बुधवार, 29 जुलाई 2015

मैं भी चोर तूँ भी चोर

मैं भी चोर तूँ भी चोर

बन्दर चोर ,  मदारी चोर
बाबू और अधिकारी चोर
दफ्तर ये सरकारी चोर
मैं भी चोर तूँ भी चोर
फेर काहे मोदी का शोर

मुल्ला चोर , पुजारी चोर
राजा चोर , भिखारी चोर
बिकाऊ पत्रकार अखबारी चोर
मैं भी चोर तूँ भी चोर
फेर काहे मोदी का शोर

नेता चोर , अभिनेता चोर
क्रेता और विक्रेता चोर
बड़े -बड़े विजेता चोर
मैं भी चोर तूँ भी चोर
फेर काहे मोदी का शोर

जीजा चोर , साले चोर
कालेधन के काले चोर
बड़े - बड़े दिलवाले चोर
मैं भी चोर तूँ भी चोर
फेर काहे मोदी का शोर

डाक्टर चोर इंजीनियर चोर
जूनियर और सीनियर चोर
मिड- डे- मिल के टीचर चोर
मैं भी चोर तूँ भी चोर
फेर काहे मोदी का शोर

लौंडा चोर , डोकर चोर
सर्कस करता जोकर चोर
चिड़ियाघर का नौकर चोर
मैं भी चोर तूँ भी चोर
फेर काहे मोदी का शोर
आँखों वाला अँधा चोर
कपडा पहने नंगा चोर
दाढ़ी टोपी बंदा चोर
मैं भी चोर तूँ भी चोर
फेर काहे मोदी का शोर

जज चोर, दीवान चोर
जिले का कप्तान चोर
कमिश्नर की कमान चोर
मैं भी चोर तूँ भी चोर
फेर काहे मोदी का शोर

खाला चोर, आपा चोर
आतंकवाद के आका चोर
गेरूआ पहने बाबा चोर
मैं भी चोर तूँ भी चोर
फेर काहे मोदी का शोर

कवि चोर शायर चोर
योद्धा चोर,कायर चोर
ख्यातिबद्ध हैं लायर चोर
मैं भी चोर तूँ भी चोर
फेर काहे मोदी का शोर

संता चोर, बंता  चोर
दो नंबर का धंधा चोर
अच्छे दिन का डंका चोर
मैं भी चोर तूँ भी चोर
फेर काहे मोदी का शोर

छोटे चोर, बड़े चोर
वर्दी पहने खड़े चोर
आपस में खूब लड़े चोर
मैं भी चोर तूँ भी चोर
फेर काहे मोदी का शोर


आदिल सरफरोश
फर्रूखाबाद
साभार
हाशिये की आवाज
अगस्त , 2015





















मोदी, आतंकवाद और भारतीय मुसलमान

Posted: 28 Jul 2015 10:17 AM PDT
अपनी अमरीका यात्रा के ठीक पहले, अन्तर्राष्ट्रीय समाचार चैनल सीएनएन के फरीद ज़कारिया को दिए अपने एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि भारत के मुसलमान, भारत के लिए जियेगें और मरेंगे और वे भारत का कुछ भी बुरा नहीं करेंगे। इसके बाद, गत 8 जुलाई को, कजाकिस्तान में एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने मध्य एशिया और भारत की साँझा इस्लामिक विरासत की चर्चा की और कहा कि यह विरासत, अतिवादी ताकतों और विचारों को हमेशा खारिज करेगी। प्रधानमंत्री ने फरमाया कि भारत और मध्य एशिया, दोनों की इस्लामिक विरासत प्रेम और समर्पण के सिद्धांतों पर आधारित और इस्लाम के उच्चतम आदर्शों  ज्ञान, पवित्रता, करुणा और कल्याण से प्रेरित है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी यह दावा किया कि भारतीय मुसलमान देशभक्त हैं और इस्लामिक स्टेट (आईएस) उन्हें आकर्षित नहीं कर सका है।
इन्हीं मोदी ने सन 2001 में दावा किया था कि ‘‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते परन्तु सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं’’। गुजरात के मुख्यमंत्री बतौर अपने चुनाव अभियानों में उन्होंने इस जुमले का जमकर इस्तेमाल किया था। सन 2002 के मुसलमानों के कत्लेआम के बाद, गुजरात का मीडिया मुस्लिम और इस्लाम विरोधी उन्माद भड़काने में लगा था। मोदी ने इस उन्माद को कम करने की कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने काफी बाद में ‘‘सद्भावना उपवास’’ रखे परन्तु यह कहना मुश्किल है कि वे कितनी ईमानदारी और निष्ठा से उपवास कर रहे थे। मोदी ने दंगाईयों की वहशियाना हिंसा को औचित्यपूर्ण ठहराया था। उनके अनुसार, दंगे, साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में आगजनी की घटना - जिसे उन्होंने किसी भी जांच के पहले ही मुसलमानों का षड़यंत्र निरुपित कर दिया था - की प्रतिक्रिया थे।
गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के बाद, मोदी ने ‘गुजरात के गौरव’ को पुनस्र्थापित करने के लिए ‘गौरव यात्रा’ निकाली थी। उनका कहना था कि धर्मनिरपेक्षतावादियों द्वारा 2002 के दंगों के लिए सभी गुजरातियों को दोषी ठहराने से गुजरात के गौरव को चोट पहुँची है। मोदी के मुख्यमंत्रित्वकाल में, गुजरात की पुलिस ने अनेक मुसलमानों को सीमा के उस पार के आतंकी संगठनों से जुड़े आतंकवादी बताकर गोलियों से भून डाला था। सोहराबुद्दीन और इशरत जहां की हत्या की जांच हुई और इस मामले में गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह सहित कई पुलिस अधिकारी आरोपी बनाये गए।
प्रधानमंत्री मोदी यह स्पष्ट नहीं कर रहे हैं कि भारतीय मुसलमानों के उनके अलग-अलग, बल्कि
विरोधाभासी आंकलनों में से किसे वे सही मानते हैं। उनकी मुसलमानों के बारे में असली, ईमानदार राय क्या है? या, क्या उनकी सोच बदल गयी है? यदि हाँ, तो उन्हें ऐसी कौनसी नई जानकारी प्राप्त हुई है, जिसके चलते उनकी सोच में परिवर्तन आया है?
केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने पुलिस महानिदेशकों, महानिरीक्षकों और केंद्रीय पुलिस संगठनों के मुखियाओं के सम्मेलन को संबोधित करते हुए नवंबर 2014 में कहा था कि आईएस, भारतीय उपमहाद्वीप में पैर जमाने की कोशिश  कर रही है और अलकायदा ने गुजरात, असम, बिहार, जम्मू कश्मीर व बांग्लादेश  की बड़ी मुस्लिम आबादी को देखते हुए, भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी शाखा स्थापित कर दी है।
भारतीय मुसलमान और आतंकवाद
उपरलिखित प्रश्नों के उत्तर चाहे जों हों, इसमें कोई संदेह नहीं कि वैष्विक आतंकी नेटवर्कों में भारतीय मुसलमानों की उपस्थिति और भागीदारी बहुत कम है। भारत में 14 करोड़ मुसलमान रहते हैं। दुनिया में इंडोनेशिया को छोड़कर इतनी संख्या में मुसलमान किसी अन्य देश में नहीं रहते। इसके बावजूद, भारतीय सुरक्षाबल और गुप्तचर एजेंसियां अब तक केवल चार ऐसे भारतीय मुस्लिम युवाओं की पहचान कर सकी हैं, जिन्होंने आईएस के स्वनियुक्त इस्लामिक खलीफा अबुबकर बगदादी द्वारा शुरू किए गए युद्ध में हिस्सा लिया है। ये चार युवक हैं अरीब मज़ीद, शाहीन तनकी, फरहाद शेख और अमन टण्डेल।
इन चार युवकों के अतिरिक्त, समाचारपत्रों की खबरों के अनुसार, बैंगलुरू में रहने वाले, भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनी के एक 24 वर्षीय कर्मचारी मेंहदी मसरूर बिस्वास पर आरोप है कि वह अपने ट्विटर हैंडल के जरिए, आईएस के आतंकी मिशन का प्रचार कर रहा था और बगदादी के नेतृत्व वाली सेना में भर्ती होने के लिए युवकों को प्रेरित कर रहा था। मंेहदी को चैनल 4 को दिए गए उसके एक साक्षात्कार केे आधार पर पकड़ा गया।
अब इसकी तुलना 90 देशों के 20,000 विदेशियों से कीजिए, जो बगदादी की सेना में भर्ती हुए हैं। नेषनल काउंटर टेरोरिज्म सेंटर के निदेशक निकोलस रासम्यूसेन के अनुसार, इनमें से 3,400पश्चिमी  राष्ट्रों से हैं। अमेरिका की नेशनल इंटेलिजेंस के निदेशक जेम्स क्लेपर के अनुसार, इनमें 180 अमेरिकी, 130 केनेडियन, 1200 फ्रांसीसी, 600 ब्रिटिश, 50 आस्ट्रेलियाई और 600 जर्मन शामिल हैं। इसके मुकाबले, भारत से मात्र चार और बांग्लादेश से मात्र 6 लोगों को आईएस का युद्ध लड़ने का दोषी पाया गया है। 
वैष्विक आतंकी संगठनोें में क्यों शामिल नहीं होते भारतीय?
हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों ने कभी इस प्रश्न  पर विचार नहीं किया कि आखिर क्या कारण है कि भारत के 14 करोड़ मुसलमानों में से आईएस में केवल चार भर्ती हुए। इस प्रश्न पर विचार करने की बजाए, वे यह आरोप लगाने में जुटे रहते हैं कि सभी मुसलमान आतंकवादी हैं। भारतीय मुसलमान देषभक्त हैं और भारत के हितों के खिलाफ नहीं जाएंगे, ये बातें मूलतः मुस्लिम-बहुल देशों की यात्राओं के दौरान कहीं गईं या विदेशी मीडिया से बातचीत में। और इनका उद्धेष्य अपनी ेउदारवादी छवि प्रस्तुत करना था।
जो भी हो, मूल प्रश्न यह है कि भारतीय मुसलमान, वैष्विक आतंकी संगठनों की ओर आकर्षित क्यों नहीं हुए? आईए, हम कुछ संभावित कारणों की चर्चा करें।
1.    भारतीय मुसलमानों का धार्मिक नेतृत्व मुख्यतः दारूल उलूम देवबंद और कुछ अन्य मदरसों जैसे नदवातुल उलेमा, लखनऊ से आता है। दारूल उलूम देवबंद का देश भर में फैले हजारों छोटे मदरसों और मकतबों पर नियंत्रण है। देवबंद के उलेमाओं के संगठन जमायत उलेमा-ए-हिन्द ने दिल्ली के रामलीला मैदान में हजारों मौलवियों और विद्यार्थियों की मौजूदगी में आतंकवाद के विरूद्ध फतवा जारी किया था। उन्होंने आतंकवाद को जड़मूल से उखाड़ फेंकने की शपथ भी ली थी। दारूल उलूम के रेक्टर हबीबुर रहमान के अनुसार, ‘‘इस्लाम हर तरह की अन्यायपूर्ण हिंसा, शान्ति भंग, खून खराबा, हत्या और लूटपाट का निषेध करता है और किसी भी स्वरूप में इनकी अनुमति नहीं देता।‘‘ जमायत ने लखनऊ, अहमदाबाद, हैदराबाद, कानपुर, सूरत, वाराणसी और कोलकाता में मदरसों के संचालकों की बैठकें और सम्मेलन आयोजित कर अपने आतंकवाद विरोधी संदेश  को उन तक पहुंचाया। जमायत ने एक ट्रेन बुक की, जिसमें उसके सदस्य और समर्थक देश भर में घूमे और शांति  और आतंकवाद-विरोध का संदेश फैलाया।
2.    इस्लाम, भारत में मुख्यतः शांतिपूर्ण ढंग से फैला है। भारत में इस्लाम पहली बार 7वीं सदी में केरल के तट पर अरब व्यवसायियों के साथ पहुंचा। इसका नतीजा यह है कि मुसलमान आज भी स्थानीय परंपराओें का पालन करते हैं औेर स्थानीय संस्कृति में घुलेमिले है। उनकी व गैर मुस्लिमों की सांस्कृतिक विरासत एक ही है। उदाहरणार्थ, लक्षद्वीप के मुसलमान मातृवंषी परंपरा का पालन करते हैं और केरल के मुसलमानों के लिए ओणम उतना ही बड़ा त्यौहार है, जितना कि गैर मुसलमानों के लिए। अमीर खुसरो ने होली पर रचनाएं लिखी हैं, मौलाना हसरत मोहानी नियमित रूप से मथुरा जाते थे और उन्हंे भगवान कृष्ण से बेइंतहा प्रेम था। रसखान ने भगवान कृष्ण पर कविताएं रची हैं, बिस्मिल्ला खान की शहनाई भगवान शिव को समर्पित थी और दारा शिकोह ने उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया था। ये हमारे देश की सांझा सांस्कृतिक परंपराओं के कुछ उदाहरण हैं, जिन्हें समाप्त करने की असफल कोशिश अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक आधार पर देश को विभाजित कर की।
    भारत में इस्लाम के प्रभाव में वृद्धि मुख्यतः समावेशी  सूफी परंपराओं के कारण हुई, जिनकी ओर समाज के वंचित और हाशिए पर पड़े वर्ग सबसे अधिक आकर्षित हुए। सूफी (और भक्ति) संतों का मूलधर्म प्रेम था। वह्दतुलबूजूद (संसार में केवल एक ईश्वर है) और सुल्हकुल (पूर्ण शांति ) - ये सूफी परंपरा के मूल सिद्धांत थे। सूफी केवल ब्राह्यशांति की बात नहीं करते बल्कि अंतर्मन की शांति पर भी जोर देते थे। निजामुद्दीन औलिया रोज सुबह राम और कृष्ण के भजन गाया करते थे।
    कई नगरों और गांवों में ताजियों के जुलूस के दौरान हिन्दू महिलाएं आरती उतारती हैं। इस तरह की सांझा सांस्कृतिक जड़ों के चलते, भारतीय मुसलमानों के दिमागों में जेहाद का जहर भरना नामुमकिन नहीं तो बहुत मुष्किल जरूर है।  भारतीय मुस्लिम चेतना पर सूफी मूल्यों का गहरा प्रभाव है। एक आम भारतीय मुसलमान, अरब और दूसरे देषों के मुसलमानों की संस्कृति और अपनी संस्कृति में कुछ भी समानता नहीं पाता। वहाबी-सलाफी इस्लामिक परंपराओं को ‘‘सही परंपराएं‘‘ सिखाने के नाम पर फैलाने के लिए काफी संसाधन खर्च किए गए और गहन प्रयास हुए परंतु ये परंपराएं आज भी बहुत सीमित क्षेत्र में प्रभावी हैं। अलबत्ता हिन्दू राष्ट्रवादियों और उनके विमर्ष के मजबूत होते जाने से भारतीय मुसलमानों के अरबीकरण की प्रक्रिया शुरू हो सकती है।
    इसके विपरीत, कुछ पष्चिमी देशों में मुसलमानों में अलगाव का गहरा भाव है। उनमें से अधिकांश  एशियाई मूल के हैं और पष्चिमी संस्कृति में घुलमिल नहीं पाते। एशियाई मूल के लोग अपने समुदायों के बीच रहना पसंद करते हैं। युवाओं का सांस्कृतिक अलगाव, ‘सभ्यताओं के टकराव‘‘ के सिद्धांत के वशीभूत नस्लवादी शक्तियों द्वारा इस्लाम को निशाना बनाए जाने व ईराक और अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध में पष्चिमी सेनाओं की भागीदारी के कारण, इस्लामवादियों के लिए अपनी सेना में पष्चिमी देशों के युवकों को भर्ती करना अपेक्षाकृत आसान है।
3.     भारतीय मुसलमानों द्वारा की गई आतंकी गतिविधियों के लिए मुख्यतः प्रतिशोध की भावना जिम्मेदार है। 12 व 18 मार्च 1993 को मुंबई के झवेरी बाजार व अन्य स्थानों पर बम हमले, 28 जुलाई 2003 को इसी शहर के घाटकोपर में बेस्ट बस में बम धमाके और 11 जुलाई 2006 को लोकल ट्रेनों में हुए बम धमाके, वे कुछ आतंकी घटनाएं हैं जिनमें मुस्लिम युवक शामिल थे। परंतु इनमें से अधिकांश का उद्धेष्य मुंबई में 1992-93 के दंगों और सन्  2002 के गुजरात कत्लेआम का बदला लेना था। दिनांक 12 मार्च 1993 के बम धमाकों के  दोषी पाए गए कई आरोपियों ने मुकदमे के दौरान अपने बयानों में बताया कि उन्होने इस षड़यंत्र में हिस्सा इसलिए लिया था क्योंकि उन्होंने मुंबई में 1992-93 के दंगों में अपने प्रियजनों को मरते देखा था। न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण आयोग ने अपनी रपट (1998) में साम्प्रदायिक दंगों और बम धमाकों के परस्पर संबंध को इन शब्दों में व्यक्त किया था, ‘‘सिलसिलेवार बम धमाके, अयोध्या व बंबई के दिसंबर 1992 व जनवरी 1993 के घटनाक्रम की प्रतिक्रिया थे।‘‘  मुस्लिम युवकों के गुस्से और निराशा के भाव का कुछ पाकिस्तानी एजेसिंयों ने दुरूपयोग किया।
    परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि कई अन्य मुस्लिम देशों की तुलना में, भारतीय प्रजातंत्र बहुत बेहतर ढंग से काम कर रहा है। यद्यपि न्यायप्रणाली धीमी गति से काम करती है परंतु तीस्ता सीतलवाड जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के अथक प्रयासों से गुजरात दंगों के पीडि़तों को न्याय मिला है। कुछ अपराधियों को अदालतों ने सजा सुनाई हैं और वे अब जेल में हैं। इशरत जहां और सोहराबुद्दीन मामलों के आरोपियों पर मुकदमे चल रहे हैं। मानवाधिकार संगठनों के कड़े रूख के चलते, सुरक्षा बलों द्वारा फर्जी मुठभेड़ों में निर्दोषों को मार गिराने की घटनाओं में तेजी से कमी आई है। चूंकि भारत में पीडि़तों को न्याय मिलने की उम्मीद रहती है इसलिए वे प्रतिशोध की आग में नहीं जलते और यही कारण है कि आईएस को यहां से अपनी सेना के लिए लड़ाके नहीं मिल पा रहे हैं।
    यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए प्रजातांत्रिक स्पेस घटता जा रहा है। हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों को लग रहा है कि अब सैयां कोतवाल हो गए हैं और इसलिए वे बिना हिचक के मुसलमानों पर बेसिरपैर के आरोप लगा रहे हैं, उनका मताधिकार छीनने की मांग कर रहे हैं, उन्हें पाकिस्तान जाने को कह रहे हैं और मदरसों को आतंकवाद के अड्डे बता रहे हैं। अगर यही कुछ चलता रहा तो मुसलमानों को आईएस और अन्य आतंकवादी संगठनों के चंगुल से लंबे समय तक दूर रखना संभव नहीं होगा।
-इरफान इंजीनियर
 

