आज का हरियाणा-बहस के लिए
रणबीर दहिया
1857 की आजादी की पहली जंग में हरियाणा वासियों की काफी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी रही। मगर उसके बाद विभाजन कारी ताकतों का सहारा लेकर अंग्रेजो ने हरियाणा की एकता को काफी चोट पहुंचाई। बाद में हरियाणा में यह कहावत चली कि ‘साहब की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी’ नहीं होना चाहिये ा नवजागरण के दौर में हरियाणा में आर्य समाज भी काफी लेट आया। महिला षिक्षा पर बहुत जोर लगाया आर्य समाज ने मगर सहषिक्षा का डटकर विरोध किया। एक और कहावत का चलन भी हुआ...म्हारे हरियाणा की बताई सै या विद्या की कमजोरी, बांडी बैल की के पार बसावै जब जुआ डालदे धोरी।
ंआज का साम्राज्यवाद पहले के किसी भी समय के मुकाबले ज्यादा संगठित,ज्यादा हथियारबन्द और ज्यादा विध्वंसक है। नवस्वतंत्र या विकासषील देषों की खेतियों, देसी उद्योग धन्धों और सामाजिक संस्कृतियों को तबाह करने पर लगा है।दुनिया भर में साम्राज्यवादी वैष्वीकरण की यही विध्वंसलीला हम देख रहे हैं। नव सांमन्तवाद और नवउदारीकरण का दौर हरियाणा में पूरे यौवन पर नजर आता है। जहां एक तरफ हरियाणा ने आर्थिक तौर पर किसानों और कामगरों तथा मध्यमवर्ग के लोगांेे के अथक प्रयासों से पूरे भारत में दसूरा स्थान ग्रहण किया है वहीं दूसरी तरफ हरियाणा के ग्रामीण समाज का संकट षहरों के मुकाबले ज्यादा तेजी से गहराता जा रहा है। सामाजिक सूचकांक चिन्ताजनक स्थिति की तरफ इषारा करते नजर आते हैं।भूखी, नंगी, अपमानित और बदहाल आाबादी के बीच छदम सम्पन्नता के जगमग द्वीपों जैसे गुड़गांव पर जष्न मनाते इन नये दौलतमंदों का सफरिंग हरियाणा से कोई वासता नजर नहीं आता। कुछ भ्रश्ट राजनितिज्ञों, भ्रश्ट पुलिस अफसरों, भ्रश्ट नौकरषाहों तथा भ्रश्ट कानून के रखवालों , गुण्डों के टोलों के पचगड्डे ने काले धन और काली संस्कृति को हरियाणा के प्रत्येक स्तर पर बढ़ाया है। फिलहाल देष के और हरियाणा के दौलतमंदों का बड़ा हिस्सा साम्राज्यवादी वैष्वीकरण का पैरोकार बना हुआ नजर आता है। वह सुख भ्रान्ति का षिकार है या समर्पण कर चुका है। वह पूरे हरियाणा या पूरे देष के बारे में नहीं महज अपने बारे में सोचता है। फसलों की, जमीन के बढ़ते बांझपन के कारण, पैदावार कम से कमतर होती जा रही है। तालाबों पर नाजायज कब्जे कर लिये गये जिनके चलते उनकी संख्या कम हो गई और जो बचे उनके आकार छोटे होते गये। अन्धाधुन्ध कैमिकल खादों और कीट नाषकों के इस्तेमाल
के कारण जमीन के नीचे का पानी प्रदूशित होता जा रहा है। गांव की षामलात जमीनों पर दबंग लोगांे ने कब्जे जमा लिए हैं। सरकारी पानी की डिगियों की बुरी हालत है। पीने के पानी का व्यवसायिकरण बहुत से गावों में टयूबवैलों के माध्यम से हो गया। मगर गलियों का बुरा हाल है। यदि पक्की भी हो गई हैं तो भी पानी की निकासी का कोई भी उचित प्रबन्ध न होने के कारण जगह जगह पानी के चब्बचे बन गये हैं जो बहुत सी बीमारियों के जनक हैं। बिजली ज्यादातर समय गुल रहती है। बैल आमतौर से कहीं कहीं बचे हैं। भैंसों के सुआ लगा कर दूध निकालने की कुरीति बढ़ती जा रही है। सब्जियों में भी सुआ लगाने का चलन बहुत बढ़ता जा रहा है। खेती की जोत का आकार कम से कमतर हुआ है और दो एकड़ या इससे कम जोत के किसानों की संख्या किसी भी गांव में कुल किसानों की संख्या में सबसे जयादा है। गांव के रुरल आरटीजन गांव से उजड़कर षहरों कस्बों में जाने को मजबूर हुए हैं। गांव के सरकारी स्कूलों का माहौल काफी खराब हो रहा है। इन स्कूलों में खाते पीते व दबंग परिवारों के बच्चे नहीं जाते। इसलिए उनकी देखभाल भी नहीं बची है। दलित और बहुत गरीब किसान परिवार के बच्चे ही इन स्कूलों में जाते हैं। उपर से सैमैस्टर सिस्टम और बहुत दूसरी नीतिगत खामियों के चलते माहौल और खराब हो रहा है।इस सबके चलते प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है। उंची फीसें इन स्कूलों का फैषन बन गया है। बीएड के कालेजों की एक बार बाढ़ आईए फिर नर्सिंग कालेजो की और फिर डैंटल कालेजों की। ज्यादातर प्राईवेट सैक्टर में हैं। बी एड कालेजों में से ज्यादातर बन्द होने के कगार पर हैं। प्राईवेट सैक्टर में दुकानदारी बढ़ी है और षिक्षा की गुणवता काफी कम हुई है। इन की समीक्षा अपने आप में एक लेख की मांग करता है। स्वास्थ्य के क्षे़त्र में 90 के बाद प्राईवेट सैक्टर 57 प्रतिषत हो गया है। गांव के सबसैंटर में,प्राईमरी स्वास्थ्य केन्द्र में या सामुदायिक केन्द्र में क्या हो रहा है यह गांव के दबंगों की चिन्ता का मसला कतई नहीं है। बल्कि इनमें