स्वामित्व के साथ बदलता मीडिया का चरित्र
मुकेश कुमार
देश में पहली बार पूर्ण बहुमत हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन चुकी है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्राी पद पर क़ाबिज़ हो चुके हैं। ये कोई मामूली घटना नहीं है और इसे चुनाव में सिर्फ़ एक दल की हार और दूसरे की जीत के रूप में देखना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इसने देश को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जो
उसे फासीवाद की ओर भी ढकेल सकता है और पूंजीवाद के नग्नतम रूप से उसका सामना भी करवा सकता है। अति दक्षिणपंथी राजनीति का इतना ताक़तवर होकर उभरना ख़तरनाक संकेत तो देता ही है, मगर ये इस बात का भी सबूत है कि बहुत सारी शक्तियां भी उसके साथ हैं जो उसे मज़बूती प्रदान कर रही हैं। इन शक्तियों में से एक मीडिया है और अब ये कोई छिपी हुई बात नहीं है। मीडिया ने इस आम चुनाव में एक अत्यधिक पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाई और बड़ी निर्लज्जता के साथ निभाई। लेकिन मीडिया को अर्थव्यवस्था से अलग इकाई मानकर उसे कोसना तर्कसंगत नहीं है। ये ज़रूरी है कि उन शक्तियों की पहचान की जाये जो पीछे से उसको नियंत्रित-संचालित कर रही हैं, ताकि असली गुनाहगारों की शिनाख़्त की जा सके और उनसे ध्यान न हटे। वास्तव में सन् 2014 के चुनाव मीडिया के लिए कई तरह से महत्वपूर्ण रहे। पहली बार उसका चुनाव पर इतना व्यापक प्रभाव दिखा। ऐसा लगा मानो वही तय कर रहा हो कि किसकी सरकार बनेगी और कौन प्रधानमंत्राी होगा। चुनाव परिणाम साबित करते हैं कि सचमुच में उसकी भूमिका काफ़ी हद तक निर्णायक रही और उसने सबको अपना लोहा मानने के लिए विवश कर दिया। ये मीडिया युग के आने और छा जाने का प्रमाण है। लेकिन इससे भी बड़ी सचाई ये है कि वह अब लोकतंत्रा के चौथे स्तंभ के रूप में, जैसा कि अकसर प्रचारित किया जाता है, जनता की
इच्छाओं-आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने वाला उपकरण ही नहीं रह गया बल्कि जनमत के निर्माण का हथियार बन चुका है। उसने इतनी शक्ति प्राप्त कर ली है कि वह अब भावी प्रधानमंत्राी के निर्माण और स्थापना तक में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगा है। लेकिन उसकी ये बढ़ती ताक़त ढेर सारे प्रश्नों और आरोपों से घिरी हुई है। ये सवाल उसके चरित्रा और उद्देश्यों के संबंध में उठे और पूरी शिद्दत के साथ एक नहीं, सब तरफ़ से उठाये गये। इस बात का प्रमाण ये है कि पहले सिर्फ़ कम्युनिस्ट पार्टियां ही मीडिया के पूंजीवादी शक्तियों के हाथों में खेलने और उनके पक्ष में प्रचारक की भूमिका निभाने का आरोप लगाती थीं, जबकि इस बार लगभग सभी राजनीतिक दलों ने उन्हीं की भाषा में मीडिया पर तीखे हमले किये। नवोदित आम आदमी पार्टी ने सबसे आक्रामक ढंग से मीडिया पर हमले करते हुए कहा कि वह कार्पोरेट जगत की कठपुतली है। मीडिया के पक्षपाती व्यवहार से प्रभावित दूसरे दलों की भी यही शिकायत रही कि वह पैसे की ताक़त के सामने नतमस्तक हो गया
