति है या उनके साथ बलात्कार किया जाता है ।  एक तरफ तो महिला के साथ वैसे ही इस तरह का व्यवहार किया जाता है जैसे उसकी अपनी कोई इज्जत ही न हों , वहीँ उसे समुदाय की इज्जत मान लिया जाता है और जब समुदाय बेइज्जत होता है तो हमले का सबसे पहला निशाना वह महिला और उसकी इज्जत ही बनती है ।  अपनी पसंद से शादी करने वाले युवा लड़के लड़कियों को इस इज्जत के  नाम पर सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया जाता है ।
           यहाँ के जाने माने  सांगियों अलीबक्श , दीप चंद , हरदेवा ,  लख्मीचंद ,बाजे भगत ,मांगेराम ,चंदरबादी, धनपत ,खेमचंद व दयाचंद व  कवि मेहर सिंह दहिया की रचनाओं का गुणगान तो बहुत किया गया या हुआ है मगर उनकी आलोचनात्मक समीक्षा की जानी अभी बाकी है।   रागनी कम्पीटिसनों का दौर एक तरह से खत्म सा  हो गया  है । ऑडियो कैसेटों की जगह सी डी ने ली  अब पेन ड्राइव या मोबाइल चिप्स का दौर है इनमें सुनी जा रही रागनियों की  सार वस्तु में पुनरुत्थान वादी व अंध उपभोग्तवादी मूल्यों का घालमेल साफ नजर आता है ।  हरयाणा के  लोकगीतों पर भी समीक्षातमक काम कम हुआ है ।  महिलाओं के दुःख दर्द का चित्रण काफी है ।  हमारे त्योहारों के अवसर के बेहतर गीतों की बानगी भी मिल जाति है । 
        गहरे संकट के दौर हमारी धार्मिक आस्थाओं को साम्प्रदायिकता के उन्माद में बदलकर हमें जात गोत्र व धर्म के ऊपर लडवा कर हमारी इंसानियत के जज्बे को , हमारे मानवीय मूल्यों को विकृत किया जा रहा है ।  गऊ हत्या या गौ.रक्षा के नाम पर हमारी भावनाओं से खिलवाड़ किया जाता है ।  दुलिना हत्या कांड और अलेवा कांड गौ के नाम पर फैलाये जा रहे जहर का ही परिणाम हैं ।यह गौ भक्ति और ज्यादा उग्र रूप धार रही है ।  इसी धार्मिक उन्माद और आर्थिक संकट के चलते हर तीसरे मील पर मंदिर दिखाई देने लगे हैं । राधा स्वामी  और दूसरे सैक्टों का उभार भी देखने को मिलता है ।
         सांस्कृतिक स्तर पर हरयाणा के चार पाँच क्षेत्र हैं  और इनकी अपनी विशिष्टताएं हैं ।  हरेक  गाँव में भी अलग अलग वर्गों व जातियों के लोग रहते हैं ।  जातीय भेदभाव एक ढंग से कम हुए हैं मगर अभी भी गहरी जड़ें जमाये हैं ।  आर्थिक असमानताएं तेजी से  बढ़ रही हैं ।  सभी सामाजिक व नैतिक बंधन तनावग्रस्त होकर टूटने के कगार पर हैं ।  बेरोजगारी बेहताशा बढ़ी है ।  मजदूरी के मौके भी कम से कमतर होते जा रहे हैं ।  मजदूरों का जातीय उत्पीडन भी बढ़ा है । प्रवासी मजदूरों की हालत और भी बदतर हो रही है ।  दलितों पर अन्याय बढ़ा है वहीँ उनका असर्सन भी बढ़ा है । कुँए  अभी भी अलग अलग हैं । परिवार  के पितृसतात्मक ढांचे में परतंत्रता बहुत ही तीखी हों रही है ।  पारिवारिक रिश्ते नाते ढहते जा रहे हैं । मगर इनकी जगह जनतांत्रिक ढांचों का विकास नहीं हों रहा । तलाक  के केसिज की संख्या कचहरियों में बढती जा रही है ।  इन सबके चलते महिलाओं और बच्चों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है ।  मजदूर वर्ग सबसे ज्यादा आर्थिक संकट की गिरफ्त में है । खेत  मजदूरों ,भठ्ठा मजदूरों ,दिहाड़ी मजदूरों व माईग्रेटिड मजदूरों का जीवन संकट गहराया है । लोगों  का गाँव से शहर को पलायन बढ़ा है । आशा वर्कर , मिड डे मील वर्कर आदि की समस्याएं बढ़ी हैं । हालाँकि असंगठित क्षेत्र में ट्रेड यूनियन्ज की दखलंदाजी बढ़ी है। 
                   कृषि में मशीनीकरण बढ़ा है ।  तकनीकवाद का जनविरोधी स्वरूप ज्यादा उभार कर सामने आया है ।  ज़मीन की ढाई एकड़ जोत पर ८० प्रतिशत के लगभग किसान पहुँच गया है ।  ट्रैक्टर ने बैल की खेती को पूरी तरह बेदखल कर दिया है ।  थ्रेशर और हार्वेस्टर कम्बाईन ने मजदूरी के संकट को बढाया है ।  शामलात  जमीनें खत्म सी हों रही हैं ।  कब्जे कर लिए गए या आपस में जमीन वालों ने बाँट ली ।  अन्न की फसलों का संकट है ।  पानी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है ।  नए बीज ,नए उपकरण , रासायनिक खाद व कीट नाशक दवाओं के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की दखलंदाजी ने इस सीमान्त किसान के संकट को बहुत बढ़ा दिया है।  प्रति  एकड़ फसलों की पैदावार घटी है जबकि इनपुट्स की कीमतें बहुत बढ़ी हैं।  किसान  का कर्ज भी बढ़ा है । स्थाई  हालातों से अस्थायी हालातों पर जिन्दा रहने का दौर तेजी से बढ़ रहा है । अन्याय व अत्याचार बेइन्तहा बढ़ रहे हैं। । किसान  वर्ग के इस हिस्से में उदासीनता गहरे पैंठ  गयी है और एक निष्क्रिय परजीवी जीवन , ताश खेल कर बिताने की प्रवर्ति बढ़ी है।  हाथ से काम करके खाने की प्रवर्ति का पतन हुआ है ।  साथ ही साथ दारू व सुल्फे का चलन भी बढ़ा है और स्मैक जैसे नशीले पदार्थों की खपत बढ़ी है ।  मध्यम वर्ग के एक हिस्से के बच्चों ने अपनी मेहनत के दम पर सॉफ्ट वेयर आदि के क्षेत्र में काफी सफलताएँ भी हांसिल की हैं ।  मगर एक बड़े हिस्से में एक बेचैनी भी बखूबी देखी जा सकती है ।  कई जनतांत्रिक संगठन इस बेचैनी को सही दिशा देकर जनता के जनतंत्र की लडाई को आगे बढ़ाने में प्रयास रत दिखाई देते हैं।  अब समर्थन का ताना बाना टूट गया है और हरयाणा में कृषि का ढांचा बैठता जा रहा है।   इस ढांचे को बचाने के नाम पर जो नई कृषि नीति या नीति  परोसी जा रही है उसके पूरी तरह लागू होने के बाद आने वाले वक्त में ग्रामीण आमदनी , रोजगार और खाद्य सुरक्षा की हालत बहुत भयानक रूप धारण करने जा रही है और साथ ही साथ बड़े हिस्से का उत्पीडन भी सीमायें लांघता जा रहा है।  साथ ही इनकी दरिद्र्ता बढती जा रही है । बेरोजगार  नौजवान और  किसान सल्फास की गोलियां खाकर या फांसी लगाकर आत्म हत्या को मजबूर हैं। 
