सुशील उपाध्याय
हिंदी का मेन-स्ट्रीम मीडिया मुख्यतः ‘सत्ता-सापेक्ष‘ है
चुनाव परिणाम और ‘सत्तामुखापेक्षी‘ मीडिया
देश में भाजपा की नहीं, बल्कि क्षेत्रीय दलों की हैसियत बढ़ी है
असम में बुरी हार का शिकार हुई कांग्रेस को भाजपा की तुलना में ढाई लाख वोट ज्यादा ले हैं।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम के वक्त हिंदी मीडिया ने एक बार पुनः इस बात की पुष्टि कर दी कि ‘सत्ता-सापेक्ष’ होना ही उसका ‘सत्य’ है। हिंदी अखबारों और चैनलों ने पाठकों/दर्शकों तक तटस्थ भाव से सूचनाएं पहुंचाने और अंतिम-निष्कर्ष प्रस्तुत करने से बचने जैसी बातों की अनदेखी की। मीडिया के सुर से ऐसा लगा कि भाजपा ने देश को कांग्रेस-मुक्त करने के लक्ष्य को हासिल कर लिया है। जबकि, आंकड़े एकदम अलग दिशा में इशारा कर रहे थे। मीडिया की तटस्थता को परखने के लिहाज से पांच राज्यों के चुनावी आंकड़ों को तीन मानकों पर देख सकते हैं, पहला-
इन पांच राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की सरकार बनी है। असम में भाजपा, बंगाल में तृणमूल, तमिलनाड़ू में अन्नाडीएमके, केरल में वाम मोर्चा और पांडिचेरी में कांग्रेस ने सरकार बनाई है।
दूसरा मानक इन पांच राज्यों में विभिन्न पार्टियों को मिली सीटें हो सकती हैं, जो इस प्रकार है-
तृणमूल को 211
अन्ना डीएमके को 138
कांग्रेस को 115
वाम मोर्चे को 109
डीएमके को 91
भाजपा को 64
तीसरा मानक ये है कि पांचों राज्यों में उपर्युक्त छह प्रमुख पार्टियों को कितने-कितने वोट हासिल हुए। विभिन्न पार्टियों को मिले वोटों की संख्या कई लोगों को हैरत में डाल देगी, क्योंकि हिंदी मीडिया के ‘इंटेंट एंड कंटेंट’, दोनों से ऐसा लगा कि सारे के सारे वोट भाजपा को ही मिल गए हैं।
सबसे ज्यादा वोट तृणमूल को मिले जो कि 245.64 लाख हैं।
इसके बाद कांग्रेस का नंबर है। कांग्रेस ने 197.54 लाख वोट हासिल किए।
तीसरा स्थान अन्नाडीएमके का है। इस पार्टी को 177.10 लाख लोगों ने वोट दिया।
कुल वोटों की संख्या के लिहाज से भाजपा चौथे नंबर पर है। उसे 139 लाख लोगों ने मत दिया।
इसके बाद क्रमशः डीएमके और वाम मोर्चा का नंबर है जिन्होंने क्रमशः 137.40 और 128 लाख वोट पाए हैं।
अब इन आंकड़ों को हिंदी के मुख्यधारा के मीडिया के सुर से मिलाकर देखें तो आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि हिंदी का मेन-स्ट्रीम मीडिया मुख्यतः ‘सत्ता-सापेक्ष मीडिया‘ है। हिंदी के प्रमुख अखबारों के हेडिंग देखने से भी यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि मीडिया किसके पक्ष में अपनी आवाज बुलंद कर रहा है। हिंदी के प्रमुख अखबारों ने जो हेडिंग लगाए वो सीधे तौर पर भाजपा के पक्ष में और कांग्रेस के खिलाफ दिखते हैं, इन हेडिंगों से ऐसा लग रहा है कि भाजपा ने पांच में से ज्यादातर राज्यों को जीत लिया है। हेडिंग देखिए-
भाजपा में सर्वानंद (दैनिक भास्कर)
भाजपा के अच्छे दिन, कांग्रेस को झटका (हिन्दुस्तान)
भरी भाजपा की झोली, कांग्रेस का हाथ खाली (दैनिक जागरण)
असम में पहली बार खिला कमल,……….कांग्रेस का सफाया (अमर उजाला)
भाजपा बढ़ी, कांग्रेस घटी (राजस्थान पत्रिका)
लेफ्ट-राइट में खो गई कांग्रेस (नवभारत टाइम्स)
सामान्य तौर पर मीडिया से यह अपेक्षा की जाती है कि वह तथ्यों को उसी रूप में प्रस्तुत करेगा जैसे कि वे हैं। साथ ही, तथ्यों को अधूरे रूप में प्रस्तुत करने से भी बचेगा क्योंकि ऐसा करने पर उनसे भिन्न अर्थ निकल सकता है। मीडिया का काम लोगों को जागरूक करना और जनमत निर्माण में भूमिका निभाना भी है। लेकिन, क्या मीडिया का काम सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में जनमत निर्माण करना है ? ये सवाल इसलिए उठ रहा है कि 19 और 20 मई को हिंदी चैनलों के प्राइम टाइम की डिबेट मुख्यतः इस बात पर केंद्रित थीं कि किस प्रकार भाजपा पूरे देश में फैल रही है और इस फैलाव में मोदी-शाह की जोड़ी नायक बनकर उभरी है। कुछ चैनलों ने तो अमित शाह को ‘मैन ऑफ द मैच‘ बताया। लेकिन, इन चैनलों के पास ममता, जयललिता वाम नेताओं के लिए विशेषणों का टोटा दिखा।
यह ठीक है कि भाजपा ने एक राज्य जीता है और यह भी सच है कि कांग्रेस ने दो राज्य गंवाये हैं। लेकिन, इससे ऐसा कोई सरलीकृत निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि कांग्रेस समाप्त हो गई है और भाजपा पूरे देश में छा गई है। क्योंकि आंकड़े कुछ और कहते हैं। चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि पांचों राज्यों को मिलाकर कांग्रेस ने भाजपा की तुलना में करीब दोगुनी सीटें पाई हैं और इन राज्यों में भाजपा की तुलना में उसे करीब डेढ़ गुना वोट मिले हैं। फिर वो कौन-से तरीके या पैमाने हैं जिनके आधार पर मीडिया ने भाजपा के उदय और कांग्रेस के खत्म होने का ऐलान कर दिया! बंगाल में तीन और केरल में एक सीट पाकर भी भाजपा की जड़ें गहरी हो गई और कांग्रेस ने दोनों राज्यों में 66 सीटें पाकर भी अपनी जड़ें खो दी!