है। जनता दल (यू) का तो यहां तक कहना था कि मीडिया अब पत्राकार नहीं, मालिक चला रहे हैं। और तो और कांग्रेस और बीजेपी ने भी, जो कि इस मीडिया का इस्तेमाल करके लाभ उठाती रही हैं, उस पर पक्षपात के आरोप जड़ दिये। बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्राी पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने तो एक नया जुमला ही उछाल दिया न्यूज़ ट्रेडर का। उन्होंने अपने इंटरव्यू में पत्राकारों को सीधे-सीधे न्यूजट्रेडर यानी ख़बरों का कारोबारी कहा, जिसका एक मतलब तो ये है कि मीडिया बिकाऊ है और उसे ख़रीदा जा सकता है। निश्चय ही इस पदावली को उन्होंने अपने अनुभवों से ही गढ़ा होगा और उसका इस्तेमाल वे पत्राकारों का मुंह बंद करने के लिए कर रहे थे। लेकिन असली बात ये नहीं है बल्कि ये है कि मीडिया की न साख है और न धार, क्योंकि वह न्यूजट्रेडर शब्द के इस्तेमाल पर कोई आपत्ति तक दर्ज नहीं करवा सका। ये उसके घटते आत्मविश्वास और गुलाम तथा आतंकित मानसिकता का भी परिचायक था। सवाल उठता है कि आखि़र ये नौबत क्यों आयी। उसकी हालत सड़क पर पड़े उस कुत्ते की तरह क्यों हो गयी जिसे हर आता-जाता लात मारकर आगे बढ़ जाता है। इसका जवाब जब हम ढूंढ़ने जायेंगे तो पायेंगे कि कहीं न कहीं इसकी तह में मीडिया का बदलता स्वामित्व है। मीडिया को चलानेवाली पूंजी और उस पूंजी को नियंत्रित करने वाले लोग तय कर रहे हैं कि मीडिया की भूमिका क्या होगी। अगर आम चुनाव का ही उदाहरण लें तो सोचना चाहिए कि क्यों मीडिया की मोदी-भक्ति के संदर्भ में बार-बार कार्पोरेट जगत का नाम लिया जा रहा था। क्यों ये कहा जा रहा था कि मीडिया अगर मोदी के अभियान का सक्रिय सहयोगी बन गया था तो इसकी वजह ये थी कि पूरा कार्पोरेट जगत चाहता था कि वे प्रधानमंत्राी बनें। वह कार्पोरेट जगत के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा था, क्योंकि उसकी लगाम उसके हाथों में थी। अगर पिछले छह महीनों के मीडिया कंटेंट का अध्ययन किया जायेगा तो साफ़ हो जायेगा कि वह किस कदर मोदी के पक्ष में झुका हुआ था। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ (सीएमएस) द्वारा जारी किये गये आंकड़े इसकी बानगी पेश करते हैं। सीएमएस ने पांच चैनलों के प्राइम टाइम के कवरेज में विभिन्न नेताओं की हिस्सेदारी के आंकड़े देते हुए बताया कि राहुल गांधी के मुक़ाबले मोदी को पांच गुना अधिक कवरेज मिला जबकि अरविंद केजरीवाल की तुलना में ये अनुपात सात गुना था। हालांकि इन आंकड़ों में कंटेंट का रूप-रंग नज़र नहीं आता। अगर वह देखा जा सकता तो पता चलता कि मोदी का कवरेज किस कदर महिमागान से सराबोर था और उनके प्रतिद्वंद्वियों का दुराग्रहों से भरा हुआ। यही नहीं, इन पांच चैनलों में हिंदी के वे तीन कुख्यात चैनल शामिल ही नहीं थे जिन्होंने निर्लज्जता की तमाम सीमाएं लांघते हुए मोदी के प्रोपेगंडा का काम किया।
चुनाव के दौरान मीडिया में कार्पोरेट जगत के खेल का खुलासा मोदी के प्रधानमंत्राी पद ग्रहण करने के एक पखवाड़े के अंदर ही हो गया जब मुकेश अंबानी द्वारा स्थापित इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट ने नेटवर्क 18 और टीवी 18 समूह का अधिग्रहण कर लिया। ये भारत में मीडिया इतिहास का सबसे बड़ा कार्पोरेट अधिग्रहण था और इसे सबसे बड़ा गेम चेंजर बताया जा रहा है। इस अधिग्रहण के बाद संस्थान से मोदी विरोधी पत्राकारों की विदाई की ख़बरें भी मीडिया जगत में फैल