                 गाँव के स्तर पर एक खास बात और पिछले कुछ सालों में उभरी है वह यह कि  कुछ लोगों के प्रिविलेज बढ़ रहे हैं ।  इस नव धनाड्य वर्ग का गाँव के सामाजिक सांस्कृतिक माहौल पर गलबा है।  पिछले  सालों के बदलाव के साथ आई छद्म सम्पन्नता , सुख भ्रान्ति और नए नए  सम्पन्न तबकों ..परजीवियों ,मुफतखोरों और कमीशन खोरों .. में गुलछर्रे उड़ने की अय्यास कुसंस्कृति तेजी से उभरी है ।  नई नई कारें ,कैसिनो ,पोर्नोग्राफी ,नंगी फ़िल्में , घटिया केसैटें ,  हरयाणवी पॉप ,साइबर सैक्स, नशा व फुकरापंथी हैं। कथा वाचकों के प्रवचन ,झूठी हसियत का दिखावा इन तबकों की सांस्कृतिक दरिद्र्ता को दूर करने के लिए अपनी जगह बनाते जा रहे हैं।  जातिवाद व साम्प्रदायिक विद्वेष , युद्ध का उन्माद और स्त्री द्रोह के लतीफे चुटकलों से भरे हास्य कवि  सम्मलेन बड़े उभार पर हैं ।  इन नव धनिकों की आध्यात्मिक कंगाली नए नए बाबाओं और रंग बिरंगे कथा वाचकों को खींच लाई है ।  विडम्बना है कि  तबाह हों रहे तबके भी कुसंस्कृति के इस अंध उपभोगतावाद से छद्म ताकत पा रहे हैं ।
                     दूसर तरफ यदि गौर करेँ तो सेवा क्षेत्र में छंटनी और अशुरक्षा का आम माहौल बनता जा रहा है, इसके बावजूद कि विकास दर ठीक बताई जा रही है । कई हजार कर्मचारियों के सिर पर छंटनी कि तलवार चल चुकी है और बाकी कई हजारों के सिर पर लटक रही है ।  सैंकड़ों फैक्टरियां बंद हों चुकी हैं ।  बहुत से कारखाने यहाँ से पलायन कर गए हैं ।  छोटे छोटे कारोबार चौपट हों रहे हैं ।  मारुती के वर्कर्ज के साथ की गयी जालिम उत्पीड़न मजदूरों की हालत बयां करता है ।  संगठित क्षत्र सिकुड़ता और पिछड़ता जा रहा है , असंगठित क्षेत्र का तेजी से विस्तार हों रहा है ।  फरीदाबाद उजड़ने कि राह पर है , सोनीपत सिसक रहा है , पानीपत का हथकरघा उद्योग गहरे संकट में है , यमुना नगर का बर्तन उद्योग चर्चा में नहिं है , सिरसा ,हांसी व रोहतक की धागा मिलें बंद हों गयी ।  धारूहेड़ा में भी स्थिलता साफ दिखाई देती है ।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में और शिक्षा के क्षेत्र में बाजार व्यवस्था का लालची व दुष्ट्कारी खेल सबके सामने अब आना शुरू हो गया है । सार्वजनिक क्षेत्र में  साठ साल में खड़े किये ढांचों को या तो ध्वस्त किया जा रहा है या फिर कोडियों के दाम बेचा जा रहा है । शिक्षा आम आदमी की पहुँच से दूर खिसकती जा रही है । स्वास्थ्य के क्षेत्र में और भी बुरा हाल हुआ  है । गरीब मरीज के लिए सभी तरफ से दरवाजे बंद होते जा रहे हैं । लोगों को इलाज के लिए अपनी जमीनें बेचनी पड़  रही हैं । आरोग्य कोष या राष्ट्रिय बीमा योजनाएं ऊँट के मुंह  में जीरे के समान हैं । उसमें भी कई सवाल उठ रहे हैं ।मुख्य मंत्री मुफ्त इलाज योजना सिसक रही है । पी जी आई एम एस रोहतक भी खस्ता हाल बना दिया जा रहा है ।
             आज के दिन व्यापार धोखाधड़ी में बदल चुका  है । यही हाल हमारे यहाँ की ज्यादातर राजनैतिक पार्टियों का हो चुका है । आज के दिन हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा ने दुश्मनी का रूप ले लिया है । हरियाणा में दरअसल सभ्य भाषा का विकास ही नहीं हो पाया है । लठ की भाषा का प्रचलन बढ़ा है । भ्रम व् अराजकता का माहौल बढ़ा है । लोग किसी भी तरह मुनाफा कमाकर रातों रात करोड़पति से अरब पति बनने  के सपने देखते हैं । मनुष्य की मूल्य व्यवस्था ही उसकी विचारधारा होती है । मनुष्य कितना ही अपने को गैर राजनैतिक मानने की कोशिश करे फिर भी वह अपनी जिंदगी  में मान मूल्यों का निर्वाह करके इस या उस वर्ग की राजनीति कर रहा होता है । विचार धारा का अर्थ है कोई समूह ,समाज या मनुष्य खुद को अपने चारों ओर की दुनिया को, अपनी वास्तविकता को कैसे देखता है । इस सांस्कृतिक क्षेत्र के भिन्न भिन्न पहलू हैं । धर्म, परिवार , शिक्षा , प्रचार माध्यम , सिनेमा, टी वी ,रेडियो ,ऑडियो ,विडिओ ,अखबार , पत्र ..पत्रिकाएँ , अन्य लोकप्रिय साहित्य , संस्कृति के अन्य लोकप्रिय रूप जिनमें लोक कलाएं ही नहीं जीवन शैलियों से लेकर तीज त्यौहार , कर्मकांड , विवाह , मृत्यु भोज आदि तो हैं ही साथ में  टोन टोटके , मेले ठेले भी शामिल हैं । इतिहास और विचारधारा की समाप्ति की घोषणा करके एक सीमा तक भ्रम अवश्य फैलाया जा सकता है मगर वर्ग संघर्ष को मिटाया नहीं जा सकता । यही प्रकृति का नियम भी है और विज्ञानं सम्मत भी । इंसान पर निर्भर करता है कि वह मुठठी  भर लोगों के विलास बहुल जीवन की झांकियों को अपना आदर्श मानते हुए स्वप्न लोक के नायक और नायिकाओं के मीठे मीठे प्रणय गल्पों में मजा ले, मानव मानवी की अनियंत्रित यौन आकांक्षाओं को जीवन की सबसे बड़ी प्राथमिकता के रूप में देखें , औरत की देह को जीवन का सबसे सुरक्षित क्षेत्र बना डालें या अपने और आम जनता के विशाल जीवन और उसके विविध संघर्षों  को आदर्श मानकर वैचारिक उर्जा प्राप्त करे । समाज का बड़ा तबका बेचैन है अपनी गरिमा को फिर से अर्जित करने को। कुछ जनवादी संगठन इस बेचैनी को आवाज देने व जनता को वर्गीय आधारों पर लामबंद करने को प्रयासरत हैं ।
         आने वाले समय में गरीब और कमजोर तबकों , दलितों, युवाओं और  खासकर महिलाओं का अशक्तिकरण तथा इन तबकों का और भी हासिये पर धकेला  जाना साफ़ तौर पर उभरकर आ रहा है। इन तबकों का अपनी जमीं से उखड़ने ,उजड़ने व् तबाह होने का दौर शुरू हो चुका है और आने वाले समय में और तेज होने वाला है । हरियाणा में आज शिक्षित,अशिक्षित,और अर्धशिक्षित युवा लड़के व लड़कियां मारे मारे घूम रहे हैं । एक तरफ बेरोजगारी की मार है और दूसरी तरफ अंध उपभोग की लम्पट संस्कृति का अंधाधुंध प्रचार है । इनके बीच में घिरे ये युवक युवती लम्पटीकरण का शिकार तेजी से होते जा रहे हैं । स्थगित रचनात्मक उर्जा से भरे युवाओं को हफ्ता वसूली , नशाखोरी , अपराध और दलाली के फलते फूलते कारोबार अपनी और खिंच रहे हैं । बहुत छोटा सा हिस्सा भगत सिंह की विचार धारा से प्रभावित होकर सकारात्मक एजेंडे पर इन्हें लामबंद करने लगा है । ज्ञान विज्ञानं आन्दोलन ने भी अपनी जगह बनाई है ।