काम करने वाल ेकुछ भ्रश्ट कर्मचारियो ं के साथ सांठगांठ करके ठीक काम करने वाले डाक्टरों व दूसरे कर्मचारियों को परेषान किया जाता है। गांव में सरकार द्वारा बनाई गई डिगियों का इस्तेमाल न के बराबर हो रहा है जिसके चलते प्राइवेट ट्यूबवैलांे से पानी खरीदना पड़ रहा है । अब भी पीने के पानी के कुंए अलग अलग जातियों के अलग अलग हैं। बहुत कम गांव हैं जहां सर्वजातीय कंुए हैं। खेती में ट्रैक्टर का इस्तेमाल बहुत बढ़ गया है। आज ट्रैक्टर से एक एकड़ की बुआही के रेट 350-400रुपये हो गये हैं। ट्यूबवैल से एक एकड़ की सिंचाई के रेट 80 रुपये घण्टा हो गये हैं। थ्रैशर से गिहूं निकालने के रेट1500रुपये प्रति एकड़ हो गये हैं। हारवैस्टर कारबाईन से गिहूं कटवाने के 1400 रुपये प्रति एकड़ और निकलवाने के रैपर के रेट 1200 प्रति एकड़ हो गये हैं। बड़ी बड़ी बहुराश्ट्रीय कम्पनियों का सामान हरेक गांव की छोटी से छोटी दुकानों पर आम मिल जाता है।
8-10 दुकानों से लेकर 40-50 दुकानों का बाजार छोटे बड़े सभी गांव में मौजूद है। छोटी छोटी किरयाने की दुकानों पर दारु के प्लास्टिक के पाउच आसानी से उपलब्ध हैं। पहले का डंगवारा जिसमें एक एक बैल वाले दो किसान मिलकर खेती कर लेते थे बिल्कुल खत्म हो गया है। पहले दो एकड़ वाला 10 एकड़ वाल ेकी जमीन बाधे पर लेकर बोता रहा है और काम चलाता रहा है। साथ एक दो भैंस भी रखता रहा है जिसका दूध बेचकर रोजाना के खर्चे पूरे करता है। पहले कहावत थी‘ ‘दूध बेच दिया इसा पूत बेच दिया’। आज दूध भी बेचना पड़ता है और बेटा भी बेचना पड़ता है। मगर आज 10 किल्ले वाला भी दो किल्ले वाले की जमीन बाधे पर लेकर बोता है। खेती में मषीनीकरण तेजी से हुआ और हरित क्रांन्ति का दौर षुरु हुआ। हरित क्रान्ति ने बहुत नुकसान किये हैं जो अपने आप में एक बहस और रिसर्च का विशय है। मगर किसानी के एक हिस्से को लाभ भी बहुत हुआ है। एक नया नव धनाढ़य वर्ग पैदा हुआ है हरियाणा में जिसका हरियाणा के हरेक पक्ष पर पूरा कब्जा है। इन्ही के दायरों में अलग अलग जातों के नेताओं का उभरना समझ में आता हैं । मसलन चौधरी देवीलाल जाटों के नेता, चौधरी चान्द राम दलितों के नेता- उनमें भी एक हिस्से के-। पंडित भगवतदयाल षर्मा पंडितों नेता ,राव बिरेन्द्र सिंह अहीरों के नेता आदि। इस धनाढ़य वर्ग का एक हिस्सा आढ़तियों में षामिल हो गया है। यह कम जमीन वाले किसान की कई तरह से खाल उतार रहा है। पुराने दौर के परिवारों में से डी एल एफ ग्रूप और जिन्दल ग्रूपों ने राश्टीय स्तर पर पहचान बनाई है। इसी धनाढ़य वर्ग में से कुछ भठ्ठों के मालिक हो गये हैं ,दारु के ठेकों के ठेकेदार हैं, प्राप्रटी डीलर बन गये हैं। इसी खाते पीते वर्गों के बच्चों में विदेषों में जा कर पढ़ने का या वहां जाकर नौकरी करने का रुझान पंजाब की तर्ज पर बढ़ता नजर आता है । नेताओं के बस्ता ठाउ भी इन्ही में से हैं। हरेक विभाग के दलाल भी इन्हीं लोगों में से पैदा हुए हैं। इन ज्यादातरों के और भी कई तरह के बिजिनैष हैं। इनका जीवन ए.सी. जीवन में बदल गया है चाहे षहर में रहते हों या गांव में। हर तरह के दांव पेच लगाने में यह तबका बहुत माहिर हो गया है। जिन लोगांें की हाल में जमीने बिकी हैं उन्होंने पैसा इन्वैस्ट करने का मन बनाया मगर पैसा लगाने की उपयुक्त जगह न पाकर वापिस गांव में आकर मकान का चेहरा ठीक ठ्याक कर लिया और एक 8-10 लाख की गाड्डी कार ले ली। एक मंहगा सा मोबाइल ले लिया। जिनके पास कई एकड़ जमीन थी और संयुक्त परिवार था उन्होंने सिरसा की तरफ या कांषीपुर में या मध्यप्रदेष में खेती की जमीनों में यह पैसा लगा दिया। कुछ लोगों ने 200-300 गज का प्लॉट षहर में लेकर सारा पैसा वहां मकान बनाने पर खर्च कर दिया। आगे क्या होगा उनका? इन बिकी जमीनों पर जीवन यापन करने वाले खेत मजदूर और बाकी के तबकों का जीना मुहाल हो गया है। यह दबंगों और मौकापरस्तों के समूह हरेक कौम में पैदा हुए हैं। इनका