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

कॉर्पोरेट के मुनाफे

कॉर्पोरेट के मुनाफे के खुदा के सामने मजदूर को जिबह किया जा रहा है.- सत्यकी रॉय

एक साल बुरा हाल कॉर्पोरेट के मुनाफे के खुदा के सामने मजदूर को जिबह किया जा रहा है. सत्यकी रॉय मोदी सरकार श्रम सुधारों को लागू करने के लिए बहुत उत्सुक दिखाई दे रही है क्योंकि उद्योगपतियों की तरफ से इसकी मांग काफी लम्बे अर्शे की जा रही है. अक्तूबर 2014 में प्रधानमंत्री ने भारत में बनाओ नारे की रौशनी में श्रम के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा श्रम से जुड़े मुद्दों को मजदूरों के नजरिये से देखने की जरूरत है बजाय मालिकों के. हालांकि तथाकथित श्र्मयोगी के नारे के पीछे वास्तविक चिंता भारत में मजदूरों की भयावह हालत को संबोंधित करना नहीं था. बल्कि इसका इस्तेमाल तो ‘इंडिया इंक’ को संतुष्ट करना था जो उनके प्रति दृढ़ सरकार के समय में अपना बेहतर वक्त की उम्मीद लगाए बैठे हैं. जैसा कि देश में बहुमत श्रम शक्ति बिना किसिस काम के बैठी है इसलिए वह अतिरिक्त श्रम का फायदा उठाने की जुगत में हैं; लोग कम मजदूरी में गैर-मानवीय हालातों में काम करने को तैयार हैं. इसलिए भारत के नीचे के स्तर पर रहने की दौड़ जीतने के लिए एक आदर्श उम्मीदवार है. भारत में श्रम सुधारों का मतलब है मजदूर वर्ग के संस्थागत और कानूनी अधिकारों का सत्यानाश करना और दुनिया को बताना कि निरंकुश मुनाफा कमाने के लिए हमारा देश सबसे बेहतरीन जगह है. पहला कदम लघु कारखाना (रोजगार और ससेवाओं की अन्य हालातों का विनियमन) कानून, 2014 को पेश करना था. जिन कारखानों में 40 मजदूर तक काम करते हैं यह कानून उन्हें 16 श्रम कानूनों की पकड़ा से बाहर कर देता है जैसे फैक्ट्री एक्ट, औद्योगिक विवाद अधिनियम, ईएसआई अधिनियम औरमातृत्व लाभ अधिनियम आदि. फैक्ट्री एक्ट हाल ही में बधाई गयी श्रमिकों की संख्या (बिजली के साथ) 10 से 20 और 20 से 40 (बिना बिजली के) पर ही लागू होगा. इसका मतलाब यह है कि करीब 12.6 लाख मजदूर संगठित विनिर्माण क्षेत्र में जो कि भारत की कुल फेक्टारियों की संख्या के 65 प्रतिशत हिस्से में काम करते हैं और जिनमे 40 मजदूर से कम काम करते हैं वे फेक्टरी एक्ट के मुताबिक़ श्रम कानूनों के दायरे में नहीं आयेंगे. औद्योगिक विवाद अधिनियम के अनुसार अब तक जिन फेक्टरियों में 100 मजदूर काम कर रहे हैं उन्हें छटनी से पहले सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी. इस कानून के तहत अब यह सीमा 100 मजदूरों से 300 मजदूर कर दी गयी है. ये सुझाव दर्शाते हैं कि इन बदलावों से भारत की 93 प्रतिशत फेक्टारियों में बिना सरकार की अनुमति के मजदूरों की छटनी की जा सकती है. ठेका श्रम अधिनियम में संसोधन के अनुसार अब निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में जो मजदूर श्रम कानून के दायरे में आयेंगे उनकी संख्या भे 20 से बढ़ाकर 50 कर दी गयी है. सरकार 'व्यापार करने में आसानी' की रफ़्तार को बढाने के लिए श्रम कानूनों पर व उसके कार्यान्वयन की निगरानी में ढील देना चाहती है. जब श्रम कानूनों की धज्जिया उड़ाने से मुनाफ़ा बढ़ता है कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि वे कारखाना मालिक खुद श्रम कानूनों के कार्यान्वयन पर ध्यान रखेंगे? लेकिन सरकार रिटर्न और रजिस्टरों के स्वरूपों को सरल बनाने के नाम पर उन्हें 16 बड़े श्रम कानूनों को लागू करने से बचा रही है. उद्योग इस तरह की आजादी का खवाब बड़े लम्बे समय से देख रहे हैं और मोदी सरकार भारतीय कंपनियों की साख पर निर्भर करती है! दुनिया में भारत में 14 वर्ष से कम आयु वाले सबसे ज्यादा बाल मजदूर है. ये बाल मजदूर कृषि, लघु कार्यशाला, सड़कों पर कूड़ा बीनने, कुली, गलियों में सामान बेचने वाले व्यवसायों में काम करने के साथ-साथ खतरनाक उद्योगों जैसे शीशा बनाने वाले उद्योग, खदानों, भवन निर्माण, कालीन बनाने, जरी बनाने तथा पटाखे बनाने जैसे उद्योगों में काम करते हैं. सरकार द्वारा प्रस्तावित बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) संशोधन विधेयक के जरिए बाल श्रम अधिनियम, 1986 को संसोधित करना चाहती है. यह प्रस्तावित विधेयक यद्दपि 14 वर्ष से नीचे के बच्चों के लिए बाल श्रम पूरी तरह प्रतिबन्ध लगाने का प्रस्ताव करता है वहीँ यह कानून उन बच्चों की इजाज़त देता है कि स्कूल के बाद के समय में वे अपने परिवार की साहयता के लिए काम कर सकते हैं.इस प्रावधान से वास्तव में अनुबंधित आधार पर घर में बाल श्रम रोजगार और उसे बाहर आउटसोर्स करना आसान होगा। भारत में एक बच्चे की कानूनी परिभाषा के बारे में कई व्याख्याएं मौजूद हैं. बाल श्रम कानून के मुताबिक़ 14 वर्ष के कम आयु वाला बालक है. बच्चों के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र की कन्वेंशन के अनुसार वह व्यक्ति बालक है जिसकी आयु 18 वर्ष से कम है. प्रस्तावित विधेयक 'किशोर' जैसे टर्म का जिक्र करता है और इसका मतलब है वह व्यक्ति जिसकी उम्र 14 व 18 वर्ष के बीच में है. बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के अनुसार बालक वह व्यक्ति है जिसने 18 वर्ष की उम्र हाशिल नहीं की है. विधेयक किशोरों को खतरनाक व्यवसायों जैसे खदान, जव्लान्शीन पदार्थ या विस्फोटक पदार्थों से जुड़े व्यवसायों में काम करने की अनुमति नहीं देता है जैसा कि अनुसूची में परिभाषित किया गया है. अन्य शब्दों में 14 से 18 साल के बच्चों को गैर खतरनाक उद्योगों में काम करने की अनुमति देता है जो कि संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का उल्लंघन है और यह कानून इसकी भी कमियां छोड़ देता है कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को घरेलू इकाइयों में बिना रोक-टोक के काम करें. विधेयक हालांकि बाल श्रमिकों के पुनर्वास के प्रावधान के बारे में चुप है और 14 से 18 वर्ष के बाल श्रम के काम करने से उठे विवाद और उनकी काम करने के हालातों पर चर्चा के मामले में शांत है. माध्यम कार्ग के विचार तंत्र में श्रम कानूनों पर चर्चा नहीं होती है. बड़े पैमाने पर समाज में स्पष्ट चुप्पी शायद नव-उदारवादी शासन द्वारा और अपनी सांस्कृतिक मशीन के जरिए लगता है इन सुधारों के लिए एक सामाजिक मंजूरी का काम कर रही है. लेकिन सुधारों के प्रति इतनी प्रतिबद्धता वैचारिक ज्यादा है बजाये इसके कि अक्सर तर्क दिया जाता है कि तत्काल उद्देश्य की आवश्यकता के लिए है. सरकार सुधारों को बढ़ावा इसलिए दे रही है ताकि श्रम बाजार में मौजूदा 'कठोरता' को कम किया जा सके. लेकिन वास्तविकता में श्रम बाज़ार कितना ‘कठोर’ है? अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार व्यक्तियों के अनुपात में अनौपचारिक रोजगार में कार्यरत (जिसमें अनौपचारिक और औपचारिक क्षेत्र शामिल है) 2009-10 में गैर कृषि क्षेत्र एमिन इनकी संख्या 83.6 प्रतिशत थी जोकि चीन के (32.6%) , ब्राज़ील (42.2%) से ज्यादा है. इसका मतलब साफ़ है कि भारत में बहुमत मजदूर श्रम कानूनों के दायरे से बाहर हैं. अगर हम कृषि को सिमें शामिल कर ले तो करीब 93 प्रतिशत मजदूर उनके काम के लिए काननों सहायता से बाहर हैं. दुसरे, फेक्टरी खंड में (जोकि फेक्टरी एक्ट १९४८ में आते हैं,) या उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के अनुसार श्रमिकों की औसत की हिस्सेदारी कुल श्रमिकों का लगभग एक तिहाई है. इसलिए भी औपचारिक क्षेत्र में श्रमिकों के एक तिहाई हिस्से को मालिकों ने उन कानूनी हकों से दूर कर दिया है जो स्थायी मजदूरों पर लागू होते हैं. आखिर वह औसत श्रम लागत क्या है जिसे मालिकान ओर नीचे गिराना चाहते हैं? उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के डेटा के अनुसार 2012-13 में वेतन और अन्य सुविधाओं का औसत बहुत ही कम 2.17 प्रतिशत के स्तर पर था. क्या हम विश्विक स्तर पर प्रतियोगिता करने के लिए इसे और ज्यादा नीचे लाना चाहते हैं? 1980 के दशक में विनिर्माण उद्योग में पूरे मूल्य को जोड़ने के बाद(उत्पादन करने के अलावा) वेतन का औसत 26 प्रतिशत था और इस दशक के आधे में आते-आते यह 10 प्रतिशत रह गया और उसी समय में मुनाफा 5.3 प्रतिशत से बढ़कर 21.3 प्रतिशत हो गया. ये आंकड़े निश्चित रूप से साबित करते हैं कि वर्षों से श्रम द्वारा कमाए गए धन के महत्वपूर्ण हिस्से को उसने खो दिया है. इस परिवेश में शायद ही तर्कसंगत है कि श्रम सुधारों की दिशा में सरकार द्वारा अथक प्रयास 'उच्च'मजदूरी को नीचे लाने के उद्देश्य की आवश्यकता का कुछ लेना-देना है. यह तो लालची पूंजीपतियों के लिए सरकार नंगी सेवा है ताकि वे श्रम प्रक्रिया पर नियंतार्ण कर सके