       प्रजातंत्र में विकास  का लक्ष्य सबको समान  सुविधाएँ और अवसर उपलब्ध करवाना होता है । विकास के विभिन्न सोपानों को पर करता हुआ संसार यदि एक हद तक विकसित हो गया है तो निश्चय ही उसका लाभ बिना किसी भेदभाव के पूरी दुनिया की पूरी आबादी को मिलना चाहिए परन्तु आज का यथार्थ ही यह है कि ऐसा  नहीं हुआ । आज के दौर में तीन खिलाड़ी नए उभर कर आये हैं ;पहला डब्ल्यू टी ओ विश्व  व्यापर संगठन ए दूसरा विश्व बैंक व तीसरा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ।  खुली बाजार व्यवस्था के ये हिम्मायती दुनिया के ल
लिए समानता की बात कभी नहीं करते बल्कि संसार में उपलब्ध महान अवसरों को पहचानने और उनका लाभ उठाने की बात करते हैं ।  गड़बड़ यहीं से शुरू होने लगती है । बहुराष्ट्रीय संस्थाओं का बाजार व्यवस्था पर दबदबा कायम है । आज छोटी बड़ी लगभग 67000 बहुराष्ट्रीय संस्थाओं की 1,70,000 शाखाएं विश्व के कोने कोने में फ़ैली हुई हैं । ये संस्थाएं विभिन्न देशों की राजनैतिक , सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों पर भी हस्तक्षेप करने लगी हैं । ध्यान देने योग्य बात है कि इन सबके केन्द्रीय कार्यालय अमेरिका ,पश्चिम यूरोप या जापान में हैं । इनकी अपनी प्राथमिकतायें हैं । बाजार वयवस्था इनका मूल मन्त्र है । हरियाणा को भी इन कंपनियों ने अपने कार्यक्षेत्र के रूप में चुना  है । गुडगाँव एक जीता जागता उदाहरन  है । साइनिंग गुडगाँव तो सबको दिखाई देता है मगर सफरिंग गुडगाँव को देखने को हम तैयार ही नहीं हैं ।
       आज के दौर में बाहर  से महाबली बहुराष्ट्रीय निगम और उनका जगमगाता बाजार और भीतर से सांस्कृतिक फासीवादी ताकतें समाज को अपने अपने तरीकों से विकृत कर रही हैं । इस   बाजारवाद ,कट्टरवाद  की मिलीभगत जग जाहिर है । इनमें से एक ने हमारी लालच ,हमारी सफलताओं की निकृष्ट इच्छाओं को सार्वजनिक कर दिया है और दुसरे ने हमारे मनुष्य होने को और हमारे आत्मिक जीवन को दूषित करते हुए हमें एक हीन मनुष्य में तब्दील कर दिया है । यह ख़राब किया गया मनुष्य जगह जगह दिखाई देता है जिसमें धैर्य और सहिष्णुता बहुत कम है और जिसके भित्तर की उग्रता और आक्रामकता दुसरे को पीछे धकेल कर जल्दी से कुछ झपट लेने ,लूट लेने और कामयाब होकर खिलखिलाने की बेचैनी को बढ़ा  रही हैं ।  इस समय में समाज के गरीब नागरिकों को अनागरिक बनाकर अदृश्य हाशियों की ओर फैंका जा रहा है । उनके लिए नए नए रसातल खुलते जा रहे हैं जबकि समाज का एक छोटा सा मगर ताकतवर हिस्सा मौज मस्ती का परजीवी जीवन बिता रहा है । समाज के इस छोटे से हिस्से के अपने उत्सव मनते रहते हैं जो की एक कॉकटेल पार्टी की संस्कृति अख्तियार करते जा रहे हैं । बाकि हरियाणवी समाज की जर्जरता बढाने के साथ साथ इस तबके के राग रंग बढ़ते हैं क्योंकि संकट से बचे रहने का , मुसीबतों को दूर धकेलने का तात्कालिक उपाय यही है । यह लोग बाजार में उदारतावाद और संस्कृति में संकीर्णतावाद व  पुनरूत्थानवाद  के समर्थक हैं । आजकल प्रचलित हरियाणवी सीडियों में परोसे जा रहे वलगर गीत नाटकों को यही ताकतें बढ़ावा दे रही हैं । असल में हमारा समाज पाखंडों और झूठों पर टिका हुआ अनैतिक समाज है । इसलिए हमें जोर जोर से नैतिकता शब्द का उच्चारण करना जरूरी लगता है । वस्तुत हमारे समाज में लाख की चोरी करने वाला यदि न पकड़ा जाये तो पकडे जाने वाले एक रुपये की चोरी करने वाले की तुलना में महान  बना रह सकता है ।
            बड़ी होशियारी से हमारे मन मस्तिष्क पर बाजारवाद का स्वप्न चढ़ाया जा रहा है । तमाम ठाठ बाठ के सपनों में उलझाकर बेखबरी में हमें जिधर धकेल जा रहा है हम उधर ही धिकते जा रहे हैं । इसीलिए आज यह प्रश्न अति गंभीर हो  उठा है कि  जिस ग्लोबल विलेज की चर्चा की जा रही है वह आम आदमी और खासकर गरीबों के रहने लायक है भी या नहीं ? अब जबकि टेलीविजन और नेट  के माध्यम से  यह बाजार घर घर में प्रवेश कर चुका है तो भारत जैसे कृषि प्रधान देश में भी यह टेलीविजन बगैर परिश्रम किये ऐसो आराम परोसने का कम कर रहा  है अगर यकीं न हो तो जरा उन विज्ञापनों पर ध्यान दें जिसमें अमुक वस्तुओं को खरीदने पर कहीं कर तो कहीं सोना  कहीं टी वी  तो कहीं और कुछ दिलाने का सपना दिखा वस्तुओं का विक्रय बढाया जाता है ।
         चंद मिनटों में करोडपति बन ने की उम्मीद जगाई जाती हैं । कुल मिलाकर किस्सा यह बनता है कि परिश्रम ,कर्तव्य , इमानदारी इत्यादि को घर के कूड़ा दान में फैंको और  खरीदो खरीदो और खरीदो और  मौज  करो ।
        रातों रात अमीरी  के सपने देखता युवा वर्ग इस अंधी दौड़ में तेजी से शामिल होता जा रहा है जिसमें सफलता के लिए कोई भी कीमत जायज हो सकती है । धन प्राप्ति के लिए जायज नाजायज कुछ भी किया जा सकता है । हमें जल्दी से जल्दी वो सारे ऐशो आराम एवम मस्ती चाहिए जो टी वी के द्वारा दिन रात परोसे जा रहे हैं । हमें बहकाया जा रहा है , निकम्मा बनाया जा रहा है । अश्लीलता को मौज मस्ती का पर्याय बता दिनोंदिन हमें अति उप भोग्तावाद की अंधी गली में धकेल जा रहा है जहाँ से बाहर  निकलना बहुत मुश्किल होता  है । अधनंगे वस्त्रों का फैशन शो अब महानगरों से निकल कर कस्बों व् गाँव तक पहुँच रहा है । युवा वर्ग लालायित हो उनकी नक़ल करने की होड़ में दौड़ रहा है ।