वजूद जातीय , गोत्रों और ठोले पाने की राजनिति पर ही टिका है। ज्यादातर गांव में सड़कें पहुंच गई हैं बेषक खस्ता हालत में हों बहुत सी सड़कें। किसी भी गांव में चार पहियों के वाहनों की संख्या भी बढ़ी है। बहुराश्टीय कम्पनियों के प्रोडक्ट ज्यादातर गावों में मिलने लगे हैं। टी वी अखबार का चलन भी गांव के स्तर पर बढ़ा है। सी.डी. प्लेयर तो बहुत सें घरों में मिल जाएगा। मोबाइल फोन गरीब तबकों के भी खासा हिस्से के पास मिल जाएगा। संप्रेषन के साघन के रुप में प्रोग्रेसिव ताकतों को इसके बारे में सोचना होगा। माइग्रेटिड लेबर की संख्या ग्रामीण क्षेत्र में भी बढ़ रही है। किसानी के एक हिस्से में अहदीपन बढ़ रहा है। गांव की चौपालों की जर्जर हालत हमारे सामूहिक जीवन के पतन की तरफ इषारा करती है। नषा, दारु और बढ़ता संगठित सैक्ष माफिया सब मिलकर गांव की संस्कृति को कुसंस्कृति के अन्धेरों में धकेलने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।पुरुश प्रघान परिवार व्यवस्था में छांटकर महिला भ्रूण हत्या के चलते ज्यादातर गांव में लड़कियों की संख्या काफी कम हो रही है। बाहर से खरीद कर लाई गई बंहुओं की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। पुत्ऱ लालसा बहुत प्रबल दिखाई देती है यहां के माईडं सैट में। हर 10 किलो मीटर पर ‘षर्तिया छोरा’ के लिए गर्भवती महिला को दवाई देने वाले मिल जाएंगे। उंची से उंची पढ़ाई भी हमारे दकियानूसी विचारों में सेंध लगाने में असफल रही लगती है। जैंडर बलाइन्ड उच्च षिक्षा ने महिला विरोधी सामन्ती सोच को ही पाला पोसा लगता है। हमारे आपस के झगड़े बढ़े हैं। इस सबके चलते महिलाओं पर घरेलू हिंसा में बढ़ोतरी हुई है। महिलाओं पर बलात्कार के केस बढ़े हैं। महिलाओं के साथ छेड़छाड़ आदि के केस बढ़े हैं जिनमें से ज्यादातर केस दर्ज ही नहीं हो पाते। कचहरियों में तलाक के केसिज की संख्या बेतहासा बढ़ रही है। सल्फास की गोली खाकर हर रोज 1 या 2 नौजवान मैडीकल पंहुच जाते हैं। 30-40 ट्रक ड्राईवर हरेक गांव में मिल जाएंगे । एडस की बीमारी के इनमें से ज्यादातर वाहक हैं। सुबह से लेकर षाम तक ताष खेलने वाली मंडलियों की संख्या बढ़ती जा रही है। युवा लड़कियों का यौन षोशण संगठित ढ़ंग से किया जा रहा है तथा सैक्ष रैकेटियर गांव गांव तक फैल गये हैं। इसके अलावा युवा लड़कियों में षादी से पहले गर्भ की तादाद बढ़ रही है। मौखिक तौर पर कुछ डाक्टरों का कहना है कि इस प्रकार के केसिज में 50 प्रतिषत से ज्यादा परिवार के सदस्य, रिस्तेदार, पड़ौसी ही होते है जो यौन षोशण करते हैं । महिला न घर के अन्दर ्रसुरक्षित रही है न घर से बाहर। युवा लड़कियों का गांव की गांव में यौण उत्पीड़न हरियाणवी ग्रामीण समाज की भयंकर तसवीर पेष करता है। गांव के युवाओं -लड़के लड़कियों - को अपनी स्थगित ऊर्जा का सकारात्मक इस्तेमाल करने का कोई अवसर हमारी दिनचर्या में नहीं है। इस सब के बावजूद बहुत सी लड़कियों व महिलाओं ने खेलों में हरियाणा का नाम रोषन किया है। केबल टी. वी. ज्यादातर बड़े गांव में पहुंच गया है। टी वी में आ रही बहुत
सी अच्छी बातों के साथ साथ देर रात बहुत सी जगह बल्यू फिल्में दिखाई जाती हैं। युवाओं में आत्म हत्या के केसिज बढ़ रहे हैं। महिलाओं के दुख सुख की अभिव्यक्ति महिला लोक गीतों में साफ झलकती दिखाई देती है। हमारे सांगों में पितृसतात्मक मूल्यों का बोलबाला दिखाई देता है। इसके साथ साथ महिला विरोधी और दलित विरोधी रुझान भी साफ झलकते हैं। मूल्यों के संदर्भ में हमारा साहित्य दबंग के हित की संस्कृति का ही निर्वाह करता नजर आता है खासकर ज्यादातर सांगों के कथानक में। पूरे हरियाणवी चुटकलों के भण्डार में एक सेकुलर चुटकुला ढूंढ़ना बहुत मुष्किल काम है। फिल्में बनी मगर जयादा देर नहीं टिक पाई। कथानकों की कमजोरी, कमजोर कलात्मक पक्ष और सरकारों का कम प्रोत्साहन आदि इसके कई मुख्य कारनों में से रहे। रागनी कम्पीटीषन अपनी मौत मरे। वहां भी जातीय संकीणताएं देखी जा सकती हैं। बाजे भगत बेहतर सांगी होते हुए भी कहीं नजर नहीं आते क्योंकि जात से वे नाई थे। विडियो सी.डी. ने जोर पकड़ा मगर वह भी धाराषाही हो गई। कारण साफ है कि सम सामयिक विशय होते हुए भी हरियाणा के यथार्थ का सही सही कलात्मक चित्रण इनमें नहीं हो पाया। गहरे संकट के दौर में हमारी धार्मिक आस्थाओं को साम्प्रदायिकता के उन्माद में बदलकर हमें जात, गौत्र व धर्म के उपर लड़वा कर हमारी इन्सानियत के जज्बे को,हमारे मानवीय मूल्यों को विकृत किया जा रहा है। गउ हत्या या गौरक्षा के नाम पर हमारी भावनाओं से खिलवाड़ किया जाता है।‘दुलिना हत्या काण्ड’ और ‘अलेवा काण्ड’ गउ के नाम पर फैलाए जा रहे जहर का ही परिणाम हैं। इसी धार्मिक उन्माद और आर्थिक संकट के चलते हर तीसरे मील पर मन्दिर दिखाई देने लगे हैं। राधास्वामी और दूसरे सैक्टों का उभार भी देखने को मिलता है। सांस्कृतिक स्तर पर हरियाणा के चार पांच क्षेत्र हैं और इनकी अपनी विशिष्टताएं हैं। हरेक गांव में भी अलग अलग वर्गों व जातियों के लोग रहते हैं। जातीय भेदभाव गहरी जडें़ जमाए हैं।आर्थिक असमानताएं बढ़ रही हैं।