राजनीतिक निष्कर्ष के लिहाज से पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम काफी उलझे हुए हैं। किसी भी स्तर पर यह साफ नहीं हो रहा है कि कोई एक पार्टी छा जाने की स्थिति में है और दूसरी पार्टी को लोगों ने पूरी तरह नकार दिया है। लेकिन, मीडिया इस बात को स्वीकार करता नहीं दिखता। एबीपी न्यूज, आज तक, इंडिया टीवी, जी न्यूज और यहां तक कि एनडीटीवी भी यह साबित करने में जुटा रहा है कि पूरे देश ने भाजपा के समर्थन में हाथ उठाये हैं। तमाम बुलेटिनों में पहली खबर भाजपा की विजय की थी, इसके बाद कांग्रेस के सफाये के जिक्र था। तीसरी और चौथी खबर के तौर पर तमिलनाड़ू और पश्चिमी बंगाल का जिक्र किया गया। जबकि, तमिलनाड़ू, बंगाल और केरल के परिणाम यह बता रहे हैं कि देश में भाजपा की नहीं, बल्कि क्षेत्रीय दलों की हैसियत बढ़ी है। ये दल किसी न किसी स्तर पर भाजपा और कांग्रेस, दोनों को चुनौती देंगे। चूंकि, उपर्युक्त बात मीडिया के ‘सत्ता-मुखापेक्षी’ हितों के पक्ष में नहीं जाती इसलिए ज्यादातर मामलों में इस मुद्दे पर चुप्पी ही छाई रही।
मीडिया से यह अपेक्षा हमेशा की जाएगी कि वह अच्छे-बुरे सभी तथ्यों को सामने रखे। लेकिन, हिंदी मीडिया ‘चुनिंदा तथ्यों’ को सामने रखने में जुटा रहा। मीडिया के किसी हिस्से में इस बात का उल्लेख नहीं था कि असम में बुरी हार का शिकार हुई कांग्रेस को भाजपा की तुलना में ढाई लाख वोट ज्यादा मिले हैं। इस बात का भी उल्लेख नहीं था कि तमिलनाड़ू में पिछले लोकसभा चुनाव में जिस भाजपा गठजोड़ को करीब 18 प्रतिशत वोट मिले थे, वो भाजपा 3 प्रतिशत से भी नीचे आ गई। मीडिया ने बंगाल में भाजपा की सीटें घटने और कांग्रेस की सीटें बढ़ने का उल्लेख भी न के बराबर उल्लेख। मीडिया को यह सवाल भी उठाना चाहिए था कि जिस वाम-विचार के खात्मे का ऐलान किया जा रहा था, वह केरल में कैसे जीत गया। जबकि, पांचों राज्यों को मिलाकर देखें तो वामपंथी पार्टियों को भाजपा की तुलना में डेढ़ गुना ज्यादा सीटें मिली हैं। यह बात अब लगातार साबित हो रही है कि मीडिया ऐसे सवालों को उठने से गुरेज करता है जो सत्ता को चुभते हों। टीवी पर आने वाले ‘स्वतंत्र विचारक’ सत्ताधारी पार्टी के प्रति नरम विचार व्यक्त हैं, जबकि कुछ समय पहले तक इनमें से ज्यादातर के ऐसे ही नरम विचार कांग्रेस को लेकर थे।
चुनाव परिणाम की कवरेज की दृष्टि से हिंदी अखबारों और हिंदी चैनलों के ‘टोन’ को मोटे तौर पर तीन हिस्सों में विभाजित करके देख सकते हैं-भाजपा के प्रदर्शन की यथासंभव प्रशंसा, कांग्रेस की विफलता के प्रचार पर फोकस, वामपंथियों की अनदेखी! मीडिया का यह रुख किसी भी स्तर पर अच्छे दिनों की ओर संकेत नहीं करता।
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