             मल्टीनेशनल मालामाल हो रहे हैं , भारतीय कारीगर भुखमरी की और जा रहे हैं । आज आसामी सिल्क, बालूचेरी की कारीगरी , कतकी पोचमपल्ली या बोकई के कारीगरों को मल्टीनेशनल के होड़ में खड़ा कर दिया गया है। अब इस गैर  बराबरी की  होड़ में भारतीय कारीगर चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो  कैसे टिक पायेगा ? इम्पोर्टिड चीजों को प्रचारित कर उन्हें स्टेटस सिम्बल बनाया जा रहा है और भारतीय कशीदाकारी को तबाह किया जा रहा है । भारतीय बेहतर कालीनों को बाल मजदूरी के नाम पर पश्चिमी देश प्रतिबंधित कर रहे हैं ताकि भारतीय वास्तु वहां के बाजार में प्रवेश न कर पाए । मगर उनकी वस्तुएं हमारे बाजार पर छा  जाएँ ।
हमारे भारतीय हुनर के लिए यह मौत का फरमान ही तो है । बाजारवाद की इस होड़ में मल्टीनेसनल के सामने
हमारी कारीगरी ही नहीं भारतीय कम्पनियाँ भी कब तक टिक पाएंगी यह एक अहम् सवाल है। पूरे भारत के सभी दरवाजे उनके लिए खोल दिए गए हैं ।
              अब मैकडोनाल्ड को ही लिया जाये ।  यह महानगरों तक नहीं सिमित रहा । अब तो शहर शहर , गली गली में मैकडोनाल्ड  हमारे बच्चों को बर्गर ,पिज्जा फ्री के उपहार दे कर खाने की आदत डालेगा , रिझाएगा , फँसाएगा ताकि कल को वह पूरी , परांठा , इडली , डोसा भूल जाये और बर्गर ओइज्ज के बगैर रह ही नहीं पाए । आखिर बच्चे ही तो कल का भविष्य हैं जिसने उनको जीता उसी की तूती बोलेगी कल पूरे भारत देश में । पहले जैसे साम्राज्य स्थापित करने के लिए देश विशेष की संस्कृति , कारीगरी , हुनर, व्यवसाय एवं शिक्षा को नष्ट किया जाता था ताकि साम्राज्य की पकड़ देश विशेष पर और मजबूत हो । इसी प्रकार आज बाजार के लिए देश प्रदेश विशेष के हुनर , कारीगरी , व्यवसाय ,शिक्षा एवं संस्कृति पर ही हमला बोल जा रहा है और हमारे मीडिया इस मामले में मल्टीनेसनल की भरपूर सहायता कर रहे हैं । हरियाणा में अब गुनध्धा हुआ आट्टा  , अंकुरित मूंग, चना आदि भी विदेशी कम्पनियाँ लाया करेंगी । कूकीज , चाकलेट व केक हमारे घर की शोभा होंगे । जलेबी और रसगुल्ले अतीत की यादगार होंगे । भारतीय कुटीर ऊद्योग के साथ साथ अन्य कम्पनियाँ भी मल्टीनेसनल के पेट में चली जायेंगी ।
      सवाल यही है कि क्या बिना किसी विचार के इतना अन्याय से भरा असमानताओं पर टिका समाज टिका रह सकता है ? यदि नहीं तो इसके ठीक उल्ट विचार भी अवश्य है जो एक समता पर टिके नयायपूर्ण समाज की परिकल्पना रखता है । उस विचार से नजदीक का सम्बन्ध बनाकर ही इस बेहतर समाज के निर्माण में हम अपना योगदान दे सकते हैं । इसके बनाने के सब साधन इसी दुनिया में इसी हरियाणा में मौजूद हैं । जरूरत है उस नजर को विक्सित  करने की । आज मानवता के वजूद को खतरा है । यह इस विचारधारा का या उस विचारधारा का मसला नहीं है । यह एक देश का सवाल नहीं है यह एक प्रदेश का सवाल नहीं है यह पूरी दुनिया का सवाल है । जिस रस्ते पर दुनिया अब जा रही है इस रस्ते पर मानवता का विनाश निश्चित है । हरियाणा के विकास मॉडल में भी यह साफ़ प्रकट हो रहा है । नव वैश्वीकरण की प्रक्रिया से विनाश ही होगा विकास नहीं । मगर अब दुनिया यह सब समझ रही है । हरियाना वासी भी समझ रहे हैं । मानवता अपनी गर्दन इस वैश्वीकरण की कुल्हाडी के नीचे नहीं रखेगी । मानवता का जिन्दा रहने का जज्बा और मनुष्य के विचार की शक्ति ऐसा होना असंभव कर देगी । हरियाणा में नव जागरण ने अपने पाँव रखे हैं । युवा लड़के लड़कियां , दलित, और महिलाएं इसके अगवा दस्ते होंगे और समाज सुधर का काम अपनी प्रगतिशील दिशा अवश्य पकड़ेगा।
आज के  हरयाणा की चुनौतियां
हरयाणा प्रदेश  ने 1966 में अपना अलग प्रदेश के रूप में सफ़र शुरू किया और आज 2014 तक पहुंचा है ।  इस बीच बहुत परिवर्तन हुए हैं ।  इनका सही सही आकलन ही हमें आगे की सही दिशा दे सकता है । पिछड़ी खेती बाड़ी का दौर था इसके बनने  के वक्त । उसके बाद हरित क्रांति का दौर आया । हरित क्रांति का दौर अपने आप नहीं आ गया । यहाँ के किसान और मजदूर की मेहनत  रंग ले कर आई  जिसने सड़कों का जाल बिछाया , बिजली गावों  गावों  तक पहुंचाई । नहरी पानी की सिचाई का भी विस्तार हुआ । इस सब का सही सही आकलन शायद ही हुआ हो । मगर एक बात जरूर देखि जा सकती है कि इस के आधार पर ही हरित क्रांति दौर आ पाया ।
नए बीज, नए उपकरण , नयी खाद , नए तौर तरीकों को यहाँ के किसान मजदूर ने अंगीकार किया और हरयाणा के एक हिस्से में हरित क्रांति ने क्षेत्र की खेती की पैदावार को बढ़ाया । वहीँ आहिस्ता आहिस्ता इसके दुष्प्रभाव भी सामने आने लगे । जमीन की उपजाऊ शक्ति कम होती जा रही है । कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने अपने कुप्रभाव मनुष्यों , पशुओं व् जमीन के अंदर दिखाए हैं जो चिंतनीय स्तर तक जा पहुंचे हैं ।  हरित क्रांति से एक धनाढय़ वर्ग पैदा हुआ जिसने अपने अपने इलाके में अपनी दबंगता व् स्टेटस का इस्तेमाल करते हुए यहाँ की राजनैतिक , आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में अपना प्रभुत्व जमाया है । इस सब में हमारी पिछड़ी सोच और अंध विश्वासों के चलते एक अधखबडे इंसान का विकास किया है जो कुछ बातों  में प्रगतिशील है और बहुत सी बातों में रूढ़िवादी है । इसके व्यक्तित्व का प्रभाव हर क्षेत्र में देखा जा सकता है चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो चाहे स्वास्थ्य का क्षेत्र हो चाहे खेती बाड़ी का क्षेत्र हो चाहे उद्योग का क्षेत्र हो , चाहे सामाजिक क्षेत्र हो । इस अधखबडे व्यक्तित्व को भरे पूरे मानवीय इंसान में कैसे बदला जाये यह अहम् मुद्दा है जो कि महज राजनैतिक ही नहीं बल्कि सामाजिक है और एक  नवजागरण आंदोलन की शिक्षा के क्षेत्र में जहाँ एक और एजुकेशन हब बनाने के दावे किये जा रहे हैं और नए नए विश्विदालयों का खोलना एक अचीवमैंट  के रूप में पेश किया जा रहा है वहीँ दूसरी और सरकारी स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता कई तरह से प्रभावित हुई है । शिक्षा की प्राइवेट दुकानों में भी शिक्षा की गुणवत्ता का तो प्रश्न ही नहीं बल्कि शिक्षा को व्यापार बना दिया गया है चाहे वह स्कूली शिक्षा हो , चाहे वह उच्च शिक्षा हो , चाहे वह विश्वविदालयों की शिक्षा हो या ट्रेनिंग संस्थाओं की शिक्षा हो , हरेक क्षेत्र में व्यापारीकरण और पैसे के दम पर डिग्रीयों का कारोबार बढ़ा है ।  