पिछले सालों के बदलाव के साथ आई छद्म सम्पन्नता, सुख भ्रान्ति और नए नए सम्पन्न तबकों-परजीवियों, मुफतखारों,और कमीष्नखोरों-की गुलछर्रे उडाने की अय्यास संस्कृति तेजी से उभरी है। नई नई कारें, कैसिनो, पोर्नोग्राफी,नंगी फिल्में,घटिया कैसटें ,हरियाणवी पॉप,साइबर सैक्स षाप्स, नषा, फुकरापंथी, कथा वाचकों के प्रवचन, झूठी हैसियत का दिखावा इन तबकों की सांस्कृतिक दरिद्रता को दूर करने के लिये अपनी जगह बनाते जा रहे हैं। जातिवादी व साम्प्रदायिक विद्वेष,युद्धोन्माद और स्त्री द्रोह के लतीफे चुटकलों से भरे हास्य कवि सम्मेलन बड़े उभार पर हैं। इन नवधनिकों की आध्यात्मिक कंगाली नए नए बाबाओं और रंग बिरंगे कथावाचकों को खींच लाई है।
विडम्बना है कि तबाह हो रहे तबके भी संस्कृति के इस उभोक्तावाद से छदृम ताकत पा रहे हैं।
एक गांव में ही दलितों का एक अलग ही गांव या बस्ती है। दबंग तबकों में दलित विरोध बहुत तरह से देखा जा सकता है। डिस्क्रीमिनेषन प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से मौजूद है। दलितों में अलग अलग हिस्सों में भी आपस में बहुत दूरयिां देखने को मिलती हैं। यहां के नेटिव बनिया और ब्राहम्ण की कल्चर अलग है ओर दबंग जातियों की अपनी ढ़पली अपना राग है। षादी ब्याह के मामलों में बनिया और पंडित कोमों में सहनषीलता है और लचीलापन है तभी इन कोमों में ब्याह षादी के मामलों में फतवे एक बार भी षायद जारी नहीं हुए हैं। किसानों में भी दबंग लोगांे की बातें ही चलती हैं। सामुहिकता और भाईचारे की दुहाई देकर जितनी पंचायतें हुई और जितने भी झगड़ों में इन्होंने समझौते करवाये उनमें 100 में से 99 फैंसले दबंग के हक में और पीड़ित के खिलाफ किये गये। बलात्कारी के केस के समझौतों में बलात्कारी को ही राहत दिलवाई गई। कत्ल के केस में जेल में बन्द कातिल को ही राहत दिलवाई गई ।ं तरीके अलग अलग हो सकते हैं मगर नतीजे हमेषा पीड़ित के खिलाफ ही हुए। कमजोर के हक में न्यायकारी फैंसला षायद ही कोई हों। इसी प्रकार ब्याह षादी के मामलों में गांव की गांव और गोत की गोत का केस एक मनोज बबली का ही केस है। बाकी सारे के सारे केस दो गौतों के बीच के हैं जिनमें ज्यादातर में बच्चों के माता पिताओं को बहन भाई बन कर रहने के फतवे जारी किए गये हैं और प्रेमियों के कत्ल किये गये हैं। या दूसरी तरह के उत्पीड़न किये गये हैं। गोत के गोत में षादी के मामले में राई का पहाड़ बनाया जा रहा है। असली मुद्दों से युवाओं का ध्यान बांटा जा रहा है। भावनात्मक स्तर पर लोगांे की भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा है। किसानी के संकट से किसानों को दिषा भ्रमित किया जा रहा है। गांव के युवा लड़के और लड़की जिन्दगी के चौराहे पर खड़े हैं।
एक तरफ नवसामन्तवादी और नवउदारवादी अपसंस्कृति का बाजार उन्हें अपनी ओर खींच रहा है। दूसरी ओर बेरोजगारी युवाओं के सिर पर चढ़ कर इनके जीवन को नरक बनाए है। नषा , दारु, सैक्स, पोर्नोग्राफी उसको दिषाभ्रमित करने के कारगर औजारों के रुप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। साथ ही समाज में व्याप्त पिछड़े विचारों और रुढ़ियों को भी इस्तेमाल करके इनका भावनात्मक षोशण किया जा रहा है। हरियाणा में खाते पीते मध्यमवर्ग और अन्य साधन सम्पन्न तबकों का साम्राज्यवादी वैष्वीकरण को समर्थन किसी हद तक सरलता से समझ में आ सकता
है जिनके हित इस बात में हैं कि स्त्रियां,दलित,अल्पसंख्यक और करोड़ों निर्धन जनता नागरिक समाज के निर्माण के संघर्श से अलग रहें। लेकिन साधारण जनता अगर फासीवादी मुहिम में षरीक कर ली जाती है तो वह अपनी भयानक असहायता, अकेलेपन, हताषा,अन्णसंषय,अवरुद्ध चेतना , पूर्व ग्रहों उदभ्रांत कामनाओं के कारण षरीक होती है। फासीवाद के कीड़े जनवाद से वंचित ओर उसके व्यवहार से अपरिचित, रिक्त, लम्पट और घोर अमानुशिक जीवन स्थितियों में रहने वाले जनसमूहों के बीच आसानी सेपनपते हैं। यह भूलना नहीं चाहिये कि हिन्दुस्तान की आधी से अधिक आबादी ने जितना जनतन्त्र को बरता है उससे कहीं ज्यादा फासीवादी परिस्थ्तिियों में रहने का अभ्यास किया है। इसमें कोई षक नहीं कि हरियाणा में जहां आज अनैतिक ताकत की पूजा की संस्कृति का गलबा है वहीं अच्छी बात यह है कि षहीद भगत सिंह से प्रेरणा लेते हुए युवा लड़के लड़कियों का एक हिस्सा इस अपसंस्कृति के खिलाफ एक संुसंस्कृत सभ्य समाज बनाने के काम में सकारात्मक सोच के साथ जुटा हुआ है। साधुवाद इन युवा लड़के लड़कियों को। इतने बडे़ संकट को कोई जात अपनी अपनी जात के स्तर पर हल करने की सोचे तो मुझे संभव नहीं लगता । कैसे सामना किया जाए इसके लिए विभिन्न विचारकों के विचार आमन्त्रित हैं।
कुछ विचारणीय बिन्दू इस प्रकार हो सकते हैं-
1.