एक साल बुरा हाल

एक साल बुरा हाल - भाजपा सरकार का खतरनाक एजेंडा सामने आया किसानों को खेती से खदेडऩे का खेल

एक साल बुरा हाल - भाजपा सरकार का खतरनाक एजेंडा सामने आया
किसानों को खेती से खदेडऩे का खेल
- वीजू कृष्णन
भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में इसका वादा किया गया था और खुद नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि भाजपा की सरकार किसानों के ‘अच्छे दिन’ लाएगी और किसानों की आत्महत्याएं खत्म कराएगी। वादा किया गया था कि भाजपा की सरकार खेती के लिए तथा ग्रामीण विकास के लिए सार्वजनिक निवेश बढ़ाएगी, किसानों के लिए उत्पादन लागत के ऊपर से 50 फीसद दिलाकर खेती की लाभकरता बढ़ाने के लिए कदम उठाएगी, खेती की लागत सामग्री व ऋण सस्ते मुहैया कराएगी, खेती में आधुनिकतम प्रौद्योगिकियां तथा ज्यादा पैदावार देने वाले बीज लाएगी, मनरेगा को खेती से जोड़ेगी, अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदाओं से फसल के नुकसान की भरपाई करने के लिए फसल बीमा लागू करेगी, ग्रामीण ऋण सुविधाओं का विस्तार करेगी, किसानों को विश्व बाजार में कीमतों में बहुत भारी-उतार चढ़ावोंं से बचाने के लिए मूल्य स्थिरीकरण कोष कायम करेगी, आदि आदि।
वादे और कठोर सचाई
          भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में यह वादा भी किया गया था कि ‘‘भाजपा, राष्टï्रीय भूमि उपयोग नीति अपनाएगी, जो अनुपजाऊ जमीन के वैज्ञानिक अधिग्रहण तथा उसके विकास को देखेगी, किसानों के हितों की रक्षा करेगी और खाद्य उत्पादन के लक्ष्यों को तथा देश के आर्थिक लक्ष्यों को ध्यान में रखेगी।’’ 60 वर्ष से अधिक आयु के किसानों के लिए कल्याणकारी कदमों का और छोटे व सीमांत किसानों व खेत मजदूरों के लिए कल्यणकारी कदमों का भी भरोसा दिलाया गया था। भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में और नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषणों में शब्दश: भारतीय किसानों की ‘‘मन की बात’’ को सूचीबद्घ ही किया जा रहा था। किसान इससे ज्यादा और मांग भी क्या सकते थे?
          मोदी के नेतृत्ववाली भाजपा सरकार के राज में खेती का संकट और बढ़ गया है। खेती की वृद्घि दर में भारी गिरावट हुई है और यह दर 2014 के 3.7 फीसद से घटकर, सिर्फ 1.1 फीसद पर आ गयी है। 2014 के दिसंबर में, जब मोदी सरकार के छ: महीने ही हुए थे, मध्यावधि आकलन में किसानों की आत्महत्याओं में 26 फीसद बढ़ोतरी हुई थी। भाजपा शासित महाराष्टï्र में यह बढ़ोतरी 40 फीसद थी। 2014 के अगस्त से 2015 के बीच किसान आत्महत्याओं का आंकड़ा तेजी से बढक़र 1,373 पर पहुुंच गया। बेमौसमी बारिश और ओलावृष्टिï से देश भर में करीब 2 करोड़ हैक्टेयर में खड़ी फसलों का भारी नुकसान होने और सरकार के इस संकट के प्रति उदासीन बने रहने के चलते, किसानों की आत्महत्याओं में और तेजी आयी है। हरियाणा, पंजाब, गुजरात, प0 बंगाल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी अभूतपूर्व पैमाने पर किसान आत्महत्याएं हुई हैं। हरियाणा में ही 2015 के अप्रैल के बाद से 60 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। बजाए इसके कि इन मुसीबत के मारे किसानों के परिवारों की तकलीफों को दूर किया जाता, उन्हें असरदार तरीके से मुआवजा दिया जाता और किसानों के बीच भरोसा पैदा करने के लिए फौरन कदम उठाए जाते, हरियाणा की भाजपायी सरकार के कृषि मंत्री ने घोर असहिष्णुतापूर्ण टिप्पणी करते हुए, हताशा में आत्महत्या करने वाले किसानों को ‘‘कायर’’ और ‘‘अपराधी’’ ही करार दे दिया। महाराष्टï्र में भी भाजपा के मंत्रियों ने ऐसी ही असंवेदनशील टिप्पणियां की थीं। केंद्रीय कृषि मंंत्री ने संसद में यह दावा किया किया था कि हरियाणा में एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है। भाजपा की सरकार की तरह की आपराधिक नकार की मुद्रा ही अपनाए हुए है और न सचाई को स्वीकार कर रही है और न इस सिलसिले में कुछ भी कर रही है।
 