दलाल संस्कृति ने इस क्षेत्र में दलाल माफियायों की बाढ़ सी लादी है । सेमेस्टर सिस्टम ने भी शिक्षा के स्तर को बढ़ाया तो बिलकुल भी नहीं हाँ घटाया बेशक हो । इंस्टीच्युट खोल दिए गए कई कई सौ करोड़ की इमारतें खड़ी करके मगर उनकी फैकल्टी उनकी कार्य प्रणाली की किसी को कोई चिंता नहीं है । विश्वविदयालयों के उपकुलपतियों की नियुक्तियों में यू जी सी की गाइड लाइन्स की धजियां उड़ाई जाती रही हैं । सबके लिए एक समान स्कूल की अनदेखी की जाती रही है जबकि यह सम्भव है और समय इसकी  मांग करता है ।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्राइवेट सैक्टर की दखलंदाजी बढ़ी है । एम्पैनलमेंट  का कारोबार खूब चल रहा है । सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं जैसे तैसे स्टाफ की कमी ए डाक्टरों की कमी एकहीं कुछ और कमियों के चलते ए घिसट रही हैं । गरीब जन की सेहत के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के माधयम से इलाज के रस्ते बंद होते जा रहे हैं । जितनी भी स्वास्थ्य सेवा की योजनाएं गरीबों के लिए हैं उनमें एक्जीक्यूसन की भारी कमियां हैं और योजना में भी कई कमियां हैं । प्राइवेट नर्सिंग होम के लिए केंद्र में पारित एक्ट भी हरयाणा में लागू नहीं किया है । इसलिए प्राइवेट  नर्सिंग होम्ज की लूट दिनोदिन आमनवीय रूप अख्तियार करते हुए बढ़ती जा रही है । सरकारी हॉस्पिटलज में सी टी स्कैन की महीनों लम्बी तारीखें दी जाती है । मुख्य मंत्री मुफ्ती इलाज योजना सैद्धांतिक तोर पर बहुत ठीक योजना होते हुए भी इसकी एक्जीक्यूसन बहुत ढीली ढाली चल रही है । इसके लिए मॉनिटरिंग कमेटीज का प्रावधान नहीं रखा गया है । खून की कमी सर्वे दो  के मुकाबले सर्वे तीन  में गर्भवती महिलाओं में बढ़ी है । इसी प्रकार मालन्यूट्रिसन भी बच्चों में बढ़ा है । गरीब के लिए मुफ्त इलाज भी महंगा होता जा रहा है ।
सामाजिक न्याय के सवाल तीव्र रूप स सामने आ रहे हैं । महिलाएं न घर में , न कर्म स्थल पर , न गली कूचों में , न बाजारों में सुरक्षित हैं । लॉ एंड ऑर्डर को स्थापित करने का काम काफी कमजोर होता जा रहा है । भ्रष्ट अफसर , भ्रष्ट पुलिस और भ्रष्ट नेता की तिकड़ी का उभार तेजी से हो रहा है । सकारातमक अजेंडा न होने के कारण आज युवा वर्ग का एक हिस्सा नशे फ्री सेक्स और अपराधीकरण की गिरफत में आता जा रहा है । दलित उत्पीड़न के , महिला उत्पीड़न के  केसिज बढे हैं पिछले कुछ वर्षों में । लम्पटपन बढ़ रहा है । असंगठित क्षेत्र का विस्तार होता जा रहा है जिसमें मजदूर की हालत चाहे वह महिला है , पुरुष है , प्रवासी मजदूर है और उसकी जिंदगी बहुत ही मुस्किल हालातों की तरफ धकेली जा रही है । महंगाई का असर इन तबको के इलावा माध्यम वर्ग को भी प्रेषण किये हुए है । एक तरफ शाइनिंग हरयाणा है जिसका गुणगान हर जगह और बहुत से इससे लाभान्वित तबको द्वारा किया जाता है । मगर यह सच है कि यह तबका बहुत छोटा होते हुए भी प्रभावशाली है । दूसरी तरफ सफरिंग हरयाणा हैं जिसका बहुत बार कोई भी व्यक्ति गम्भीरता से जिकर तक नहीं करता । इस तबके को हासिये पर धकेला जा रहा है । इसकी जद  में गरीब किसान , मजदूर , वंचित तबके, महिलाएं , नौजवान लड़के लड़की , प्रवाशी मजदूर , माइग्रेटेड पापुलेशन , असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी खासकर महिला हैं । यानि हरयाणा का बड़ा हिस्सा इसमें शामिल है ।
नैशनल कैपिटल रीजन स्कीम के तहत हरयाणा का ताना बाना काफी बदल रहा है और और भी बदलेगा । फोरलेन , टोल प्लाजा , फलाई ओवर , सेज़ के तहत उपजाऊ जमीनों के अधि गरहण के चलते खेती योग्य जमीन कम से कमतर होती जा रही है । जी डी  पी  में एग्रीकल्चर का योगदान काफी कम हुआ है । नए हरयाणा का सवरूप क्या होगा ?  इस पर कोई चर्चा नहीं है । औद्योगिकीकरण के दिशा क्या होगी ? नौकरी पैदा करने वाली या नौकरी खत्म करने वाली ? वातावरण का क्षरण रोकने के बारे क्या किया जायेगा ? जेंडर फ्रैंडली , ईको फ्रैंडली और सामाजिक न्याय प्रेमी विकास का नक्शा क्या होगा ? ये कुछ मुद्दे हैं जिन पर हरयाणा के प्रबुद्ध नागरिकों को सोच विचार करना चाहिए और फिर एक जनता का चुनाव अजेंडा बना कर सभी राजनैतिक पार्टीयों के सामने पेश करके उनकी इस अजेंडे पर अपनी पोजीसन रखने को  कहा  जाना चाहिए । इस सबके लिए जनता का जनपक्षीय राजनीती के लिए लामबंद होना बहुत जरूरी है ।
रणबीर सिंह दहिया

AAJ KA DAUR AUR HARYANA

आज का हरियाणा-बहस के लिए
रणबीर दहिया
1857 की आजादी की पहली जंग में हरियाणा वासियों की काफी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी रही। मगर उसके बाद विभाजन कारी ताकतों का सहारा लेकर अंग्रेजो ने हरियाणा की एकता को काफी चोट पहुंचाई। बाद में हरियाणा में यह कहावत चली कि ‘साहब की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी’ नहीं होना चाहिये ा नवजागरण के दौर में हरियाणा में आर्य समाज भी काफी लेट आया। महिला षिक्षा पर बहुत जोर लगाया आर्य समाज ने मगर सहषिक्षा का डटकर विरोध किया। एक और कहावत का चलन भी हुआ...म्हारे हरियाणा की बताई सै या विद्या की कमजोरी, बांडी बैल की के पार बसावै जब जुआ डालदे धोरी।