गईं, जो कि मोदी समर्थक उद्योगपति की भावी रणनीति का एक स्वाभाविक क़दम कहा जा सकता है। लेकिन इस मीडिया घराने के चरित्रा पर अंबानी का दबाव पहले से ही दिखने लगा था, क्योंकि 2200 करोड़ रुपए का निवेश करके उन्होंने पहले से पकड़ बना ली थी। लेकिन ये केवल नेटवर्क 18 और टीवी 18 समूह की कहानी ही नहीं है। तमाम बड़े चैनलों में कार्पोरेट हिस्सेदारी है और वह लगातार बढ़ रही है। कई उद्योगपति तो सीधे-सीधे अपने मीडिया संस्थान शुरू कर चुके हैं। नवीन जिंदल का मीडिया वेंचर इसकी ताज़ा मिसाल है। दूसरी ओर ये भी ध्यान में रखना चाहिए कि जिन मीडिया संस्थानों में सीधी कार्पोरेट भागीदारी नहीं है, उनमें से कुछ तो ख़ुद ही कार्पोरेट में तब्दील हो चुके हैं, यानी उनका चरित्रा भी वही हो गया है जो कार्पोरेट भागीदारी वाले संस्थानों का है। स्वामित्व का दूसरा रूप हमें उन मीडिया संस्थानों में देखने को मिलता है जो अपने धंधों पर परदा डालने, उन्हें सुरक्षा कवच प्रदान करने या फिर अपने दूसरे कारोबार को बढ़ावा देने के लिए करते हैं। ये तो सभी को पता है कि मीडिया का कारोबार बेहद जोखिम वाला है और 95 प्रतिशत मीडिया संस्थान घाटे में चल रहे हैं। इस तथ्य को जानते हुए भी अगर लोग मीडिया कारोबार में उतर रहे हैं तो सीधे-सीधे मुनाफ़े के लिए नहीं बल्कि ऊपर बताये गये लाभों के लिए। इसीलिए हम पाते हैं कि ज़्यादातर मीडिया संस्थानों के पीछे चिट फंड कंपनियां या बिल्डर हैं। उन्हें साल में सौ-पचास करोड़ रुपए इस तरह बहाने में भी लाभ ही नज़र आता है। फिर मीडिया संस्थान काले धन को सफेद करने के काम में बरसों से आता रहा है। बहुत से कारोबारी, जिनमें अपराधियों से लेकर साधु-संत और हवाला कारोबारी तक शामिल हैं, इसी तरह इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। मीडिया में स्वामित्व का तीसरा स्वरूप राजनीतिक है, यानी नेता और राजनीतिक दल अघोषित रूप से मीडिया का इस्तेमाल अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए करते हैं। दक्षिणी राज्यों में और ख़ास तौर पर तमिलनाडु तथा आंध्र प्रदेश में ये खूब देखा जा सकता है। ऐसे मीडिया संस्थान पूरी तरह से एकपक्षीय होते हैं, उनसे निष्पक्ष सामग्री की अपेक्षा करना ही छलावा है। यहां ये स्पष्ट करना शायद ठीक होगा कि ऊपर से अलग दिखने वाले स्वामित्व के बावजूद सबका मूल चरित्र एक ही है और वह है एक वर्ग विशेष के स्वार्थों को पूरा करना। इन सबका संबंध बाज़ार से है और कार्पोरेट के हितों से वे भी संचालित होते हैं। ये बुनियादी रूप से उन आर्थिक नीतियों के पक्षधर होते हैं जो मेहनतकश वर्ग के शोषण पर आधारित हैं। कहने का मतलब ये है कि मीडिया का धंधा बेहद गंदा हो चुका है। उसमें हम तरह-तरह की जो गंदगियां देखते हैं, वे स्वामित्व के उक्त प्रकारों के कारण ही हैं। उसी ने उसका चरित्रा, जो कि मूल रूप से वही था, और भी नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है। पेड न्यूज़ की बात हम पिछले एक दशक से कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में आज का मीडिया पेड मीडिया हो चुका है जिसका घोषित उद्देश्य चाहे जो हो, मगर वास्तव में वह जन विरोधी है। ज़ाहिर है कि वह लोकतंत्रा विरोधी भी हो चुका है। अकसर कहा जाता