किस का साथ किस का विकास
          अपने चुनाव प्रचार अभियान के भाषणों में मोदी का सबसे ज्यादा जोर इस पर था कि उत्पादन लागत के ऊपर से कम से कम 50 फीसद अतिरिक्त दिलाने के जरिए, किसानों के लिए लाभकरता बढ़ाायी जाएगी। मोदी सरकार ने सबसे बड़ा धोखा इसी मामले में किया है। भाजपा की सरकार ने गेहूं तथा धान के दाम में सिर्फ 50 रु0 प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की है और ज्यादातर दूसरी पैदावारों के मामले में तो न्यूनतम समर्थन मूल्य में कोई बढ़ोतरी ही नहीं की है। 20 फरवरी 2015 को इस भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह कहा था कि किसानों को उत्पादन लागत पर 50 फीसद अतिरिक्त देना संभव ही नहीं है। इसके ऊपर से लागत सामग्री के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं और भाजपा की सरकार ने उनके दाम पर नियंत्रण रखने के लिए कुछ किया ही नहीं है।
          इस तरह खेती की पैदावार के दाम तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य अलाभकर ही बने हुए हैं और उनसे खेती की लागत तक पूरी नहीं होती है। इसके ऊपर से सरकारी खरीद की व्यवस्था को तेजी से ध्वस्त किया जा रहा है और निजी खिलाडिय़ों को मुसीबत के मारे किसानों का शोषण करने का मौका  दिया जा रहा है। कटे पर नमक छिडक़ने वाली बात यह कि भाजपा की केंद्र सरकार ने यह फरमान भी जारी कर दिया है कि कोई भी राज्य गेहूं या धान के लिए तय किए गए समर्थन मूल्य पर कोई बोनस नहीं दे सकता है और जो भी राज्य ऐसा बोनस देगा, वहां से भारतीय खाद्य निगम खरीदी नहीं करेगा। यह फरमान इस बहाने से किया गया है कि इस तरह का बोनस ‘‘बाजार को बिगाड़ता’’ है।
          मोदी सरकार ने किसानों से खाद्यान्न की सरकारी खरीद करने वाली एजेंसी, भारतीय खाद्य निगम को ध्वस्त करने और 2013 के खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत मिलने वाली खाद्य सुरक्षा को कमजोर करने के कदम भी तेज कर दिए हैं। हालांकि, विश्व व्यापार संगठन में यह सरकार इसका दिखावा कर रही थी कि देश के किसानों के हितों तथा खाद्य सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जाएगा, वास्तव में यह सरकार खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम तथा सार्वजनिक भंडारण कार्यक्रमों को कमजोर करने के जरिए, ठीक वहीं सब कर रही है, जिसकी मांग अमरीका तथा योरपीय यूनियन और विश्व व्यापार संगठन द्वारा की जा रही थी। किसी भी तरह का सार्थक मूल्य स्थिरीकरण कोष कायम करने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं। साफ है कि यह सरकार किसानों की कीमत पर बड़े कृषि उद्यमियों और व्यापारियों के ही हितों की रक्षा करना चाहती है।
निवेश में कटौतियां
          खेती में और ग्रामीण विकास में सार्वजनिक निवेश में भारी कटौती की गयी है। कृषि ऋणों तक किसानों के बड़े हिस्से की पहुंच ही नहीं है और लुटेरे सूदखोर महाजन किसानों को बेरोक-टोक लूट रहे हैं। संस्थागत ऋणों का बड़ा हिस्सा कृषि कारोबारियों और ‘‘शहरी काश्तकारों’’ ने ही हथिया लिया है। राष्टï्रीय नमूना सर्वेक्षण का एक ताजा सर्वे (70 वां चक्र, जनवरी-दिसंबर 2013), ‘भारत में खेतिहर परिवारों की स्थिति का सर्वे’ बताता है कि भारत में 60 फीसद से ज्यादा ग्रामीण परिवार कर्ज के बोझ के नीचे दबे हुए हैं और आंध्र प्रदेश में ऐसे परिवारों का हिस्सा 92.9 फीसद है। फिर भी भाजपा की सरकार ने ग्रामीण परिवारों को कर्ज के बोझ से राहत दिलाने के लिए, संस्थागत ऋणों तक उनकी पहुंच बढ़ाने के लिए या सस्ते ऋण मुहैया कराने के लिए कुछ भी नहीं किया है। 2014-15 के बजट में कृषि तथा सहायक गतिविधियों के लिए 11,531 करोड़ रु0 का आवंटन रखा गया था, जिसमें बहुत मामूली बढ़ोतरी कर, 2015-16 के बजट में इसे सिर्फ 11,657 करोड़ रु0 किया गया है। जाहिर है कि वास्तविक मूल्य के हिसाब से इसमें कोई बढ़ोतरी ही नहीं हुई है।
          मनरेगा में भारी कटौती की गयी है और उसके लिए फंड ही नही मिल रहे हैं। भाजपा की सरकार इसे मौजूदा 6,576 ब्लाक से घटाकर,  2500 ब्लाकों तक सीमित कर देना चाहती है। याद रहे कि 2014-15 में केंद्र और राज्यों की सरकारों ने मिलकर यह अनुमान लगाया था कि मनरेगा के तहत 227 करोड़ कार्यदिवस के रोजगार की मांग आयेगी और इस मांग को पूरा करने के लिए उसी वित्त वर्ष में 61,000 करोड़ रु0 के आवंटन की जरूरत होगी। लेकिन, भाजपा की सरकार ने 2014=15 के बजट में इसके लिए सिर्फ 34,000 करोड़ रु0 का आवंटन किया और इस तरह अनुमानित राशि का 45 फीसद पहले ही काट लिया। 2015-15 के बजट में मनरेगा के लिए सिर्फ 34,699 करोड़ रु0 का आवंटन किया गया है। यह वास्तविक जरूरत से बहुत ही कम है।
          इसी तरह छोटे तथा मंझले किसानों और खेत मजदूरों के लिए कुछ भी नहीं किया गया है, जो घटती आय और बढ़ती कीमतों की दुहरी चक्की में पिस रहे हैं। देश में 600 जिले हैं और इसे देखते हुए सिंचाई तथा ऑर्गनिक खेती के  लिए कुल 5,600 करोड़ रु0 का आवंटन, इन दोनों योजनाओं के लिए हर जिले के लिए औसतन 9 करोड़ रु0 का आवंटन बैठता है। इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इतने मामूली खर्च से न तो सिंचाई में कोई बढ़ोतरी हो सकती है और न ऑर्गनिक खेती को कोई बढ़ावा मिल सकता है।
धोखा ही धोखा
          अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदाओं से फसलों के नुकसान की भरपाई करने के लिए चौतरफा कृषि बीमा योजना के वादे को भुला ही दिया गया है। हाल में आयी बेमौसमी बारिश तथा ओलावृष्टिï से हुई फसलों की भारी तबाही के बाद, भाजपा की सरकार ने पूरी तरह फसल तबाह होने का रकबा घटाकर वास्तविकता से करीब आधा कर दिया और इस तरह, करोड़ों किसानों को मुआवजे के दायरे से बाहर ही कर दिया। इसके बाद उसने करीब 12,000 रु0 प्रति एकड़ के मुआवजे का एलान किया और दावा किया कि यह अब तक का सबसे ज्यादा मुआवजा है। इस सिलसिले में यह उल्लेखनीय है कि हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा अन्य राज्यों में, जहां इस आपदा के बाद हताशा में किसानों ने आत्महत्याएं की हैं, ज्यादातर मामलों में किसानों को कोई मुआवजा ही नहीं मिला था। यह भी गौरतलब है कि हरियाणा में कुछ हिस्सों में तो खेती के लिए जमीन का किराया ही करीब 45,000 रु0 प्रति एकड़ बैठता है। पैदावार की बाकी जो लागत आती है, ऊपर से आती है। ऐसे में 12,000 रु0 प्रति एकड़ का मुआवजा मिलने के बाद भी, किसान के सिर पर तो कर्ज का भारी बोझ रहेगा ही। इसके ऊपर से देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों को मुआवजे के तौर पर 5 रु0, 63 रु0, 200 रु0 आदि के भी चैक दिए गए हैं। किसानों के सभी तबकों की आय में गिरावट का नतीजा यह हुआ है कि उन्हें अपनी परिसंपत्तियां बेचनी पड़ रही हैं और जहां ऐसा नहीं है वहां भी वे नयी प्रौद्योगिकी में, ट्रैक्टर आदि में और सिंचाई के बुनियादी ढांचे में निवेश नहीं कर पा रहे हैं।
          उधर भूमि अधिग्रहण कानून के मामले में भाजपा पूरी तरह से पल्टी मार गयी है। इस कानून पर अपने पहले के रुख से पलटते हुए भाजपा ने 2014 के दिसंबर में अध्यादेश के जरिए उक्त कानून में संशोधन थोप दिए। इन संशोधनों से कार्पोरेट मुनाफाखोरी के लिए और अचल संपत्ति के सट्टïाबाजार के लिए, किसानों की जमीनें लेना आसान हो जाएगा। वास्तव में इस सरकार ने 1894 के गुलामी के जमाने के भूमि अधिग्रहण कानून के सबसे दमनकारी प्रावधानों को ही वापस ला दिया है और अधिग्रहण के लिए उन पर स्वामित्व अधिकार रखने वाले किसानों और संबंधित भूमि पर निर्भर अन्य लोगों की सहमति हासिल करने की शर्त को हटा दिया है। इसके साथ ही इस तरह के अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव के अध्ययन की व्यवस्था को भी पूरी तरह से हटा दिया गया है।
          संशोधन कर जोड़ी गयी नयी धारा-10 (ए) के तहत, अनेक प्रकार की परियोजनाओं को उक्त शर्तों के दायरे से बाहर कर दिया गया है। इनमें विशेष श्रेणी में रखे गए पांच आइटमों में औद्योगिक कॉरीडोर तथा सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के अंतर्गत आने वाली ढांचागत परियोजनाओं को भी रखा गया है। चूंकि ज्यादातर अधिग्रहण इन्हीं दो श्रेणियों में होता है, यह संशोधन 2013 में संसद द्वारा पारित कानून में रखी गयी न्यूनतम बचाव व्यवस्थाओं को भी पूरी तरह से नकारने का ही काम करेगा। इतना ही नहीं औद्योगिक कॉरीडोर की परिभाषा का विस्तार कर उसमें अधिसूचित सडक़ या रेल मार्ग के दोनों ओर की एक-एक किलोमीटर तक की जमीन ऐसे औद्योगिक कॉरीडोर के लिए जाने का प्रावधान शामिल कर लिया गया है। एक गणना के अनुसार, दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरीडोर के मामले में, जो देश के छ: राज्यों से होकर गुजरता है, कुल मिलाकर करीब 7 लाख वर्ग किलोमीटर यानी देश की खेती की कुल जमीन के 17.5 फीसद का, जबरिया अधिग्रहण किया जा रहा होगा।
          इस तरह की व्यवस्था में खाद्य सुरक्षा की रखवाली का भी कोई प्रबंध नहीं होगा क्योंकि बिना किसी रोक-टोक के उपजाऊ बहुफसली जमीनों का और असिंचित उत्पादक जमीनों का अधिग्रहण किया जा सकेगा। इसके साथ ही, भूमि के मालिकों तथा भूमि पर निर्भर दूसरे लोगों के पुनर्वास तथा पुनर्वसन की थोड़ी-बहुत भी व्यवस्था की सारी संभावनाओं को पूरी तरह से छोड़ दिया गया है। राष्टï्रीय और राज्य, दोनों ही स्तरों पर भूमि उपयोग नीति तय करने का कोई प्रस्ताव ही नहीं है। जमीन गंवाने वाले हरेक परिवार में से एक व्यक्ति को रोजगार दिलाने का सरकार के वादे का एक ही अर्थ है कि पूरे के  पूरे परिवार को उसके आय के मुख्य स्रोत से अलग करने के बाद, नाम के वास्ते परिवार में से एक व्यक्ति को रोजगार दे दिया जाएगा। इस मामले में भूमि पर निर्भर अन्य तबकों के लिए भी कोई प्रावधान ही नहीं है।
          साफ है कि इस एक साल में मोदी सरकार ने अपना हरेक  वादा तोड़ा है। मोदी के नेतृत्ववाली सरकार किसानों को कंगाल बनाने तथा बेदखल करने की और इस तरह उन्हें खेती छोडऩे पर मजबूर करने की सोची-समझी नीति पर चल रही है। इसी के हिस्से के तौर पर यह सरकार खेती के लिए सरकारी मदद से हाथ खींच रही है और आक्रामक तरीके से व्यापार उदारीकरण की नीति और अनेकानेक नवउदारवादी नीतियों पर चल रही है। अडानी, अंबानी आदि आदि के अच्छे दिन लाने के लिए, किसानों तथा खेत मजदूरों के हितों की बलि चढ़ायी जा रही है।   