        ंआज का साम्राज्यवाद पहले के किसी भी समय के मुकाबले ज्यादा संगठित,ज्यादा हथियारबन्द और ज्यादा विध्वंसक है। नवस्वतंत्र या विकासषील देषों की खेतियों, देसी उद्योग धन्धों और सामाजिक संस्कृतियों को तबाह करने पर लगा है।दुनिया भर में साम्राज्यवादी वैष्वीकरण की यही विध्वंसलीला हम देख रहे हैं। नव सांमन्तवाद और नवउदारीकरण का दौर हरियाणा में पूरे यौवन पर नजर आता है। जहां एक तरफ हरियाणा ने आर्थिक तौर पर किसानों और कामगरों तथा मध्यमवर्ग  के लोगांेे के अथक प्रयासों से पूरे भारत में  दसूरा स्थान ग्रहण किया है वहीं दूसरी तरफ हरियाणा के ग्रामीण समाज का संकट षहरों के मुकाबले ज्यादा तेजी से गहराता जा रहा है। सामाजिक सूचकांक चिन्ताजनक स्थिति की तरफ इषारा करते नजर आते हैं।भूखी, नंगी, अपमानित और बदहाल आाबादी के बीच छदम सम्पन्नता के जगमग द्वीपों जैसे गुड़गांव पर जष्न मनाते इन नये दौलतमंदों का सफरिंग हरियाणा से कोई वासता नजर नहीं आता।  कुछ भ्रश्ट राजनितिज्ञों, भ्रश्ट पुलिस अफसरों, भ्रश्ट नौकरषाहों तथा भ्रश्ट कानून के रखवालों , गुण्डों के टोलों के पचगड्डे ने काले धन और काली संस्कृति को हरियाणा के प्रत्येक स्तर पर बढ़ाया है। फिलहाल देष के और हरियाणा के दौलतमंदों का बड़ा हिस्सा साम्राज्यवादी वैष्वीकरण का पैरोकार बना हुआ नजर आता है। वह सुख भ्रान्ति का षिकार है या समर्पण कर चुका है। वह पूरे हरियाणा या पूरे देष के बारे में नहीं महज अपने बारे में सोचता है। फसलों की, जमीन के बढ़ते बांझपन के कारण, पैदावार कम से कमतर होती जा रही है। तालाबों पर नाजायज कब्जे कर लिये गये जिनके चलते उनकी संख्या कम हो गई और जो बचे उनके आकार छोटे होते गये। अन्धाधुन्ध कैमिकल खादों और कीट नाषकों के इस्तेमाल
के कारण जमीन के नीचे का पानी प्रदूशित होता जा रहा है। गांव की षामलात जमीनों पर दबंग लोगांे  ने कब्जे जमा लिए हैं। सरकारी पानी की डिगियों की बुरी हालत है। पीने के पानी का व्यवसायिकरण बहुत से गावों में टयूबवैलों के माध्यम से हो गया। मगर गलियों का बुरा हाल है। यदि पक्की भी हो गई हैं तो भी पानी की निकासी का कोई भी उचित प्रबन्ध न होने के कारण जगह जगह पानी के चब्बचे बन गये हैं जो बहुत सी बीमारियों के जनक हैं। बिजली ज्यादातर समय गुल रहती है। बैल आमतौर से कहीं कहीं बचे हैं। भैंसों के सुआ लगा कर दूध निकालने की कुरीति बढ़ती जा रही है। सब्जियों में भी सुआ लगाने का चलन बहुत बढ़ता जा रहा है। खेती की जोत का आकार कम से कमतर हुआ है और दो एकड़ या इससे कम जोत के किसानों की संख्या किसी भी गांव में कुल किसानों की संख्या में सबसे जयादा है। गांव के रुरल आरटीजन गांव से उजड़कर षहरों कस्बों में जाने को मजबूर हुए हैं।  गांव के सरकारी स्कूलों का माहौल काफी खराब हो रहा है। इन स्कूलों में खाते पीते व दबंग परिवारों के बच्चे नहीं जाते। इसलिए उनकी देखभाल भी नहीं बची है। दलित और बहुत गरीब किसान परिवार के बच्चे ही इन स्कूलों में जाते हैं। उपर से सैमैस्टर सिस्टम और बहुत दूसरी नीतिगत खामियों के चलते माहौल और खराब हो रहा है।इस सबके चलते प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है। उंची फीसें इन स्कूलों का फैषन बन गया है। बीएड के कालेजों की एक बार बाढ़ आईए फिर नर्सिंग कालेजो की और फिर डैंटल कालेजों की। ज्यादातर प्राईवेट सैक्टर में हैं। बी एड कालेजों में से ज्यादातर बन्द होने के कगार पर हैं। प्राईवेट सैक्टर में दुकानदारी बढ़ी है और षिक्षा की गुणवता काफी कम हुई है। इन की समीक्षा अपने आप में एक लेख की मांग करता है। स्वास्थ्य के क्षे़त्र में 90 के बाद प्राईवेट सैक्टर 57 प्रतिषत हो गया है। गांव के सबसैंटर में,प्राईमरी स्वास्थ्य केन्द्र में या सामुदायिक केन्द्र में क्या हो रहा है यह गांव के दबंगों की चिन्ता का मसला कतई नहीं है। बल्कि इनमें काम करने वाल ेकुछ भ्रश्ट कर्मचारियो ं के साथ सांठगांठ करके ठीक काम करने वाले डाक्टरों व दूसरे कर्मचारियों को परेषान किया जाता है। गांव में सरकार द्वारा बनाई गई डिगियों का इस्तेमाल न के बराबर हो रहा है जिसके चलते प्राइवेट ट्यूबवैलांे से पानी खरीदना पड़ रहा है । अब भी पीने के पानी के कुंए अलग अलग जातियों के अलग अलग हैं। बहुत कम गांव हैं जहां सर्वजातीय कंुए हैं। खेती में ट्रैक्टर का इस्तेमाल बहुत बढ़ गया है। आज ट्रैक्टर से एक एकड़ की बुआही के रेट 350-400रुपये हो गये हैं। ट्यूबवैल से एक एकड़ की सिंचाई के रेट 80 रुपये घण्टा हो गये हैं। थ्रैशर से गिहूं निकालने के रेट1500रुपये प्रति एकड़ हो गये हैं। हारवैस्टर कारबाईन से गिहूं कटवाने के 1400 रुपये प्रति एकड़ और निकलवाने के रैपर के रेट 1200 प्रति एकड़ हो गये हैं। बड़ी बड़ी बहुराश्ट्रीय कम्पनियों का सामान हरेक गांव की छोटी से छोटी दुकानों पर आम मिल जाता है।
8-10 दुकानों से लेकर 40-50 दुकानों का बाजार छोटे बड़े सभी गांव में मौजूद है। छोटी छोटी किरयाने की दुकानों पर दारु के प्लास्टिक के पाउच आसानी से उपलब्ध हैं। पहले का डंगवारा जिसमें एक एक बैल वाले दो किसान मिलकर खेती कर लेते थे बिल्कुल खत्म हो गया है। पहले दो एकड़ वाला 10 एकड़ वाल ेकी जमीन बाधे पर लेकर बोता रहा है और काम चलाता रहा है। साथ एक दो भैंस भी रखता रहा है जिसका दूध बेचकर रोजाना के खर्चे पूरे करता है। पहले कहावत थी‘ ‘दूध बेच दिया इसा पूत बेच दिया’। आज दूध भी बेचना पड़ता है और बेटा भी बेचना पड़ता है। मगर आज 10 किल्ले वाला भी दो किल्ले वाले की जमीन बाधे पर लेकर बोता है। खेती में मषीनीकरण तेजी से हुआ और हरित क्रांन्ति का दौर षुरु हुआ। हरित क्रान्ति ने बहुत नुकसान किये हैं जो अपने आप में एक बहस और रिसर्च का विशय है। मगर किसानी के एक हिस्से को लाभ भी बहुत हुआ है। एक नया नव धनाढ़य वर्ग पैदा हुआ है हरियाणा में जिसका हरियाणा के हरेक पक्ष पर पूरा कब्जा है। इन्ही के दायरों में अलग अलग जातों के नेताओं का उभरना समझ में आता हैं । मसलन चौधरी देवीलाल जाटों के नेता, चौधरी चान्द राम दलितों के नेता- उनमें भी एक हिस्से के-। पंडित भगवतदयाल षर्मा पंडितों नेता ,राव बिरेन्द्र सिंह अहीरों के नेता आदि। इस धनाढ़य वर्ग का एक हिस्सा आढ़तियों में षामिल हो गया है। यह कम जमीन वाले किसान की कई तरह से खाल उतार रहा है। पुराने दौर के परिवारों में से डी एल एफ ग्रूप और जिन्दल ग्रूपों ने राश्टीय स्तर पर पहचान बनाई है। इसी धनाढ़य वर्ग में से कुछ भठ्ठों के मालिक हो गये हैं ,दारु के ठेकों के ठेकेदार हैं, प्राप्रटी डीलर बन गये हैं। इसी खाते पीते वर्गों के बच्चों में विदेषों में जा कर पढ़ने का या वहां जाकर नौकरी करने का रुझान पंजाब की तर्ज पर बढ़ता नजर आता है । नेताओं के बस्ता ठाउ भी इन्ही में से हैं। हरेक विभाग के दलाल भी इन्हीं लोगों में से पैदा हुए हैं। इन ज्यादातरों के और भी कई तरह के बिजिनैष हैं। इनका जीवन ए.