रणबीर दहिया
1857 की आजादी की पहली जंग में हरियाणा वासियों की काफी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी रही। मगर उसके बाद विभाजन कारी ताकतों का सहारा लेकर अंग्रेजो ने हरियाणा की एकता को काफी चोट पहुंचाई। बाद में हरियाणा में यह कहावत चली कि ‘साहब की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी’ नहीं होना चाहिये ा नवजागरण के दौर में हरियाणा में आर्य समाज भी काफी लेट आया। महिला षिक्षा पर बहुत जोर लगाया आर्य समाज ने मगर सहषिक्षा का डटकर विरोध किया। एक और कहावत का चलन भी हुआ...म्हारे हरियाणा की बताई सै या विद्या की कमजोरी, बांडी बैल की के पार बसावै जब जुआ डालदे धोरी।
ंआज का साम्राज्यवाद पहले के किसी भी समय के मुकाबले ज्यादा संगठित,ज्यादा हथियारबन्द और ज्यादा विध्वंसक है। नवस्वतंत्र या विकासषील देषों की खेतियों, देसी उद्योग धन्धों और सामाजिक संस्कृतियों को तबाह करने पर लगा है।दुनिया भर में साम्राज्यवादी वैष्वीकरण की यही विध्वंसलीला हम देख रहे हैं। नव सांमन्तवाद और नवउदारीकरण का दौर हरियाणा में पूरे यौवन पर नजर आता है। जहां एक तरफ हरियाणा ने आर्थिक तौर पर किसानों और कामगरों तथा मध्यमवर्ग के लोगांेे के अथक प्रयासों से पूरे भारत में दसूरा स्थान ग्रहण किया है वहीं दूसरी तरफ हरियाणा के ग्रामीण समाज का संकट षहरों के मुकाबले ज्यादा तेजी से गहराता जा रहा है। सामाजिक सूचकांक चिन्ताजनक स्थिति की तरफ इषारा करते नजर आते हैं।भूखी, नंगी, अपमानित और बदहाल आाबादी के बीच छदम सम्पन्नता के जगमग द्वीपों जैसे गुड़गांव पर जष्न मनाते इन नये दौलतमंदों का सफरिंग हरियाणा से कोई वासता नजर नहीं आता। कुछ भ्रश्ट राजनितिज्ञों, भ्रश्ट पुलिस अफसरों, भ्रश्ट नौकरषाहों तथा भ्रश्ट कानून के रखवालों , गुण्डों के टोलों के पचगड्डे ने काले धन और काली संस्कृति को हरियाणा के प्रत्येक स्तर पर बढ़ाया है। फिलहाल देष के और हरियाणा के दौलतमंदों का बड़ा हिस्सा साम्राज्यवादी वैष्वीकरण का पैरोकार बना हुआ नजर आता है। वह सुख भ्रान्ति का षिकार है या समर्पण कर चुका है। वह पूरे हरियाणा या पूरे देष के बारे में नहीं महज अपने बारे में सोचता है। फसलों की, जमीन के बढ़ते बांझपन के कारण, पैदावार कम से कमतर होती जा रही है। तालाबों पर नाजायज कब्जे कर लिये गये जिनके चलते उनकी संख्या कम हो गई और जो बचे उनके आकार छोटे होते गये। अन्धाधुन्ध कैमिकल खादों और कीट नाषकों के इस्तेमाल
के कारण जमीन के नीचे का पानी प्रदूशित होता जा रहा है। गांव की षामलात जमीनों पर दबंग लोगांे ने कब्जे जमा लिए हैं। सरकारी पानी की डिगियों की बुरी हालत है। पीने के पानी का व्यवसायिकरण बहुत से गावों में टयूबवैलों के माध्यम से हो गया। मगर गलियों का बुरा हाल है। यदि पक्की भी हो गई हैं तो भी पानी की निकासी का कोई भी उचित प्रबन्ध न होने के कारण जगह जगह पानी के चब्बचे बन गये हैं जो बहुत सी बीमारियों के जनक हैं। बिजली ज्यादातर समय गुल रहती है। बैल आमतौर से कहीं कहीं बचे हैं। भैंसों के सुआ लगा कर दूध निकालने की कुरीति बढ़ती जा रही है। सब्जियों में भी सुआ लगाने का चलन बहुत बढ़ता जा रहा है। खेती की जोत का आकार कम से कमतर हुआ है और दो एकड़ या इससे कम जोत के किसानों की संख्या किसी भी गांव में कुल किसानों की संख्या में सबसे जयादा है। गांव के रुरल आरटीजन गांव से उजड़कर षहरों कस्बों में जाने को मजबूर हुए हैं। गांव के सरकारी स्कूलों का माहौल काफी खराब हो रहा है। इन स्कूलों में खाते पीते व दबंग परिवारों के बच्चे नहीं जाते। इसलिए उनकी देखभाल भी नहीं बची है। दलित और बहुत गरीब किसान परिवार के बच्चे ही इन स्कूलों में जाते हैं। उपर से सैमैस्टर सिस्टम और बहुत दूसरी नीतिगत खामियों के चलते माहौल और खराब हो रहा है।इस सबके चलते प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है। उंची फीसें इन स्कूलों का फैषन बन गया है। बीएड के कालेजों की एक बार बाढ़ आईए फिर नर्सिंग कालेजो की और फिर डैंटल कालेजों की। ज्यादातर प्राईवेट सैक्टर में हैं। बी एड कालेजों में से ज्यादातर बन्द होने के कगार पर हैं। प्राईवेट सैक्टर में दुकानदारी बढ़ी है और षिक्षा की गुणवता काफी कम हुई है। इन की समीक्षा अपने आप में एक लेख की मांग करता है। स्वास्थ्य के क्षे़त्र में 90 के बाद प्राईवेट सैक्टर 57 प्रतिषत हो गया है। गांव के सबसैंटर में,प्राईमरी स्वास्थ्य केन्द्र में या सामुदायिक केन्द्र में क्या हो रहा है यह गांव के दबंगों की चिन्ता का मसला कतई नहीं है। बल्कि इनमें काम करने वाल ेकुछ भ्रश्ट कर्मचारियो ं के साथ सांठगांठ करके ठीक काम करने वाले डाक्टरों व दूसरे कर्मचारियों को परेषान किया जाता है। गांव में सरकार द्वारा बनाई गई डिगियों का इस्तेमाल न के बराबर हो रहा है जिसके चलते प्राइवेट ट्यूबवैलांे से पानी खरीदना पड़ रहा है । अब भी पीने के पानी के कुंए अलग अलग जातियों के अलग अलग हैं। बहुत कम गांव हैं जहां सर्वजातीय कंुए हैं। खेती में ट्रैक्टर का इस्तेमाल बहुत बढ़ गया है। आज ट्रैक्टर से एक एकड़ की बुआही के रेट 350-400रुपये हो गये हैं। ट्यूबवैल से एक एकड़ की सिंचाई के रेट 80 रुपये घण्टा हो गये हैं। थ्रैशर से गिहूं निकालने के रेट1500रुपये प्रति एकड़ हो गये हैं। हारवैस्टर कारबाईन से गिहूं कटवाने के 1400 रुपये प्रति एकड़ और निकलवाने के रैपर के रेट 1200 प्रति एकड़ हो गये हैं। बड़ी बड़ी बहुराश्ट्रीय कम्पनियों का सामान हरेक गांव की छोटी से छोटी दुकानों पर आम मिल जाता है।