बुधवार, 15 जुलाई 2015

स्वामित्व के साथ बदलता मीडिया का चरित्र--- मुकेश कुमार

स्वामित्व के साथ बदलता मीडिया का चरित्र
मुकेश कुमार
देश में पहली बार पूर्ण बहुमत हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन चुकी है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्राी पद पर क़ाबिज़ हो चुके हैं। ये कोई मामूली घटना नहीं है और इसे चुनाव में सिर्फ़ एक दल की हार और दूसरे की जीत के रूप में देखना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इसने देश को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जो
उसे फासीवाद की ओर भी ढकेल सकता है और पूंजीवाद के नग्नतम रूप से उसका सामना भी करवा सकता है। अति दक्षिणपंथी राजनीति का इतना ताक़तवर होकर उभरना ख़तरनाक संकेत तो देता ही है, मगर ये इस बात का भी सबूत है कि बहुत सारी शक्तियां भी उसके साथ हैं जो उसे मज़बूती प्रदान कर रही हैं। इन शक्तियों में से एक मीडिया है और अब ये कोई छिपी हुई बात नहीं है। मीडिया ने इस आम चुनाव में एक अत्यधिक पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाई और बड़ी निर्लज्जता के साथ निभाई। लेकिन मीडिया को अर्थव्यवस्था से अलग इकाई मानकर उसे कोसना तर्कसंगत नहीं है। ये ज़रूरी है कि उन शक्तियों की पहचान की जाये जो पीछे से उसको नियंत्रित-संचालित कर रही हैं, ताकि असली गुनाहगारों की शिनाख़्त की जा सके और उनसे ध्यान न हटे। वास्तव में सन् 2014 के चुनाव मीडिया के लिए कई तरह से महत्वपूर्ण रहे। पहली बार उसका चुनाव पर इतना व्यापक प्रभाव दिखा। ऐसा लगा मानो वही तय कर रहा हो कि किसकी सरकार बनेगी और कौन प्रधानमंत्राी होगा। चुनाव परिणाम साबित करते हैं कि सचमुच में उसकी भूमिका काफ़ी हद तक निर्णायक रही और उसने सबको अपना लोहा मानने के लिए विवश कर दिया। ये मीडिया युग के आने और छा जाने का प्रमाण है। लेकिन इससे भी बड़ी सचाई ये है कि वह अब लोकतंत्रा के चौथे स्तंभ के रूप में, जैसा कि अकसर प्रचारित किया जाता है, जनता की
इच्छाओं-आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने वाला उपकरण ही नहीं रह गया बल्कि जनमत के निर्माण का हथियार बन चुका है। उसने इतनी शक्ति प्राप्त कर ली है कि वह अब भावी प्रधानमंत्राी के निर्माण और स्थापना तक में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगा है। लेकिन उसकी ये बढ़ती ताक़त ढेर सारे प्रश्नों और आरोपों से घिरी हुई है। ये सवाल उसके चरित्रा और उद्देश्यों के संबंध में उठे और पूरी शिद्दत के साथ एक नहीं, सब तरफ़ से उठाये गये। इस बात का प्रमाण ये है कि पहले सिर्फ़ कम्युनिस्ट पार्टियां ही मीडिया के पूंजीवादी शक्तियों के हाथों में खेलने और उनके पक्ष में प्रचारक की भूमिका निभाने का आरोप लगाती थीं, जबकि इस बार लगभग सभी राजनीतिक दलों ने उन्हीं की भाषा में मीडिया पर तीखे हमले किये। नवोदित आम आदमी पार्टी ने सबसे आक्रामक ढंग से मीडिया पर हमले करते हुए कहा कि वह कार्पोरेट जगत की कठपुतली है। मीडिया के पक्षपाती व्यवहार से प्रभावित दूसरे दलों की भी यही शिकायत रही कि वह पैसे की ताक़त के सामने नतमस्तक हो गया
है। जनता दल (यू) का तो यहां तक कहना था कि मीडिया अब पत्राकार नहीं, मालिक चला रहे हैं। और तो और कांग्रेस और बीजेपी ने भी, जो कि इस मीडिया का इस्तेमाल करके लाभ उठाती रही हैं, उस पर पक्षपात के आरोप जड़ दिये। बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्राी पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने तो एक नया जुमला ही उछाल दिया न्यूज़ ट्रेडर का। उन्होंने अपने इंटरव्यू में पत्राकारों को सीधे-सीधे न्यूजट्रेडर यानी ख़बरों का कारोबारी कहा, जिसका एक मतलब तो ये है कि मीडिया बिकाऊ है और उसे ख़रीदा जा सकता है। निश्चय ही इस पदावली को उन्होंने अपने अनुभवों से ही गढ़ा होगा और उसका इस्तेमाल वे पत्राकारों का मुंह बंद करने के लिए कर रहे थे। लेकिन असली बात ये नहीं है बल्कि ये है कि मीडिया की न साख है और न धार, क्योंकि वह न्यूजट्रेडर शब्द के इस्तेमाल पर कोई आपत्ति तक दर्ज नहीं करवा सका। ये उसके घटते आत्मविश्वास और गुलाम तथा आतंकित मानसिकता का भी परिचायक था। सवाल उठता है कि आखि़र ये नौबत क्यों आयी। उसकी हालत सड़क पर पड़े उस कुत्ते की तरह क्यों हो गयी जिसे हर आता-जाता लात मारकर आगे बढ़ जाता है। इसका जवाब जब हम ढूंढ़ने जायेंगे तो पायेंगे कि कहीं न कहीं इसकी तह में मीडिया का बदलता स्वामित्व है। मीडिया को चलानेवाली पूंजी और उस पूंजी को नियंत्रित करने वाले लोग तय कर रहे हैं कि मीडिया की भूमिका क्या होगी। अगर आम चुनाव का ही उदाहरण लें तो सोचना चाहिए कि क्यों मीडिया की मोदी-भक्ति के संदर्भ में बार-बार कार्पोरेट जगत का नाम लिया जा रहा था। क्यों ये कहा जा रहा था कि मीडिया अगर मोदी के अभियान का सक्रिय सहयोगी बन गया था तो इसकी वजह ये थी कि पूरा कार्पोरेट जगत चाहता था कि वे प्रधानमंत्राी बनें। वह कार्पोरेट जगत के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा था, क्योंकि उसकी लगाम उसके हाथों में थी। अगर पिछले छह महीनों के मीडिया कंटेंट का अध्ययन किया जायेगा तो साफ़ हो जायेगा कि वह किस कदर मोदी के पक्ष में झुका हुआ था। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ (सीएमएस) द्वारा जारी किये गये आंकड़े इसकी बानगी पेश करते हैं। सीएमएस ने पांच चैनलों के प्राइम टाइम के कवरेज में विभिन्न नेताओं की हिस्सेदारी के आंकड़े देते हुए बताया कि राहुल गांधी के मुक़ाबले मोदी को पांच गुना अधिक कवरेज मिला जबकि अरविंद केजरीवाल की तुलना में ये अनुपात सात गुना था। हालांकि इन आंकड़ों में कंटेंट का रूप-रंग नज़र नहीं आता। अगर वह देखा जा सकता तो पता चलता कि मोदी का कवरेज किस कदर महिमागान से सराबोर था और उनके प्रतिद्वंद्वियों का दुराग्रहों से भरा हुआ। यही नहीं, इन पांच चैनलों में हिंदी के वे तीन कुख्यात चैनल शामिल ही नहीं थे जिन्होंने निर्लज्जता की तमाम सीमाएं लांघते हुए मोदी के प्रोपेगंडा का काम किया।
चुनाव के दौरान मीडिया में कार्पोरेट जगत के खेल का खुलासा मोदी के प्रधानमंत्राी पद ग्रहण करने के एक पखवाड़े के अंदर ही हो गया जब मुकेश अंबानी द्वारा स्थापित इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट ने नेटवर्क 18 और टीवी 18 समूह का अधिग्रहण कर लिया। ये भारत में मीडिया इतिहास का सबसे बड़ा कार्पोरेट अधिग्रहण था और इसे सबसे बड़ा गेम चेंजर बताया जा रहा है। इस अधिग्रहण के बाद संस्थान से मोदी विरोधी पत्राकारों की विदाई की ख़बरें भी मीडिया जगत में फैल गईं, जो कि मोदी समर्थक उद्योगपति की भावी रणनीति का एक स्वाभाविक क़दम कहा जा सकता है। लेकिन इस मीडिया घराने के चरित्रा पर अंबानी का दबाव पहले से ही दिखने लगा था, क्योंकि 2200 करोड़ रुपए का निवेश करके उन्होंने पहले से पकड़ बना ली थी। लेकिन ये केवल नेटवर्क 18 और टीवी 18 समूह की कहानी ही नहीं है। तमाम बड़े चैनलों में कार्पोरेट हिस्सेदारी है और वह लगातार बढ़ रही है। कई उद्योगपति तो सीधे-सीधे अपने मीडिया संस्थान शुरू कर चुके हैं। नवीन जिंदल का मीडिया वेंचर इसकी ताज़ा मिसाल है। दूसरी ओर ये भी ध्यान में रखना चाहिए कि जिन मीडिया संस्थानों में सीधी कार्पोरेट भागीदारी नहीं है, उनमें से कुछ तो ख़ुद ही कार्पोरेट में तब्दील हो चुके हैं, यानी उनका चरित्रा भी वही हो गया है जो कार्पोरेट भागीदारी वाले संस्थानों का है। स्वामित्व का दूसरा रूप हमें उन मीडिया संस्थानों में देखने को मिलता है जो अपने धंधों पर परदा डालने, उन्हें सुरक्षा कवच प्रदान करने या फिर अपने दूसरे कारोबार को बढ़ावा देने के लिए करते हैं। ये तो सभी को पता है कि मीडिया का कारोबार बेहद जोखिम वाला है और 95 प्रतिशत मीडिया संस्थान घाटे में चल रहे हैं। इस तथ्य को जानते हुए भी अगर लोग मीडिया कारोबार में उतर रहे हैं तो सीधे-सीधे मुनाफ़े के लिए नहीं बल्कि ऊपर बताये गये लाभों के लिए। इसीलिए हम पाते हैं कि ज़्यादातर मीडिया संस्थानों के पीछे चिट फंड कंपनियां या बिल्डर हैं। उन्हें साल में सौ-पचास करोड़ रुपए इस तरह बहाने में भी लाभ ही नज़र आता है। फिर मीडिया संस्थान काले धन को सफेद करने के काम में बरसों से आता रहा है। बहुत से कारोबारी, जिनमें अपराधियों से लेकर साधु-संत और हवाला कारोबारी तक शामिल हैं, इसी तरह इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। मीडिया में स्वामित्व का तीसरा स्वरूप राजनीतिक है, यानी नेता और राजनीतिक दल अघोषित रूप से मीडिया का इस्तेमाल अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए करते हैं। दक्षिणी राज्यों में और ख़ास तौर पर तमिलनाडु तथा आंध्र प्रदेश में ये खूब देखा जा सकता है। ऐसे मीडिया संस्थान पूरी तरह से एकपक्षीय होते हैं, उनसे निष्पक्ष सामग्री की अपेक्षा करना ही छलावा है। यहां ये स्पष्ट करना शायद ठीक होगा कि ऊपर से अलग दिखने वाले स्वामित्व के बावजूद सबका मूल चरित्र एक ही है और वह है एक वर्ग विशेष के स्वार्थों को पूरा करना। इन सबका संबंध बाज़ार से है और कार्पोरेट के हितों से वे भी संचालित होते हैं। ये बुनियादी रूप से उन आर्थिक नीतियों के पक्षधर होते हैं जो मेहनतकश वर्ग के शोषण पर आधारित हैं। कहने का मतलब ये है कि मीडिया का धंधा बेहद गंदा हो चुका है। उसमें हम तरह-तरह की जो गंदगियां देखते हैं, वे स्वामित्व के उक्त प्रकारों के कारण ही हैं। उसी ने उसका चरित्रा, जो कि मूल रूप से वही था, और भी नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है। पेड न्यूज़ की बात हम पिछले एक दशक से कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में आज का मीडिया पेड मीडिया हो चुका है जिसका घोषित उद्देश्य चाहे जो हो, मगर वास्तव में वह जन विरोधी है। ज़ाहिर है कि वह लोकतंत्रा विरोधी भी हो चुका है। अकसर कहा जाता है कि भले ही विभिन्न मीडिया संस्थान किसी के पक्षधर रहें, मगर उनकी विविधता और आपसी प्रतिस्पर्धा की वजह से सच सामने आ ही जाता है, साथ ही उन पर एक तरह का चेक एवं बैलेंस भी कायम रहता है। मगर वास्तव में ऐसा हो नहीं रहा, क्योंकि तमाम मीडिया संस्थान अब मूल रूप से एक ही तरह के सोच वाले हो गये हैं और उनके उद्देश्य भी एक हैं और वे हैं शासक वर्ग के स्वार्थों की सिद्धि। यही वजह है कि हम हर अख़बार और चैनल को उन आर्थिक नीतियों का प्रचारक पाते हैं जो खुली बाज़ार व्यवस्था की वकालत करते हैं। कोई भी किसानों और मज़दूरों की समस्याओं और उनके हक़ों की बात नहीं करता। ग़रीबी, बेरोज़गारी और आर्थिक विषमता की किसी को परवाह ही नहीं है। मीडिया में दबे-कुचले वर्ग
की आवाज़ सुनाई ही नहीं पड़ती, उनके चेहरे दिखलाई ही नहीं पड़ते। उन्होंने उस शहरी मध्यमवर्ग को अपना टारगेट बना रखा है जो उनका उपभोक्ता भी है और नीति निर्धारण में जिसकी मुखरता निर्णायक भूमिका अदा करती है। मीडिया का हिंदुत्ववादी हो जाना भी इसी का नतीजा है। कार्पोरेट पूंजी के बढ़ते नियंत्राण के प्रभाव हमें आने वाले समय में और भी तरह से दिखेंगे। अधिग्रहण और विलय की जो प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और जिसे कार्पोरेट जगत कंसोलिडेशन का नाम दे रहा है, वह अंतत छोटे मीडिया संस्थानों को निगल जायेगी। कुछ दैत्याकार कार्पोरेशन होंगे जो अपने स्वार्थों के हिसाब से मीडिया का चरित्रा तय करेंगे। अमेरिका और यूरोप में मीडिया उद्योग इस दौर से बहुत पहले गुज़र चुका है और वहां के मीडिया के चरित्रा को देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भारत में उसका भविष्य क्या है। अभी तक भारत में विदेशी पूंजी को मीडिया क्षेत्रा में सौ फ़ीसद निवेश की छूट नहीं है। केवल मनोरंजन चैनलों और वितरण में ऐसा हो सकता है। समाचार के क्षेत्रा में केवल छब्बीस प्रतिशत विदेशी निवेश की ही इजाज़त है। लेकिन पूरी आशंका है कि भारत सरकार आने वाले समय में मीडिया को पूरी तरह से विदेशी पूंजी के लिए खोल देगी। इसका स्वाभाविक परिणाम ये होगा कि मीडिया पर
विदेशी नियंत्राण का रास्ता खुल जायेगा। इससे भारत को अपने हिसाब से चलाने के इच्छुक देशों को
एक नया हथियार मिल जायेगा।
        ये बात ध्यान में रखने की है कि मीडिया के बदलते स्वामित्व ने स्वस्थ पत्राकारिता की संभावनाओं को नष्ट कर डाला है। पत्राकारों की स्वायत्तता और स्वतंत्राता लगभग ख़त्म हो चुकी है। अख़बारों और न्यूज़ चैनलों में संपादक नामक संस्था को पूरी तरह से बदल दिया गया है, उन्हें प्रबंधक बना दिया गया है। पत्राकारों के लिए भी अच्छा काम करने की गुंजाइश न के बराबर रह गयी है। अनुबंध पर रखे जाने और आये दिन होने वाली छंटनियों ने उन्हें पूरी तरह से असुरक्षित कर दिया है। उन्हें मज़बूर कर दिया है कि वे स्वामित्व के एजेंडे के लिए ही काम करें। सत्ता प्रतिष्ठान की नीतियों को बेनकाब करने वाली रिपोर्टिंग अब बहुत कम हो गयी है। आर्थिक अपराधों की ओर तो ख़ैर मीडिया देखता ही नहीं है। कुल मिलाकर पूरा वातावरण ऐसा बना दिया गया है जिसमें वही संभव है जो स्वामित्व के हितों को साधता हो।
नया पथ से साभार 