सी. जीवन में  बदल गया है चाहे षहर में रहते हों या गांव में। हर तरह के दांव पेच लगाने में यह तबका बहुत माहिर हो गया है। जिन लोगांें की हाल में  जमीने बिकी हैं उन्होंने पैसा इन्वैस्ट करने का मन बनाया मगर पैसा लगाने की उपयुक्त जगह न पाकर वापिस गांव में आकर मकान का चेहरा ठीक ठ्याक कर लिया और एक 8-10 लाख की गाड्डी कार ले ली। एक मंहगा सा मोबाइल ले लिया। जिनके पास कई एकड़ जमीन थी और संयुक्त परिवार था उन्होंने सिरसा की तरफ या कांषीपुर में या मध्यप्रदेष में खेती की जमीनों में यह पैसा लगा दिया। कुछ लोगों ने 200-300 गज का प्लॉट षहर में लेकर सारा पैसा वहां मकान बनाने पर खर्च कर दिया। आगे क्या होगा उनका? इन बिकी जमीनों पर जीवन यापन करने वाले खेत मजदूर और बाकी के तबकों का जीना मुहाल हो गया है। यह दबंगों और मौकापरस्तों के समूह हरेक कौम में पैदा हुए हैं। इनका
वजूद जातीय , गोत्रों और ठोले पाने की राजनिति पर ही टिका है। ज्यादातर गांव में सड़कें पहुंच गई हैं बेषक खस्ता हालत में हों बहुत सी सड़कें। किसी भी गांव में चार पहियों के वाहनों की संख्या भी बढ़ी है। बहुराश्टीय कम्पनियों के प्रोडक्ट ज्यादातर गावों में मिलने लगे हैं। टी वी अखबार का चलन भी गांव के स्तर पर बढ़ा है। सी.डी. प्लेयर तो बहुत सें घरों में मिल जाएगा। मोबाइल फोन गरीब तबकों के भी खासा हिस्से के पास मिल जाएगा। संप्रेषन के साघन के रुप में प्रोग्रेसिव ताकतों को इसके बारे में सोचना होगा। माइग्रेटिड लेबर की संख्या ग्रामीण क्षेत्र में भी बढ़ रही है। किसानी के एक हिस्से में अहदीपन बढ़ रहा है। गांव की चौपालों की जर्जर हालत हमारे सामूहिक जीवन के पतन की तरफ इषारा करती है। नषा, दारु और बढ़ता संगठित सैक्ष माफिया सब मिलकर गांव की संस्कृति को कुसंस्कृति के अन्धेरों में धकेलने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।पुरुश प्रघान परिवार व्यवस्था में छांटकर महिला भ्रूण हत्या के चलते ज्यादातर गांव में लड़कियों की संख्या काफी कम हो रही है। बाहर से खरीद कर लाई गई बंहुओं की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। पुत्ऱ लालसा बहुत प्रबल दिखाई देती है यहां के माईडं सैट में। हर 10 किलो मीटर पर ‘षर्तिया छोरा’ के लिए गर्भवती महिला को दवाई देने वाले मिल जाएंगे। उंची से उंची पढ़ाई भी हमारे दकियानूसी विचारों में सेंध लगाने में असफल रही लगती है। जैंडर बलाइन्ड उच्च षिक्षा ने महिला विरोधी सामन्ती सोच को ही पाला पोसा लगता है। हमारे आपस के झगड़े बढ़े हैं। इस सबके चलते महिलाओं पर घरेलू हिंसा में बढ़ोतरी हुई  है। महिलाओं पर बलात्कार के केस बढ़े हैं। महिलाओं के साथ छेड़छाड़ आदि के केस बढ़े हैं जिनमें से ज्यादातर केस दर्ज ही नहीं हो पाते। कचहरियों में तलाक के केसिज की संख्या बेतहासा बढ़ रही है। सल्फास की गोली खाकर हर रोज 1 या 2 नौजवान मैडीकल पंहुच जाते हैं। 30-40 ट्रक ड्राईवर हरेक गांव में मिल जाएंगे । एडस की बीमारी के इनमें से ज्यादातर वाहक हैं। सुबह से लेकर षाम तक ताष खेलने वाली मंडलियों की संख्या बढ़ती जा रही है। युवा लड़कियों का यौन षोशण संगठित ढ़ंग से किया जा रहा है तथा सैक्ष रैकेटियर गांव गांव तक फैल गये हैं। इसके अलावा युवा लड़कियों में षादी से पहले गर्भ की तादाद बढ़ रही है। मौखिक तौर पर कुछ डाक्टरों का कहना है कि इस प्रकार के केसिज में 50 प्रतिषत से ज्यादा परिवार के सदस्य, रिस्तेदार, पड़ौसी ही होते है जो यौन षोशण करते हैं । महिला न घर के अन्दर ्रसुरक्षित रही है न घर से बाहर। युवा लड़कियों का गांव की गांव में यौण उत्पीड़न हरियाणवी ग्रामीण समाज की भयंकर तसवीर पेष करता है। गांव के युवाओं -लड़के लड़कियों - को अपनी स्थगित ऊर्जा का सकारात्मक इस्तेमाल करने का कोई अवसर हमारी दिनचर्या में नहीं है। इस सब के बावजूद बहुत सी लड़कियों व महिलाओं ने खेलों में हरियाणा का नाम रोषन किया है। केबल टी. वी. ज्यादातर बड़े गांव में पहुंच गया है। टी वी में आ रही बहुत
सी अच्छी बातों के साथ साथ देर रात बहुत सी जगह बल्यू फिल्में दिखाई जाती हैं। युवाओं में आत्म हत्या के केसिज बढ़ रहे हैं। महिलाओं के दुख सुख की अभिव्यक्ति महिला लोक गीतों में साफ झलकती दिखाई देती है। हमारे सांगों में पितृसतात्मक मूल्यों का बोलबाला दिखाई देता है। इसके साथ साथ महिला विरोधी और दलित विरोधी रुझान भी साफ झलकते हैं। मूल्यों के संदर्भ में हमारा साहित्य दबंग के हित की संस्कृति का ही निर्वाह करता नजर आता है खासकर  ज्यादातर सांगों के कथानक में। पूरे हरियाणवी चुटकलों के भण्डार में एक सेकुलर चुटकुला ढूंढ़ना बहुत मुष्किल काम है। फिल्में बनी मगर जयादा देर नहीं टिक पाई। कथानकों की कमजोरी, कमजोर कलात्मक पक्ष और सरकारों का कम प्रोत्साहन आदि इसके कई मुख्य कारनों में से रहे। रागनी कम्पीटीषन अपनी मौत मरे। वहां भी जातीय संकीणताएं देखी जा सकती हैं। बाजे भगत बेहतर सांगी होते हुए भी कहीं नजर नहीं आते क्योंकि जात से वे नाई थे। विडियो सी.