8-10 दुकानों से लेकर 40-50 दुकानों का बाजार छोटे बड़े सभी गांव में मौजूद है। छोटी छोटी किरयाने की दुकानों पर दारु के प्लास्टिक के पाउच आसानी से उपलब्ध हैं। पहले का डंगवारा जिसमें एक एक बैल वाले दो किसान मिलकर खेती कर लेते थे बिल्कुल खत्म हो गया है। पहले दो एकड़ वाला 10 एकड़ वाल ेकी जमीन बाधे पर लेकर बोता रहा है और काम चलाता रहा है। साथ एक दो भैंस भी रखता रहा है जिसका दूध बेचकर रोजाना के खर्चे पूरे करता है। पहले कहावत थी‘ ‘दूध बेच दिया इसा पूत बेच दिया’। आज दूध भी बेचना पड़ता है और बेटा भी बेचना पड़ता है। मगर आज 10 किल्ले वाला भी दो किल्ले वाले की जमीन बाधे पर लेकर बोता है। खेती में मषीनीकरण तेजी से हुआ और हरित क्रांन्ति का दौर षुरु हुआ। हरित क्रान्ति ने बहुत नुकसान किये हैं जो अपने आप में एक बहस और रिसर्च का विशय है। मगर किसानी के एक हिस्से को लाभ भी बहुत हुआ है। एक नया नव धनाढ़य वर्ग पैदा हुआ है हरियाणा में जिसका हरियाणा के हरेक पक्ष पर पूरा कब्जा है। इन्ही के दायरों में अलग अलग जातों के नेताओं का उभरना समझ में आता हैं । मसलन चौधरी देवीलाल जाटों के नेता, चौधरी चान्द राम दलितों के नेता- उनमें भी एक हिस्से के-। पंडित भगवतदयाल षर्मा पंडितों नेता ,राव बिरेन्द्र सिंह अहीरों के नेता आदि। इस धनाढ़य वर्ग का एक हिस्सा आढ़तियों में षामिल हो गया है। यह कम जमीन वाले किसान की कई तरह से खाल उतार रहा है। पुराने दौर के परिवारों में से डी एल एफ ग्रूप और जिन्दल ग्रूपों ने राश्टीय स्तर पर पहचान बनाई है। इसी धनाढ़य वर्ग में से कुछ भठ्ठों के मालिक हो गये हैं ,दारु के ठेकों के ठेकेदार हैं, प्राप्रटी डीलर बन गये हैं। इसी खाते पीते वर्गों के बच्चों में विदेषों में जा कर पढ़ने का या वहां जाकर नौकरी करने का रुझान पंजाब की तर्ज पर बढ़ता नजर आता है । नेताओं के बस्ता ठाउ भी इन्ही में से हैं। हरेक विभाग के दलाल भी इन्हीं लोगों में से पैदा हुए हैं। इन ज्यादातरों के और भी कई तरह के बिजिनैष हैं। इनका जीवन ए.सी. जीवन में बदल गया है चाहे षहर में रहते हों या गांव में। हर तरह के दांव पेच लगाने में यह तबका बहुत माहिर हो गया है। जिन लोगांें की हाल में जमीने बिकी हैं उन्होंने पैसा इन्वैस्ट करने का मन बनाया मगर पैसा लगाने की उपयुक्त जगह न पाकर वापिस गांव में आकर मकान का चेहरा ठीक ठ्याक कर लिया और एक 8-10 लाख की गाड्डी कार ले ली। एक मंहगा सा मोबाइल ले लिया। जिनके पास कई एकड़ जमीन थी और संयुक्त परिवार था उन्होंने सिरसा की तरफ या कांषीपुर में या मध्यप्रदेष में खेती की जमीनों में यह पैसा लगा दिया। कुछ लोगों ने 200-300 गज का प्लॉट षहर में लेकर सारा पैसा वहां मकान बनाने पर खर्च कर दिया। आगे क्या होगा उनका? इन बिकी जमीनों पर जीवन यापन करने वाले खेत मजदूर और बाकी के तबकों का जीना मुहाल हो गया है। यह दबंगों और मौकापरस्तों के समूह हरेक कौम में पैदा हुए हैं। इनका
वजूद जातीय , गोत्रों और ठोले पाने की राजनिति पर ही टिका है। ज्यादातर गांव में सड़कें पहुंच गई हैं बेषक खस्ता हालत में हों बहुत सी सड़कें। किसी भी गांव में चार पहियों के वाहनों की संख्या भी बढ़ी है। बहुराश्टीय कम्पनियों के प्रोडक्ट ज्यादातर गावों में मिलने लगे हैं। टी वी अखबार का चलन भी गांव के स्तर पर बढ़ा है। सी.डी. प्लेयर तो बहुत सें घरों में मिल जाएगा। मोबाइल फोन गरीब तबकों के भी खासा हिस्से के पास मिल जाएगा। संप्रेषन के साघन के रुप में प्रोग्रेसिव ताकतों को इसके बारे में सोचना होगा। माइग्रेटिड लेबर की संख्या ग्रामीण क्षेत्र में भी बढ़ रही है। किसानी के एक हिस्से में अहदीपन बढ़ रहा है। गांव की चौपालों की जर्जर हालत हमारे सामूहिक जीवन के पतन की तरफ इषारा करती है। नषा, दारु और बढ़ता संगठित सैक्ष माफिया सब मिलकर गांव की संस्कृति को कुसंस्कृति के अन्धेरों में धकेलने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।पुरुश प्रघान परिवार व्यवस्था में छांटकर महिला भ्रूण हत्या के चलते ज्यादातर गांव में लड़कियों की संख्या काफी कम हो रही है। बाहर से खरीद कर लाई गई बंहुओं की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। पुत्ऱ लालसा बहुत प्रबल दिखाई देती है यहां के माईडं सैट में। हर 10 किलो मीटर पर ‘षर्तिया छोरा’ के लिए गर्भवती महिला को दवाई देने वाले मिल जाएंगे। उंची से उंची पढ़ाई भी हमारे दकियानूसी विचारों में सेंध लगाने में असफल रही लगती है। जैंडर बलाइन्ड उच्च षिक्षा ने महिला विरोधी सामन्ती सोच को ही पाला पोसा लगता है। हमारे आपस के झगड़े बढ़े हैं। इस सबके चलते महिलाओं पर घरेलू हिंसा में बढ़ोतरी हुई है। महिलाओं पर बलात्कार के केस बढ़े हैं। महिलाओं के साथ छेड़छाड़ आदि के केस बढ़े हैं जिनमें से ज्यादातर केस दर्ज ही नहीं हो पाते। कचहरियों में तलाक के केसिज की संख्या बेतहासा बढ़ रही है। सल्फास की गोली खाकर हर रोज 1 या 2 नौजवान मैडीकल पंहुच जाते हैं। 