चुनावी जनादेश के सात आयाम अभय कुमार दुबे

चुनावी जनादेश के सात आयाम
अभय कुमार दुबे 
सोलह मई को सोलहवीं लोकसभा के चुनाव नतीजे घोषित हुए और अट्ठारह मई को हिंदुस्तान टाइम्स समूह के वित्तीय समाचारपत्र ‘मिंट’ के पहले पन्ने पर उसके नियमित स्तम्भकार मानस चक्रवर्ती ने इन परिणामों का अर्थ-ग्रहण करते हुए ‘इलेक्शन रिज़ल्ट: अ वक्ट्री फ़ॉर इंडियन कैपिटलिज़्म’ शीर्षक के तहत टिप्पणी की। मानस ने दावा किया कि कांग्रेस सरकार स्पष्ट वामपंथी रुझान वाली लोकोपकारी नीतियों (जैसे भूमि अधिग्रहण नीति और विभिन्न सबसिडियों) के साथ-साथ आर्थिक ‘सुधारों’ (जैसे ख़ुदरा क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोलना) की प्रक्रिया आगे बढ़ाने का रास्ता अपना रही थी। सरकार अपनी इस ‘खंडितमनस्कता’ के कारण न तो अपनी लोकोपकारी योजनाओं के लिए संसाधन जुटा पायी और न ही आर्थिक वृद्धि के लिए ज़रूरी निवेश का इंतजाम कर सकी। नतीजा यह निकला कि आपूर्ति संबंधी गतिरोध नहीं हटाये जा सके और
मुद्रास्फीति तेज़ी से बढ़ती चली गयी। संकट में फंस जाने के कारण सरकार ने उद्योगपतियों और व्यापारियों को अधिक कर देने के लिए मज़बूर किया। इस रवैये के कारण कॉरपोरेट शक्तियां नरेंद्र मोदी के पक्ष में उत्तरोत्तर गोलबंद होती चली गईं। लेकिन, भारतीय जनता पार्टी की निर्णायक जीत केवल पूंजीपति वर्ग की इच्छा से ही संभव नहीं थी। आम मतदाताओं की मर्ज़ी से ही ऐसा परिणाम निकल सकता था। मानस चक्रवर्ती ने अपने इस विश्लेषण से तीन निष्कर्ष निकाले: भारतीय राजनीति वामोन्मुख से दक्षिणोन्मुख हो गयी है, नरेंद्र मोदी की जीत ने पूंजीवाद के लिए भारत को एक सुरक्षित जगह बना दिया है और भारतीय मतदाताओं ने जाति-समुदाय-धर्म के आधार पर वोट न दे कर विकास के नाम पर मुहर लगायी है।
             ध्यान रहे कि हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप पारंपरिक रूप से भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार का समर्थन करने वाला मीडिया-हाउस नहीं है। इसका मालिकाना बिड़ला घराने के हाथ में है और वह आम तौर पर कांग्रेसी रुझान वाला माना जाता है। लेकिन, इससे पहले कि हम मानस चक्रवर्ती के निष्कर्षों को तथ्यों की कसौटी पर कसें, चुनावी राजनीति के एक अधिक विद्वत्तापूर्ण अर्थ-ग्रहण पर नज़र डाल लेना ठीक रहेगा। परिणाम आने से ठीक पहले विकासशील समाज अध्ययन पीठ के विद्वान आदित्य निगम ने
मीडिया पर विशेष सामग्री ‘प्रतिमान 03’ में प्रकाशित अपने लेख में लंबे समय तक चलने वाली चुनाव मुहिम के भीतर काम कर रहे विचार-तंत्रों की चर्चा करते हुए कहा था: दीन-दुनिया से बेख़बर अपनी रोज़ाना जिंदगी जी रहे लोग जनता नहीं होते। तब, उस स्थिति में, मुमकिन है, वे किसी अन्य सामाजिक पहचान के ज़रिये अपना परिचय देते हों, मगर एक व्यापक सियासी पहचान तभी बनती है जब उसका आह्वान होता है। यह आह्वान, बकौल लुई अलथुसे, न नेता करता है, न उसके मुरीद बल्कि विचार-तंत्रा करता है। यह विचार-तंत्रा राष्ट्रवाद का हो सकता है, समाजवाद या फ़ासीवाद का भी हो सकता है। इस अर्थ में अगर नरेंद्र मोदी के हालिया उभार को एक मिसाल के तौर पर देखें तो शायद बात बेहतर समझ आये। मोदी का अचानक ख़ुद की पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इच्छाओं के बावजूद तेज़ी से उभर कर सामने आना न तो मोदी के अपने किये के हवाले से समझा जा सकता है और न ही किसी अमूर्त जनता की मांग के हवाले से। ख़ुद मोदी, उनकी क़तारें और उनकी जनता दरअसल एक ही विचार-तंत्रा की डोर में बंधे हैं जिसका नाम हिंदुत्व है और जिसकी नींव पिछली सदी के शुरुआती दशकों में डाली गयी थी। मगर फ़क़त उस जनता के आधार पर मोदी का राष्ट्रीय फलक पर असर डालना सम्भव न होता। उसके लिए ज़रूरत थी एक अन्य जनता की जिसके लिए एक अन्य विचार-तंत्र-विकासवाद को हरकत में लाया गया। मोदी विकास-पुरुष के रूप में खड़े किये गये। यह खड़ा किया जाना भी न तो मोदी का ख़ुद का किया-धरा है, न उनकी पार्टी का, बल्कि उस नवउदारतावादी जमात का है जिसे सरमायेदार
घरानों का समर्थन हासिल है। मगर इसी बीच आम आदमी के पदार्पण ने अन्य आह्वान पैदा किया जिसके
जवाब में चायवाला, सेवक या चौकीदार जैसे शब्द उछाले गये। अब दो अलग क़िस्म के आह्वानों का नतीजा
दो अलग लामबंदियों में देखा जा सकता है जिनमें वर्चस्व की लड़ाई का चलना लाजमी है।
           आम आदमी पार्टी के उभार को समझने के लिए हमें एक और बात ध्यान में रखनी होगी। यह एक बिलकुल नया हस्तक्षेप था/है, जिसका विचार-तंत्रा के स्तर पर कोई साफ़ पिछला इतिहास, कम से कम पहली नज़र में तो दिखाई नहीं पड़ता। मगर ऐसा भी नहीं है कि यह आंदोलन बिलकुल ही स्वयम्भू था। ग़ौर करें तो
ख़ुद हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में ऐसी राजनीति-विमुख धाराएं रही हैं जो विचार के स्तर पर हमेशा
धड़कती रही हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर का ख़याल तो अनायास आता ही है, मगर यहां सबसे मज़बूत हाज़िरी
तो गांधी की है जो राजनीति में रह कर भी हमेशा उससे अपनी दूरी बनाये रखते थे। इसी तरह मानवेंद्र
नाथ राय का रैडिकल डेमोक्रैसी का तसव्वुर या 1970 के दशक में जयप्रकाश नारायण का दल-विहीन जनतंत्रा
का विचार इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हमारे मुल्क में राजनीति की आलोचना के कई महत्त्वपूर्ण
उपादान मौजूद हैं। मगर शायद इससे भी ज़्यादा अहम बात यह है कि पिछले समय में जिस तरह राजनीति
का दिवाला निकला है और सिरे से तमाम पार्टियां जनता की लूट में शरीक दिखाई दी हैं, उसने एक नये
क़िस्म के विमर्श की ज़मीन तैयार की जिसकी एक बानगी ‘रंग दे बसंती’ जैसी फ़िल्म में देखने को मिलती
है। याद रहे कि इसी जमाने में जेसिका लाल की एक सांसद-पुत्रा द्वारा हत्या के बाद उसका रिहा हो जाना
एक नायाब आंदोलन को जन्म दे चुका था जिसमें राजनीति से कोसों दूर रहने वाले नौजवान बड़ी तादाद
में हरकत में आये थे। एक तीसरी और बहुत महत्त्वपूर्ण धारा उस सियासत की है जो सूचना के अधिकार
को लेकर चल रहे आंदोलन से निकलती है जिसके ज़रिये इसी दरमियान कई छोटे-बड़े घोटालों का पर्दाफ़ाश
हुआ। आहिस्ता-आहिस्ता इन घोटालों का दलीय राजनीति से गहरा रिश्ता लोगों के सामने आने लगा। कहा
जा सकता है कि इस तरह, नये आंदोलनों की ऊर्जा और पुरानी दलेतर राजनीति का ख़याल अरविंद
केजरीवाल जैसी शख़्सियत के रूप में एक जगह इकट्ठा होने लगा। यह एक नया आह्वान था जिसमें एक
अलग क़िस्म का विचार-तंत्रा वजूद में आ रहा था। यह एक जवाबदेह और भ्रष्टाचार-मुक्त शासन की मांग
के इर्द-गिर्द उभरता प्रत्यक्ष जनतंत्रा का दावा करता विचार-तंत्रा था। मगर इसकी शक़्ल-सूरत साफ़ नहीं थी।
मगर यही इसकी सबसे बड़ी ताक़त थी। एक बार फिर लक्लाऊ की शब्दावली में कहें तो यह एक रिक्त
प्रतीक (एम्प्टी सिग्निफ़ायर) था जिसमें लोग अपने हिसाब से अर्थ भर लेते हैं। भ्रष्टाचार इस क़लाम का
मूल पद है जिसका सीधा रिश्ता सूचना-अधिकार के आंदोलन से है मगर जिसके सम्भावित अर्थ हैं। जिस
तरह से अपने पहले चरण में यानी अन्ना आंदोलन के चरण में इस आंदोलन ने तकरीबन समाज के हर
तबक़े से समर्थन हासिल किया, उससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि एक रिक्त प्रतीक के रूप में
उसका चरित्रा ही उसके व्यापक जनसमर्थन के लिए ज़िम्मेदार था।
             मानस चक्रवर्ती के साथ-साथ आदित्य निगम के इस लंबे उद्धरण का तात्पर्य यह दिखाना है कि चुनाव नतीजों की पत्राकारीय समीक्षा और समाज-वैज्ञानिक विश्लेषण के बीच क्या-क्या समानताएं और क्या-क्या भिन्नताएं हैं। कॉरपोरेट शक्तियों की कारस्तानी और विकास का आग्रह दोनों जगह समान है, पर मानस
जिसे मतदाताओं की तरफ़ से किया जाने वाला विकास का आग्रह कहते हैं, वह आदित्य के लिहाज से पहले से मौजूद एक ऐसा विचार-तंत्रा है जिसे नियोजित ढंग से कॉरपोरेट शक्तियों द्वारा सक्रिय किया गया। दूसरे, मानस के विश्लेषण में मोदी को जिताने वाले विचार-तंत्रा और ताक़तों की तरफ़ तो इशारा मिलता है, पर उसके मुक़ाबले खड़े विचार-तंत्र के रूप में वे केवल कांग्रेस और उसकी ‘खंडित मानसिकता ’ ही पेश करते हैं जो उनके लिहाज से अपनी आर्थिक विफलता के कारण पराजित होने के लिए अभिशप्त थी। जबकि आदित्य कांग्रेस की नुमाइंदगी वाले इस विचार-तंत्रा को मोदी के मुक़ाबले में देखते ही नहीं। मोदी के विपक्ष में वे उस विचार-तंत्रा को रखते हैं जिसकी नुमाइंदगी आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल कर रहे थे और जिसके मर्म में था लोकतंत्र के मौजूदा ढांचे की आलोचना करने वाला भ्रष्टाचार नामक रिक्त प्रतीक जिसे जनता ने अपने समर्थन से भर दिया था।
 तथ्यात्मक कसौटी: जनादेश के पांच आयाम
आइये, देखें कि ये समीक्षाएं तथ्यों की कसौटी पर कितनी खरी उतरती हैं। अध्ययन पीठ द्वारा किये गये चुनाव उपरांत सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर भाजपा को मिले जनादेश से संबंधित पांच महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर रोशनी पड़ती है। पहला आयाम इस जनादेश के एक अनुमानित क़िस्म के सामाजिक चरित्र पर रोशनी डालता है। इसके मुताबिक़ जनादेश का पचास प्रतिशत से अधिक हिस्सा समाज में ऊंची जाति के समुदायों (ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य, कायस्थ और भूमिहार) के मतों से मिल कर बनता हुआ दिखायी देता है। उत्तर भारत में तो इस बार समाज के इन मज़बूत समुदायों ने अभूतपूर्व रूप से अस्सी से नब्बे फ़ीसद ध्रुवीकरण प्रदर्शित किया जो इन समुदायों के इतिहास में अभूतपूर्व है। जनादेश का तक़रीबन तीस फ़ीसद हिस्सा पिछड़े समुदायों के वोटों से निर्मित हुआ लगता है। भाजपा का समर्थन करने वाले इन पिछड़े समुदायों में उत्तर भारत की विशाल यादव जाति ग़ैर-हाजिर है। बाकी पंद्रह-सोलह फ़ीसद जनादेश की रचना में दलित समुदायों का योगदान प्रतीत होता है। भाजपा का समर्थन करने वाले दलितों में जाटव समुदाय (जो उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा दलित समुदाय है) की संख्या नाममात्रा की ही है। बचे हुए चार-पांच प्रतिशत में अल्पसंख्यक समुदाय और अन्य फुटकर वोट आते हैं। यानी पिछड़े और दलित मोटे तौर पर ग़ैर-यादव और ग़ैर-जाटव हैं। गुजरात में भाजपा को लगभग 18 फ़ीसद अल्पसंख्यक वोट मिलते हुए दिखायी देते हैं, पर बाकी देश में चुनाव जीतने वाली पार्टी मुसलमानों के मतों के संदर्भ में कोई विशेष प्रगति करती हुई नहीं दिखती।
                चुनाव नतीजों का दूसरा पहलू यह है कि भाजपा महज 31.1 फ़ीसद और उसके नेतृत्व वाला राष्ट्रीय
जनतांत्रिक गठजोड़ (राजग) केवल 38.7 प्रतिशत वोटों के साथ 331 सीटें जीतने में कामयाब हो गया, जबकि बाकी बचे 61.3 प्रतिशत वोटों के बदले संसद में केवल 214 प्रतिनिधि ही पहुंच पाये। लेकिन इससे पहले कि वोटों के ये आंकड़े हमें भाजपा की जीत के सीमित चरित्रा को रेखांकित करने की तरफ़ ले जायें, हमें यह देखना भी नहीं भूलना चाहिए कि इस पार्टी ने लोकसभा की सभी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा था। वह जितनी सीटों पर लड़ी, अगर उन्हीं का हिसाब लगाया जाये तो भाजपा के वोट चालीस फ़ीसद के पार चले जाते हैं। अर्थात भाजपा की जीत औसतन आज़ादी के बाद हुई कांग्रेस की जीतों के बराबर ही बैठती है। भाजपा के पक्ष में जनादेश का चरित्रा तय करने वाला तीसरा तथ्य यह है: गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गोवा, बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और दिल्ली में भाजपा 256 सीटों पर लड़ी जिसमें उसे असाधारण रूप से 241 सीटंे मिल गयीं। यानी राजनीतिक रूप से यह जनादेश मुख्यतः उत्तर भारत, मध्य भारत और पश्चिम भारत के प्रभुत्व वाला जनादेश है। इसमें दक्षिण, पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत की उपस्थिति बहुत कम है। 
                         चौथी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा का समर्थन करने वाले मतदाताओं में स्त्रिायों की संख्या पुरुषों के मुक़ाबले कम है। औरतें अभी भी कांग्रेस को ज़्यादा पसंद करती हैं। पांचवीं अहम बात यह है कि मतदाता जैसे-जैसे ऊंची शिक्षा की तरफ़ बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे वे कांग्रेस के पाले से निकल कर भाजपा के पाले में आ जाते हैं।