डी. ने जोर पकड़ा मगर वह भी धाराषाही हो गई। कारण साफ है कि सम सामयिक विशय होते हुए भी हरियाणा के यथार्थ का सही सही कलात्मक चित्रण इनमें नहीं हो पाया। गहरे संकट के दौर में हमारी धार्मिक आस्थाओं को साम्प्रदायिकता के उन्माद में बदलकर हमें जात, गौत्र व धर्म के उपर लड़वा कर हमारी इन्सानियत के जज्बे को,हमारे मानवीय मूल्यों को विकृत किया जा रहा है। गउ हत्या या गौरक्षा के नाम पर हमारी भावनाओं से खिलवाड़ किया जाता है।‘दुलिना हत्या काण्ड’ और ‘अलेवा काण्ड’ गउ के नाम पर फैलाए जा रहे जहर का ही परिणाम हैं। इसी धार्मिक उन्माद और आर्थिक संकट के चलते हर तीसरे मील पर मन्दिर दिखाई देने लगे हैं। राधास्वामी और दूसरे सैक्टों का उभार भी देखने को मिलता है। सांस्कृतिक स्तर पर हरियाणा के चार पांच क्षेत्र हैं और इनकी अपनी विशिष्टताएं हैं। हरेक गांव में भी अलग अलग वर्गों व जातियों के लोग रहते हैं। जातीय भेदभाव गहरी जडें़ जमाए हैं।आर्थिक असमानताएं बढ़ रही हैं।
  पिछले सालों के बदलाव के साथ आई छद्म सम्पन्नता, सुख भ्रान्ति और नए नए सम्पन्न तबकों-परजीवियों, मुफतखारों,और कमीष्नखोरों-की गुलछर्रे उडाने की अय्यास संस्कृति तेजी से उभरी है। नई नई कारें, कैसिनो, पोर्नोग्राफी,नंगी फिल्में,घटिया कैसटें ,हरियाणवी पॉप,साइबर सैक्स षाप्स, नषा, फुकरापंथी, कथा वाचकों के प्रवचन, झूठी हैसियत का दिखावा इन तबकों की सांस्कृतिक दरिद्रता को दूर करने के लिये अपनी जगह बनाते जा रहे हैं। जातिवादी व साम्प्रदायिक विद्वेष,युद्धोन्माद और स्त्री द्रोह के लतीफे चुटकलों से भरे हास्य कवि सम्मेलन बड़े उभार पर हैं। इन नवधनिकों की आध्यात्मिक कंगाली नए नए बाबाओं और रंग बिरंगे कथावाचकों को खींच लाई है।
विडम्बना है कि तबाह हो रहे तबके भी संस्कृति के इस उभोक्तावाद से छदृम ताकत पा रहे हैं।
      एक गांव में ही दलितों का एक अलग ही गांव या बस्ती है। दबंग तबकों में दलित विरोध बहुत तरह से देखा जा सकता है। डिस्क्रीमिनेषन प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से मौजूद है। दलितों में अलग अलग हिस्सों में भी आपस में बहुत दूरयिां देखने को मिलती हैं। यहां के नेटिव बनिया और ब्राहम्ण की कल्चर अलग है ओर दबंग जातियों की अपनी ढ़पली अपना राग है। षादी ब्याह के मामलों में बनिया और पंडित कोमों में सहनषीलता है और लचीलापन है तभी इन कोमों में ब्याह षादी के मामलों में फतवे एक बार भी षायद जारी नहीं हुए हैं। किसानों में भी दबंग लोगांे की बातें ही चलती हैं। सामुहिकता और भाईचारे की दुहाई देकर जितनी पंचायतें हुई और जितने भी झगड़ों में इन्होंने समझौते करवाये उनमें 100 में से 99 फैंसले दबंग के हक में और पीड़ित के खिलाफ किये गये। बलात्कारी के केस के समझौतों में बलात्कारी को ही राहत दिलवाई गई। कत्ल के केस में जेल में बन्द कातिल को ही राहत दिलवाई गई ।ं तरीके अलग अलग हो सकते हैं मगर नतीजे हमेषा पीड़ित के खिलाफ ही हुए। कमजोर के हक में न्यायकारी फैंसला षायद ही कोई हों। इसी प्रकार ब्याह षादी के मामलों में गांव की गांव और गोत की गोत का केस एक मनोज बबली का ही केस है। बाकी सारे के सारे केस दो गौतों के बीच के हैं जिनमें ज्यादातर में बच्चों के माता पिताओं को बहन भाई बन कर रहने के फतवे जारी किए गये हैं और प्रेमियों के कत्ल किये गये हैं। या दूसरी तरह के उत्पीड़न किये गये हैं। गोत के गोत में षादी के मामले में राई का पहाड़ बनाया जा रहा है। असली मुद्दों से युवाओं का ध्यान बांटा जा रहा है। भावनात्मक स्तर पर लोगांे की भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा है। किसानी के संकट से किसानों को दिषा भ्रमित किया जा रहा है। गांव के युवा लड़के और लड़की जिन्दगी के चौराहे पर खड़े हैं।
   एक तरफ नवसामन्तवादी और नवउदारवादी अपसंस्कृति का बाजार उन्हें अपनी ओर खींच रहा है। दूसरी ओर बेरोजगारी युवाओं के सिर पर चढ़ कर इनके जीवन को नरक बनाए है। नषा , दारु, सैक्स, पोर्नोग्राफी उसको दिषाभ्रमित करने के कारगर औजारों के रुप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। साथ ही समाज में व्याप्त पिछड़े विचारों और रुढ़ियों को भी इस्तेमाल करके इनका भावनात्मक षोशण किया जा रहा है। हरियाणा में खाते पीते मध्यमवर्ग और अन्य साधन सम्पन्न तबकों का साम्राज्यवादी वैष्वीकरण को समर्थन किसी हद तक सरलता से समझ में आ सकता
है जिनके हित इस बात में हैं कि स्त्रियां,दलित,अल्पसंख्यक और करोड़ों निर्धन जनता नागरिक समाज के निर्माण के संघर्श से अलग रहें।  लेकिन साधारण जनता अगर फासीवादी मुहिम में षरीक कर ली जाती है तो वह अपनी भयानक असहायता, अकेलेपन, हताषा,अन्णसंषय,अवरुद्ध चेतना , पूर्व ग्रहों उदभ्रांत कामनाओं के कारण षरीक होती है। फासीवाद के कीड़े जनवाद से वंचित ओर उसके व्यवहार से अपरिचित, रिक्त, लम्पट और घोर अमानुशिक जीवन स्थितियों में रहने वाले जनसमूहों के बीच आसानी सेपनपते हैं। यह भूलना नहीं चाहिये कि हिन्दुस्तान की आधी से अधिक आबादी ने जितना जनतन्त्र को बरता है उससे कहीं ज्यादा फासीवादी परिस्थ्तिियों में रहने का अभ्यास किया है। इसमें कोई षक नहीं कि हरियाणा में जहां आज अनैतिक ताकत की पूजा की संस्कृति का गलबा है वहीं अच्छी बात यह है कि षहीद भगत सिंह से प्रेरणा लेते हुए युवा लड़के लड़कियों का एक हिस्सा इस अपसंस्कृति के खिलाफ एक संुसंस्कृत सभ्य समाज बनाने के काम में सकारात्मक सोच के साथ जुटा हुआ है। साधुवाद इन युवा लड़के लड़कियों को। इतने बडे़ संकट को कोई जात अपनी अपनी जात के स्तर पर हल करने की सोचे तो मुझे संभव नहीं लगता । कैसे सामना किया जाए इसके लिए विभिन्न विचारकों के विचार आमन्त्रित हैं।
कुछ विचारणीय बिन्दू इस प्रकार हो सकते हैं-
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