30-40 ट्रक ड्राईवर हरेक गांव में मिल जाएंगे । एडस की बीमारी के इनमें से ज्यादातर वाहक हैं। सुबह से लेकर षाम तक ताष खेलने वाली मंडलियों की संख्या बढ़ती जा रही है। युवा लड़कियों का यौन षोशण संगठित ढ़ंग से किया जा रहा है तथा सैक्ष रैकेटियर गांव गांव तक फैल गये हैं। इसके अलावा युवा लड़कियों में षादी से पहले गर्भ की तादाद बढ़ रही है। मौखिक तौर पर कुछ डाक्टरों का कहना है कि इस प्रकार के केसिज में 50 प्रतिषत से ज्यादा परिवार के सदस्य, रिस्तेदार, पड़ौसी ही होते है जो यौन षोशण करते हैं । महिला न घर के अन्दर ्रसुरक्षित रही है न घर से बाहर। युवा लड़कियों का गांव की गांव में यौण उत्पीड़न हरियाणवी ग्रामीण समाज की भयंकर तसवीर पेष करता है। गांव के युवाओं -लड़के लड़कियों - को अपनी स्थगित ऊर्जा का सकारात्मक इस्तेमाल करने का कोई अवसर हमारी दिनचर्या में नहीं है। इस सब के बावजूद बहुत सी लड़कियों व महिलाओं ने खेलों में हरियाणा का नाम रोषन किया है। केबल टी. वी. ज्यादातर बड़े गांव में पहुंच गया है। टी वी में आ रही बहुत
सी अच्छी बातों के साथ साथ देर रात बहुत सी जगह बल्यू फिल्में दिखाई जाती हैं। युवाओं में आत्म हत्या के केसिज बढ़ रहे हैं। महिलाओं के दुख सुख की अभिव्यक्ति महिला लोक गीतों में साफ झलकती दिखाई देती है। हमारे सांगों में पितृसतात्मक मूल्यों का बोलबाला दिखाई देता है। इसके साथ साथ महिला विरोधी और दलित विरोधी रुझान भी साफ झलकते हैं। मूल्यों के संदर्भ में हमारा साहित्य दबंग के हित की संस्कृति का ही निर्वाह करता नजर आता है खासकर ज्यादातर सांगों के कथानक में। पूरे हरियाणवी चुटकलों के भण्डार में एक सेकुलर चुटकुला ढूंढ़ना बहुत मुष्किल काम है। फिल्में बनी मगर जयादा देर नहीं टिक पाई। कथानकों की कमजोरी, कमजोर कलात्मक पक्ष और सरकारों का कम प्रोत्साहन आदि इसके कई मुख्य कारनों में से रहे। रागनी कम्पीटीषन अपनी मौत मरे। वहां भी जातीय संकीणताएं देखी जा सकती हैं। बाजे भगत बेहतर सांगी होते हुए भी कहीं नजर नहीं आते क्योंकि जात से वे नाई थे। विडियो सी.डी. ने जोर पकड़ा मगर वह भी धाराषाही हो गई। कारण साफ है कि सम सामयिक विशय होते हुए भी हरियाणा के यथार्थ का सही सही कलात्मक चित्रण इनमें नहीं हो पाया। गहरे संकट के दौर में हमारी धार्मिक आस्थाओं को साम्प्रदायिकता के उन्माद में बदलकर हमें जात, गौत्र व धर्म के उपर लड़वा कर हमारी इन्सानियत के जज्बे को,हमारे मानवीय मूल्यों को विकृत किया जा रहा है। गउ हत्या या गौरक्षा के नाम पर हमारी भावनाओं से खिलवाड़ किया जाता है।‘दुलिना हत्या काण्ड’ और ‘अलेवा काण्ड’ गउ के नाम पर फैलाए जा रहे जहर का ही परिणाम हैं। इसी धार्मिक उन्माद और आर्थिक संकट के चलते हर तीसरे मील पर मन्दिर दिखाई देने लगे हैं। राधास्वामी और दूसरे सैक्टों का उभार भी देखने को मिलता है। सांस्कृतिक स्तर पर हरियाणा के चार पांच क्षेत्र हैं और इनकी अपनी विशिष्टताएं हैं। हरेक गांव में भी अलग अलग वर्गों व जातियों के लोग रहते हैं। जातीय भेदभाव गहरी जडें़ जमाए हैं।आर्थिक असमानताएं बढ़ रही हैं।
पिछले सालों के बदलाव के साथ आई छद्म सम्पन्नता, सुख भ्रान्ति और नए नए सम्पन्न तबकों-परजीवियों, मुफतखारों,और कमीष्नखोरों-की गुलछर्रे उडाने की अय्यास संस्कृति तेजी से उभरी है। नई नई कारें, कैसिनो, पोर्नोग्राफी,नंगी फिल्में,घटिया कैसटें ,हरियाणवी पॉप,साइबर सैक्स षाप्स, नषा, फुकरापंथी, कथा वाचकों के प्रवचन, झूठी हैसियत का दिखावा इन तबकों की सांस्कृतिक दरिद्रता को दूर करने के लिये अपनी जगह बनाते जा रहे हैं। जातिवादी व साम्प्रदायिक विद्वेष,युद्धोन्माद और स्त्री द्रोह के लतीफे चुटकलों से भरे हास्य कवि सम्मेलन बड़े उभार पर हैं। इन नवधनिकों की आध्यात्मिक कंगाली नए नए बाबाओं और रंग बिरंगे कथावाचकों को खींच लाई है।
विडम्बना है कि तबाह हो रहे तबके भी संस्कृति के इस उभोक्तावाद से छदृम ताकत पा रहे हैं।
एक गांव में ही दलितों का एक अलग ही गांव या बस्ती है। दबंग तबकों में दलित विरोध बहुत तरह से देखा जा सकता है। डिस्क्रीमिनेषन प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से मौजूद है। दलितों में अलग अलग हिस्सों में भी आपस में बहुत दूरयिां देखने को मिलती हैं। यहां के नेटिव बनिया और ब्राहम्ण की कल्चर अलग है ओर दबंग जातियों की अपनी ढ़पली अपना राग है। षादी ब्याह के मामलों में बनिया और पंडित कोमों में सहनषीलता है और लचीलापन है तभी इन कोमों में ब्याह षादी के मामलों में फतवे एक बार भी षायद जारी नहीं हुए हैं। किसानों में भी दबंग लोगांे की बातें ही चलती हैं। सामुहिकता और भाईचारे की दुहाई देकर जितनी पंचायतें हुई और जितने भी झगड़ों में इन्होंने समझौते करवाये उनमें 100 में से 99 फैंसले दबंग के हक में और पीड़ित के खिलाफ किये गये। बलात्कारी के केस के समझौतों में बलात्कारी को ही राहत दिलवाई गई। कत्ल के केस में जेल में बन्द कातिल को ही राहत दिलवाई गई ।