दो विश्लेषणात्मक आयाम: 
जाति राजनीति और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण
अध्ययन पीठ के चुनाव-पश्चात सर्वेक्षण के परे जा कर तथ्यात्मक विश्लेषण किया जाये तो एक मानीख़ेज़ पहलू और सामने आता है। हालांकि यह पहलू बहुत व्यापक है, पर सुविधा के लिए हम यहां केवल दलित राजनीतिक हितों की नुमाइंदगी करने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के चुनाव परिणामों पर चर्चा कर लेते हैं। अभी सात साल पहले उत्तर प्रदेश में एक तरह की सामाजिक-राजनीतिक क्रांति का श्रेय लूटने वाली यह पार्टी पूरे देश में 4.2 प्रतिशत वोट हासिल करने के बावजूद एक भी निर्वाचन क्षेत्रा में चुनाव नहीं जीत सकी। इसके विपरीत तृणमूल कांग्रेस को केवल 4.8, अन्ना द्रविड़ मुनेत्रा कषगम (अन्नाद्रमुक) को 3.3 और बीजू जनता दल (बीजद) को केवल 1.7 फ़ीसदी वोट मिले, लेकिन इन पार्टियों ने क्रमशः 34, 37 और 20 सीटें जीतने में कामयाबी हासिल कर ली। इस विसंगति की एक मोटी-मोटी सफ़ाई इस आधार पर दी जा सकती है कि तृणमूल, अन्नाद्रमुक और बीजद का समर्थन आधार क्षेत्रा-विशेष में केंद्रित है, जबकि बसपा का आधार पूरे देश में बिखरा हुआ है। लेकिन, अगर यह दलील पूरे देश के मामले में ठीक है तो उत्तर प्रदेश के संदर्भ में ठीक क्यों नहीं है? जिस तरह तृणमूल, अन्नाद्रमुक और बीजद का आधार क्रमशः पश्चिम बंग, तमिलनाडु और ओडीशा में केंद्रित है, उसी तरह बसपा का आधार उप्र में केंद्रित माना जाता है जहां उसे बीस फ़ीसद वोट मिले। लेकिन इतने वोट उसका खाता खुलवाने के लिए काफ़ी साबित नहीं हुए। प्रश्न यह है कि बसपा को उत्तर प्रदेश में समाज के दलितों के अलावा अन्य तबक़ों, समुदायों और जातियों ने वोट क्यों नहीं दिये? ऐसी बात नहीं कि समाज के ये हिस्से बसपा को स्थायी रूप से नापसंद करते हों। इन वोटों के समर्थन से ही 2007 में बसपा ने उत्तर प्रदेश में केवल
अपने दम पर बहुमत जीता था। बसपा जैसी ही स्थिति उत्तर भारत की कुछ अन्य समुदाय आधारित पार्टियों की हुई। उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और बिहार में सत्तारूढ़ जनता दल-एकीकृत भी इसी गति को प्राप्त हुए। बिहार में लंबे अरसे से विपक्ष की राजनीति कर रही एक अन्य समुदाय आधारित पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के वोटों में कुछ प्रगति तो हुई, पर वह नरेंद्र मोदी की बढ़त रोकने में नाकाम रहा। दरअसल, इन सभी उत्तर भारतीय दलों को अपनी सामुदायिक पूंजी के अलावा कहीं और से बड़ा समर्थन नहीं मिला। जबकि दक्षिण भारत और पूर्वी भारत के क्षेत्राीय दल समर्थन-आधार के लिहाज से इतने संकीर्ण और एकांगी साबित नहीं हुए। उत्तर के प्रांतीय दलों और दक्षिण व पूर्व के क्षेत्राीय दलों के बीच की यह तुलना जनादेश के चरित्र में एक छठा आयाम जोड़ती है। यह आयाम मुख्यतः विश्लेषणात्मक है और बताता है कि किसी एक राज्य में सीमित समर्थन-आधार वाले दलों को एक पलड़े में तौल कर क्षेत्राीय करार देना एक त्राुटिपूर्ण विश्लेषणात्मक परिप्रेक्ष्य को जन्म दे सकता है। उत्तर भारत की प्रांतीय पार्टियां असल में किसी तरह की क्षेत्रीय -सांस्कृतिक-भाषाई विशिष्टता की वाहक नहीं हैं। वे महज़ एक समुदाय की पार्टियां बन कर रह गयी हैं। उनके बारे में एक सरलीकृत समझ यह है कि वे पिछड़े या दलित समुदाय की पार्टियां हैं, लेकिन वास्तव में वे पूरे दलित और पूरे पिछड़ों की नुमाइंदगी भी नहीं कर पाती हैं। दरअसल, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल मुख्यतः यादव-पार्टियां हैं और बसपा जाटव-पार्टी है। इन तीनों का राजनीतिक आचरण दलित और पिछड़े समुदायों के अन्य छोटे हिस्सों की स्थायी निष्ठाएं अपनी ओर खींचने के बजाय उन्हें दूर धकेलने वाला है। इसीलिए भाजपा ग़ैर-यादवों और ग़ैर-पिछड़ों के लिए आकर्षक बन गयी है। पंद्रह-बीस साल में अथवा यदाकदा एक मौका ऐसा आता है जब इन पार्टियों को स्थानीय कारणों से दूसरे समुदाय तत्कालीन सरकार के खि़लाफ़ गहरी नाराज़गी के कारण अपना नकारात्मक समर्थन दे देते हैं। लेकिन इनके पास एक मंच पर खड़े हो कर पूरे प्रदेश को संबोधित करने वाली कोई आवाज़ नहीं होती। इसके उलट  क्षेत्रीय -सांस्कृतिक-भाषाई विशिष्टता किसी पार्टी को जातीय अस्मिता की राजनीति करने की तरफ़ ले जाती है जिसके बल पर क्षेत्राीय दल तथाकथित राष्ट्रीय लहरों के थपेड़े खा कर भी अपने पैरों
पर खड़े रह पाते हैं। 
नरेंद्र मोदी को मिले जनादेश से जुड़ा हुआ सबसे पेचीदा सवाल यह है कि क्या यह एक सांप्रदायिक जनादेश है? चुनाव मुहिम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उत्साहपूर्ण भागीदारी, मोदी का अतीत यानी 2002 में गुजरात का अल्पसंख्यक विरोधी नरसंहार, उत्तर प्रदेश में अमित शाह द्वारा दिया गया ‘बदला लेने का समय’ वाला कुख्यात भाषण और भाजपा के वोटों में अल्पसंख्यकों की बहुत कम हिस्सेदारी का स्थापित तथ्य हमारे सामने एक प्रलोभन परोसता है कि हम इस जनादेश को सांप्रदायिक क़रार दे दें। यह प्रलोभन उस समय और भी आकर्षक हो जाता है जब भाजपा का वोट-समीकरण ‘हिंदू वोट’ की तरह दिखता है। उत्तर प्रदेश में इस पार्टी को मिली अभूतपूर्व 71 सीटों की अंतर्कथा टटोलने पर यह भी दिखता है कि प्रांत के कई इलाक़ों में वोटों की प्रतिक्रियात्मक सांप्रदायिक गोलबंदी हुई थी। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या इन प्रेक्षणों के आधार पर भाजपा के पक्ष में जुटा ‘हिंदू वोट’ सांप्रदायिक करार दिया जा सकता है? यह एक तथ्य है कि समीक्षित चुनाव से पहले इस देश में या उत्तर भारत में न तो रामजन्मभूमि आंदोलन जैसी कोई मुहिम चल रही थी, और न ही हिंदुत्ववादी शक्तियों द्वारा किसी तरह की व्यापक सांप्रदायिक गोलबंदी की रणनीति के आधार पर राजनीति की जा रही थी। उत्तर प्रदेश का सांप्रदायिक माहौल ज़रूर ख़राब था, लेकिन अगर सिर्फ़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुज़फ़्फ़रनगर की मुसलमान विरोधी हिंसा  पर ही नज़र डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा विरोधी पार्टियां सांप्रदायिक सद्भाव के रक्षक की भूमिका निभाने के बजाय सांप्रदायिकताओं का खेल करने में लगी हुई थीं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की घटनाओं में अपने हाथ की तीखी सार्वजनिक आलोचना होते देख कर और इस डर से कि लंबे अरसे से समर्थन दे रहे मुसलमान मतदाता कहीं नाराज़ न हो जायें, समाजवादी पार्टी चुनाव से ठीक पहले बड़े पैमाने पर उस मुहिम पर निकल पड़ी जिसे भाजपा ‘तुष्टीकरण’ की संज्ञा देती है। उसके मंत्रिमंडल में और राज्य-मंत्रियों के दर्जे वाली लंबी-चौड़ी सूची में मुसलमान नामों की संख्या असाधारण रूप से बढ़ती चली गयी। यह प्रक्रिया यहीं नहीं रुकी, बल्कि सेकुलर चरित्रा वाली लोकोपकारी योजनाओं (जैसे, बेटियों को दिया जाने वाला शिक्षा-धन वग़ैरह) की भी सरकार ने ‘कम्युनल टारगेटिंग’ की। इसका समाजवादी पार्टी के स्थायी यादव समर्थन आधार ने भी बुरा माना।
             विडंबनापूर्ण नतीजा यह निकला कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों के खि़लाफ़ हिंसा न रोक पाने वाली सरकार की छवि ‘मियां भाइयों की तरफ़दारी करने वाली सरकार’ जैसी बन गयी और इसकी प्रतिक्रिया में विभिन्न जातिगत समुदाय ख़ुद को ‘हिंदू श्रेणी’ में देखने लगे। इस परिस्थिति का लाभ उठाने के लिए अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा तैयार बैठी थी। सेकुलरवादी राजनीति को दो तरह की सांप्रदायिकताओं (बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक) की प्रतियोगिता में बदल देने का खेल कांग्रेस ने इस बार भी खेला। उत्तर प्रदेश और बिहार में तो वह प्रभावहीन थी, पर बाकी देश में उसकी चुनावी रणनीति यही थी। दिल्ली में सोनिया गांधी शाही इमाम से मिल कर ‘सेकुलर वोटों को एकजुट’ करने की अपील करने में लगी हुई थीं। इसका व्यावहारिक मतलब किसी से छिपा नहीं था कि कांग्रेस नरेंद्र मोदी को हराने के नाम पर मुसलमान वोटों को अपने ध्रुव पर बटोरना चाहती है। यह बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के बरक्स अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता को प्रोत्साहित करने का खुला नमूना था। लगभग इसी तरह की राजनीति असम में भी कांग्रेस द्वारा की जा रही थी। इस आत्मघाती चुनावी रणनीति का लाभ भी भाजपा को मिला और जो कांग्रेस असम में पिछला परिणाम दोहराने के मंसूबे बांध रही थी, वह भाजपा की जबरदस्त प्रतिक्रियात्मक जीत से हतप्रभ रह गयी।
निष्कर्ष :
इस विश्लेषण से अभी तक हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि भाजपा को प्राप्त होने वाला जनादेश कमोबेश ऊंची जातियों के असाधारण समर्थन से मिल कर बना है। लेकिन इसमें ग़ैर-यादव और ग़ैर-जाटव पिछड़े और दलित मतदाताओं ने भी अपनी भागीदारी की है। अल्पसंख्यकों की आवाज़ इस जनादेश में न के बराबर ही शामिल है। जेंडर के कोण से देखने पर इस जनादेश के साथ स्त्रिायों की सहमति पुरुषों के मुक़ाबले कम है, लेकिन दूसरी तरफ़ एक महत्त्वपूर्ण समाजशास्त्राीय तथ्य यह है कि शिक्षा के तिरछे ऊर्ध्वगामी धरातल पर चढ़ते हुए भारतीय मतदाता उत्तरोत्तर भाजपा की तरफ़ झुकते जा रहे हैं। इसके साथ ही हमें यह भी पता चलता है कि यह जनादेश मुख्यतः उत्तरी, मध्य और पश्चिमी भारत का है और इसमें पूर्वी व दक्षिणी भारत की भागीदारी बहुत कम है। जनादेश के दो अन्य पहलू भी हैं। पहला, नरेंद्र मोदी की बढ़त को रोकने में उत्तर भारत की वे पार्टियां नाकाम रही हैं जो ख़ुद को दलित और पिछड़े हितों की प्रतिनिधि के तौर पर पेश करती हैं। दरअसल, इन पार्टियों के नीचे से उनकी लोकप्रियता  के खिसकने के संकेत भी हवाओं में हैं। यह तथ्य हमें विवश करता है कि हम अपना राजनीतिक परिप्रेक्ष्य दुरुस्त करें और इन पार्टियों को दक्षिण और पूर्व के उन क्षेत्राीय दलों के साथ रख कर न देखें जिनकी राजनीति एक समुदाय-केंद्रित न हो कर कहीं व्यापक सांस्कृतिक और जातीय विशिष्टता की राजनीति है। दूसरा, भाजपा को मिला जनादेश अपने सांप्रदायिक पहलुओं के बावजूद उस तरह से सांप्रदायिक नहीें है जिस तरह से नब्बे के दशक में उसे मिला जनादेश सांप्रदायिक था। भाजपा को ग़ैर-भाजपा दलों की
सिद्धांतहीनता और मौक़ापरस्ती का लाभ मिला है। ये दल सच्चा सेकुलर रवैया त्याग कर सांप्रदायिकताओं के खेल को ही सेकुलर राजनीति का पर्याय बनाने पर तुले थे जिसका भीषण नुकसान उन्हें उठाना पड़ा। अब सवाल यह है कि आखि़र जिन लोगों ने नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट दिये, उन्होंने क्या सोच कर यह फ़ैसला किया होगा? मानस चक्रवर्ती कहते हैं कि उन्होंने विकास के नाम पर वोट दिये हैं। चक्रवर्ती वोटरों की विकास की इच्छा और कॉरपोरेट ताक़तों के समर्थन को आपस में नहीं जोड़ते। पर, आदित्य निगम कहते हैं कि यह विकास की इच्छा कॉरपोरेट ताक़तों द्वारा गढ़ा गया और हरकत में लाया गया एक विचार-तंत्रा है जिसे लोगों को थमाया गया। दोनों प्रेक्षण अलग-अलग हैं, पर यह तो मानना ही होगा कि चाहे लोगों ने विकास की इच्छा अपने-आप व्यक्त की हो या उन्हें यह विचार-तंत्रा थमाया गया हो, दोनों ही सूरतों में वोटरों के मन में विकास की इच्छा अदम्य है। जाहिर है कि यह विकास वह नहीं है जो कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन वाली सरकार उन्हें थमा रही थी। लोग महंगाई, भ्रष्टाचार, निर्णयहीनता और बेरोज़गारी से मुक्त प्रगति के आकांक्षी हैं जिसका पर्याय खोखला ग्रोथ रेट नहीं हो सकता, और न ही इन चारों समस्याओं से छुटकारा पाने का ताल्लुक कॉरपोरेटपरस्ती से है। इस जनादेश ने गेंद पूरी तरह से भाजपा, नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ और कॉरपोरेट ताक़तों के पाले में डाल दी है। खेल अब उन्हें खेलना है, और जनता (चाहे उसने मोदी के पक्ष में वोट
दिया हो या विपक्ष में) उन लाभों की प्रतीक्षा करेगी जो वायदों की शक्ल में किये गये हैं। अच्छे दिन अगर छह से आठ महीने के भीतर आते हुए नहीं दिखे, भाजपा को उससे भी ज़्यादा भारी क़ीमत चुकानी होगी जो कांग्रेस ने चुकाई है।