है कि भले ही विभिन्न मीडिया संस्थान किसी के पक्षधर रहें, मगर उनकी विविधता और आपसी प्रतिस्पर्धा की वजह से सच सामने आ ही जाता है, साथ ही उन पर एक तरह का चेक एवं बैलेंस भी कायम रहता है। मगर वास्तव में ऐसा हो नहीं रहा, क्योंकि तमाम मीडिया संस्थान अब मूल रूप से एक ही तरह के सोच वाले हो गये हैं और उनके उद्देश्य भी एक हैं और वे हैं शासक वर्ग के स्वार्थों की सिद्धि। यही वजह है कि हम हर अख़बार और चैनल को उन आर्थिक नीतियों का प्रचारक पाते हैं जो खुली बाज़ार व्यवस्था की वकालत करते हैं। कोई भी किसानों और मज़दूरों की समस्याओं और उनके हक़ों की बात नहीं करता। ग़रीबी, बेरोज़गारी और आर्थिक विषमता की किसी को परवाह ही नहीं है। मीडिया में दबे-कुचले वर्ग
की आवाज़ सुनाई ही नहीं पड़ती, उनके चेहरे दिखलाई ही नहीं पड़ते। उन्होंने उस शहरी मध्यमवर्ग को अपना टारगेट बना रखा है जो उनका उपभोक्ता भी है और नीति निर्धारण में जिसकी मुखरता निर्णायक भूमिका अदा करती है। मीडिया का हिंदुत्ववादी हो जाना भी इसी का नतीजा है। कार्पोरेट पूंजी के बढ़ते नियंत्राण के प्रभाव हमें आने वाले समय में और भी तरह से दिखेंगे। अधिग्रहण और विलय की जो प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और जिसे कार्पोरेट जगत कंसोलिडेशन का नाम दे रहा है, वह अंतत छोटे मीडिया संस्थानों को निगल जायेगी। कुछ दैत्याकार कार्पोरेशन होंगे जो अपने स्वार्थों के हिसाब से मीडिया का चरित्रा तय करेंगे। अमेरिका और यूरोप में मीडिया उद्योग इस दौर से बहुत पहले गुज़र चुका है और वहां के मीडिया के चरित्रा को देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भारत में उसका भविष्य क्या है। अभी तक भारत में विदेशी पूंजी को मीडिया क्षेत्रा में सौ फ़ीसद निवेश की छूट नहीं है। केवल मनोरंजन चैनलों और वितरण में ऐसा हो सकता है। समाचार के क्षेत्रा में केवल छब्बीस प्रतिशत विदेशी निवेश की ही इजाज़त है। लेकिन पूरी आशंका है कि भारत सरकार आने वाले समय में मीडिया को पूरी तरह से विदेशी पूंजी के लिए खोल देगी। इसका स्वाभाविक परिणाम ये होगा कि मीडिया पर
विदेशी नियंत्राण का रास्ता खुल जायेगा। इससे भारत को अपने हिसाब से चलाने के इच्छुक देशों को
एक नया हथियार मिल जायेगा।
ये बात ध्यान में रखने की है कि मीडिया के बदलते स्वामित्व ने स्वस्थ पत्राकारिता की संभावनाओं को नष्ट कर डाला है। पत्राकारों की स्वायत्तता और स्वतंत्राता लगभग ख़त्म हो चुकी है। अख़बारों और न्यूज़ चैनलों में संपादक नामक संस्था को पूरी तरह से बदल दिया गया है, उन्हें प्रबंधक बना दिया गया है। पत्राकारों के लिए भी अच्छा काम करने की गुंजाइश न के बराबर रह गयी है। अनुबंध पर रखे जाने और आये दिन होने वाली छंटनियों ने उन्हें पूरी तरह से असुरक्षित कर दिया है। उन्हें मज़बूर कर दिया है कि वे स्वामित्व के एजेंडे के लिए ही काम करें। सत्ता प्रतिष्ठान की नीतियों को बेनकाब करने वाली रिपोर्टिंग अब बहुत कम हो गयी है। आर्थिक अपराधों की ओर तो ख़ैर मीडिया देखता ही नहीं है। कुल मिलाकर पूरा वातावरण ऐसा बना दिया गया है जिसमें वही संभव है जो स्वामित्व के हितों को साधता हो।
नया पथ से साभार
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