ं तरीके अलग अलग हो सकते हैं मगर नतीजे हमेषा पीड़ित के खिलाफ ही हुए। कमजोर के हक में न्यायकारी फैंसला षायद ही कोई हों। इसी प्रकार ब्याह षादी के मामलों में गांव की गांव और गोत की गोत का केस एक मनोज बबली का ही केस है। बाकी सारे के सारे केस दो गौतों के बीच के हैं जिनमें ज्यादातर में बच्चों के माता पिताओं को बहन भाई बन कर रहने के फतवे जारी किए गये हैं और प्रेमियों के कत्ल किये गये हैं। या दूसरी तरह के उत्पीड़न किये गये हैं। गोत के गोत में षादी के मामले में राई का पहाड़ बनाया जा रहा है। असली मुद्दों से युवाओं का ध्यान बांटा जा रहा है। भावनात्मक स्तर पर लोगांे की भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा है। किसानी के संकट से किसानों को दिषा भ्रमित किया जा रहा है। गांव के युवा लड़के और लड़की जिन्दगी के चौराहे पर खड़े हैं।
एक तरफ नवसामन्तवादी और नवउदारवादी अपसंस्कृति का बाजार उन्हें अपनी ओर खींच रहा है। दूसरी ओर बेरोजगारी युवाओं के सिर पर चढ़ कर इनके जीवन को नरक बनाए है। नषा , दारु, सैक्स, पोर्नोग्राफी उसको दिषाभ्रमित करने के कारगर औजारों के रुप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। साथ ही समाज में व्याप्त पिछड़े विचारों और रुढ़ियों को भी इस्तेमाल करके इनका भावनात्मक षोशण किया जा रहा है। हरियाणा में खाते पीते मध्यमवर्ग और अन्य साधन सम्पन्न तबकों का साम्राज्यवादी वैष्वीकरण को समर्थन किसी हद तक सरलता से समझ में आ सकता
है जिनके हित इस बात में हैं कि स्त्रियां,दलित,अल्पसंख्यक और करोड़ों निर्धन जनता नागरिक समाज के निर्माण के संघर्श से अलग रहें। लेकिन साधारण जनता अगर फासीवादी मुहिम में षरीक कर ली जाती है तो वह अपनी भयानक असहायता, अकेलेपन, हताषा,अन्णसंषय,अवरुद्ध चेतना , पूर्व ग्रहों उदभ्रांत कामनाओं के कारण षरीक होती है। फासीवाद के कीड़े जनवाद से वंचित ओर उसके व्यवहार से अपरिचित, रिक्त, लम्पट और घोर अमानुशिक जीवन स्थितियों में रहने वाले जनसमूहों के बीच आसानी सेपनपते हैं। यह भूलना नहीं चाहिये कि हिन्दुस्तान की आधी से अधिक आबादी ने जितना जनतन्त्र को बरता है उससे कहीं ज्यादा फासीवादी परिस्थ्तिियों में रहने का अभ्यास किया है। इसमें कोई षक नहीं कि हरियाणा में जहां आज अनैतिक ताकत की पूजा की संस्कृति का गलबा है वहीं अच्छी बात यह है कि षहीद भगत सिंह से प्रेरणा लेते हुए युवा लड़के लड़कियों का एक हिस्सा इस अपसंस्कृति के खिलाफ एक संुसंस्कृत सभ्य समाज बनाने के काम में सकारात्मक सोच के साथ जुटा हुआ है। साधुवाद इन युवा लड़के लड़कियों को। इतने बडे़ संकट को कोई जात अपनी अपनी जात के स्तर पर हल करने की सोचे तो मुझे संभव नहीं लगता । कैसे सामना किया जाए इसके लिए विभिन्न विचारकों के विचार आमन्त्रित हैं।
कुछ विचारणीय बिन्दू इस प्रकार हो सकते हैं-
1.
गाँवों में पीने के पानी की जगह कुंए की बजाए सबमर्सीबल पम्प सैटों व हैंड पम्पों ने ले ली है। हरियाणा में सरकारी जलघरों की स्थिति में बहुत सुधार हुआ है व जलघरों का पानी गांवों की लगभग सभी गलियों में पहुंचा है लेकिन वह अधिकतर पशुओं को पिलाने, उनको नहलाने व अन्य इस्तेमाल जैसे कपड़े धोने व नहाने आदि के लिए ही होता है। गाँव व अर्ध-शहरी क्षेत्रों में भूमिगत जल को ही पीने को वरियता देने की मानसिकता से छुटकारा आज भी सम्भव नहीं लग रहा। भूमिगत जल में अत्यधिक मात्रा में फ्लोराईड व अन्य अस्वास्थ्यकर लवणों के होने के बावजूद भी लोग अन्धाधुन्ध तरीके से इस पानी को पीने व खाना पकाने में इस्तेमाल करते जा रहे हैं। कई बार नहरोंमें कम पानी आने व बिजली की कम उपलब्धता को मद्देनजर रखते हुए विभाग ने लोगों को पूरा पानी उपलब्ध करवाने के चक्कर में नहर आधारित जलघरों पर व आसपास टयूबवैल लगाने आरम्भ कर दिए। फिर वोटों की राजनीति का दबाव डालकर राजनेताओं से और अधिक टयूबवैल लगवाए जाने लगे, जिस के दो मुख्य दुष्परिणाम सामने आए। पहला, पानी की अन्धाधुन्ध बरबादी व दूसरा नहर आधारित जलघरों के तकनीकी ढाँचे व उसके इस्तेमाल की बरबादी। नहरी जलघरों के ढाँचे जैसे नहर से लेकर जलघरों तक टैंकों को पानी से भरने व जलघर पर पानी छानने की तरफ ध्यान न देकर कर्मचारियों ने सिर्फ टयूबवैल की मोटर का बटन दाबने को ही अपने कर्तव्य की इतिश्रि मान लिया, तथा लोग भी खुश हो गए कि चलो विभाग ने पीने का पानी देना आरम्भ कर दिया। (नहरी जल को साफ करके व दवा मिला कर आपूर्ति करने के बावजूद भी लोग उसे पीने का पानी नहीं मानते) कर्मचारियों की लगातार होती गई कमी की वजह ने भी इस प्रक्रिया में अपनी भूमिका अदा की। पानी की बर्बादी की वजह से गाँव की गलियों के सभी हिस्सों में पानी पहुंचना भी बंद हो गया, जो पानी के असमान बंटवारे के रूप में सामने आया। नहरी ढाँचे को बार बार ठीक करने के नाम पर अफसर अपनी जेबें भरते गए।
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