रविवार, 12 जुलाई 2015

नरम हिंदुत्व और गरम हिंदुत्व

लोकसंघर्ष !


Posted: 11 Jul 2015 09:23 AM PDT

वर्तमान एनडीए सरकार की नीति है- सांस्कृतिक आयोजनों पर पानी की तरह पैसा बहाओ, कुबेरपतियों की कंपनियों को टैक्स में छूट दो और समाज कल्याण के बजट को घटाते जाओ। इस प्रक्रिया के चलते, समाज के दमित व शोषित वर्ग यदि भूख, कर्ज और आत्महत्या के दुष्चक्र में फंसते जा रहे हैं तो सरकार की बला से। कार्पोरेट घरानों और कुछ अरबपति परिवारों की जेबें भरना ज्यादा जरूरी है।
नरम हिंदुत्व और गरम हिंदुत्व दोनों का उद्देष्य हाशिए पर खिसकते जा रहे वंचित वर्गों  को ‘‘अपनी संस्कृति पर गर्व’’ करना सिखाना और उनमें ‘‘फील गुड’’ के भाव को मजबूती देना है। ‘‘इंडिया शाईनिंग’’ व ‘‘फील गुड’’ अभियानों से भाजपा को 2004 के लोकसभा चुनाव में कोई फायदा नहीं हुआ था और भारत की जनता ने इस अभियान और उसे चलाने वालों को सिरे से खारिज कर दिया था। परंतु यह सरकार उसी पुरानी शराब को नई बोतल में पेश कर रही है। लोगों से कहा जा रहा है कि वे अपनी लड़की के साथ सेल्फी लें और गर्व महसूस करें, योग करें और खुश हों, सड़कों पर झाड़ू लगाएं और आल्हादित हो जाएं।
सामाजिक क्षेत्र के लिए बजट में कटौती
सन् 2014-15 के बजट में सामाजिक क्षेत्र को, कुल बजट का 16.3 प्रतिषत हिस्सा आवंटित किया गया था। सन् 2015-16 में यह आवंटन घटकर 13.7 प्रतिशत रह गया। ताजा बजट में महिला एवं बाल विकास के लिए आवंटन, पिछली बार की तरह, कुल बजट का मात्र 0.01 प्रतिशत है। लैंगिक बजट के लिए आवंटन 4.19 प्रतिशत से घटकर 3.71 प्रतिशत रह गया है। सन् 2014-15 के पुनर्रीक्षित बजट अनुमानों के लिहाज से, सन् 2015-16 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के आवंटन में 49.3 प्रतिशत व लैंगिक बजट में 12.2 प्रतिशत की कमी आई है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में लैंगिक बजट, 17.9 प्रतिशत कम हो गया है। लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहन देने की सरकारी घोषणाओं के बाद भी, स्कूल शिक्षा के लिए लैंगिक बजट में 8.3 प्रतिशत की कमी आई है। ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’’ अभियान बड़े जोरशोर से चलाया गया परंतु इस अभियान के लिए बजट में केवल 100 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। समन्वित बाल विकास कार्यक्रम (आईसीडीएस), जिससे लगभग 10 करोड़ महिलाएं और बच्चे लाभांवित होते हैं, का बजट आधा कर दिया गया है। सन् 2014-15 में इस मद में रूपए 18,108 करोड़ का प्रावधान किया गया था, जो कि सन् 2015-16 में घटकर 8,245 करोड़ रह गया। पेयजल और साफ-सफाई संबंधी योजनाओं के लिए बजट प्रावधान, 12,100 करोड़ रूपए से घटाकर 6,236 करोड़ रूपए रह गया।
कुल मिलाकर, सामाजिक क्षेत्र के लिए आवंटन में 1,75,122 करोड़ रूपए की कमी आई। इसमें से 66,222 करोड़ रूपए सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के लिए दिए जाने वाले अनुदान को घटाकर, 5,900 करोड़ रूपए पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष को आवंटन में कमी कर और 1,03,000 करोड़ रूपए खाद्य सुरक्षा योजना को लागू न कर बचाए गए। इससे महिला और बाल विकास, कृषि (जो देश की 49 प्रतिशत आबादी के जीवनयापन का जरिया है), सिंचाई, पंचायती राज,शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास व अनुसूचित जाति/जनजाति कल्याण से संबंधित कार्यक्रम प्रभावित होंगे। स्वास्थ्य के बजट में 17 प्रतिशत की कमी की गई। सन् 2015-16 के बजट में अनुसूचित जाति विशेष घटक योजना के लिए रूपए 30,852 करोड का प्रावधान किया गया और आदिवासी उपयोजना के लिए रूपए 19,980 करोड का। ये दोनों योजनाएं अनुसूचित जातियों व जनजातियों के विकास और कल्याण के लिए बनाई गई हैं और इनका उद्देष्य यह है कि इन वर्गों की भलाई की योजनाओं पर बजट का लगभग उतना ही हिस्सा खर्च किया जाए, जितना इन वर्गों का देश की कुल आबादी में हिस्सा है। अनुसूचित जातियां, देश की कुल आबादी का 16.6 प्रतिशत हैं जबकि अनुसूचित जनजातियों का कुल आबादी में हिस्सा 8.5 प्रतिशत है। सन् 2015-16 के बजट में विशेष घटक योजना के लिए कुल बजट का केवल 6.63 प्रतिशत हिस्सा उपलब्ध करवाया गया है।
स्कूली शिक्षा व साक्षरता के लिए आवंटन, 2014-15 में 51,828 करोड़ रूपए से घटाकर 2015-16 में 39,038 करोड़ रूपए कर दिया गया है। इसी अवधि में उच्च शिक्षा विभाग के लिए आवंटन, 16,900 करोड़ रूपए से घटाकर 15,855 करोड़ रूपए और सर्वशिक्षा अभियान के लिए 28,258 करोड़ से घटाकर 22,000 करोड़ रूपए कर दिया गया है। मध्याह्न भोजन योजना भारत सरकार की एक अत्यंत महत्वपूर्ण योजना है। इसके लिए सन् 2014-15 में 13,215 करोड़ रूपए आवंटित किए गए थे, जो कि सन् 2015-16 में घटकर 9,236 करोड़ रूपए रह गए। आवंटन में वास्तविक कमी, इन आंकड़ों से कहीं ज्यादा है क्योंकि पिछले एक वर्ष में रूपए की कीमत में कमी आई है। माध्यमिक शिक्षा के लिए आवंटन 8,579 करोड़ रूपए से घटकर 6,022 करोड़ रूपए रह गया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का आवंटन जस का तस है जिसका अर्थ यह है कि वास्तविक  अर्थ में उसमें कमी आई है। तकनीकी शिक्षा के लिए आवंटन में 434 करोड़ रूपए की कमी की गई है। भारतीय विज्ञान शिक्षा व अनुसंधान संस्थान का बजट 25 प्रतिषत घटा दिया गया है।
सरकार ने अमीरों द्वारा चुकाए जाने वाले संपत्तिकर को समाप्त कर दिया है और इस कर से होने वाली 8,325 करोड़ रूपए की वार्षिक आमदनी की प्रतिपूर्ति के लिए आम जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ा दिया है। पिछले बजट की तुलना में, इस बजट में सरकार को अप्रत्यक्ष करों से होने वाली आमदनी में रूपए 23,383 करोड़ की वृद्धि हुई है।
उच्च जातियों की संस्कृति
जहां एक ओर सामाजिक क्षेत्र पर होने वाले खर्च और कार्पोरेट टैक्सों में कमी की जा रही है वहीं हिंदू समुदाय की उच्च जातियों के श्रेष्ठी वर्ग की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने अपने खजाने के मुंह खोल दिए हैं। योग, जिसका मूल स्त्रोत ब्राह्मणवादी धर्मशास्त्र, उपनिषद व पतंजलि जैसे दार्षनिक ग्रंथ हैं और जिसे मुख्यतः मध्यम वर्ग के लोग करते आए हैं, को भारत के ‘‘साॅफ्ट पाॅवर’’ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सुझाव पर दिसंबर 2014 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने भारत द्वारा प्रस्तुत एक प्रस्ताव को अपनी मंजूरी दी, जिसके तहत 21 जून को ‘‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’’ घोषित किया गया। इस साल 21 जून को सैन्य व पुलिसकर्मियों और स्कूल व कालेज के विद्यार्थियों को इकट्ठा कर, दिल्ली के राजपथ पर एक बड़ा कार्यक्रम किया गया। यह आयोजन लगभग उतना ही भव्य था, जितना की गणतंत्र दिवस पर किया जाता है। इस कार्यक्रम को गिनीज बुक आॅफ वल्र्ड रिकार्डस में जगह मिली। गिनीज बुक कहती है ‘‘भारत में दिल्ली के राजपथ पर 21 जून 2015 को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर भारत सरकार के आयुष मंत्रालय द्वारा आयोजित कार्यक्रम में 35,985 व्यक्तियों ने एक साथ योग किया, जो कि दुनिया की सबसे बड़ी योग क्लास थी।
‘‘यह कार्यक्रम दिल्ली के केंद्र में स्थित प्रसिद्ध राजपथ के 1.4 किलोमीटर लंबे हिस्से में आयोजित किया गया। मुख्य मंच पर चार प्रशिक्षक योग कर रहे थे और उनकी तस्वीरों को 32 विशाल एलईडी स्क्रीनों के जरिए वहां मौजूद लोगों को दिखाया जा रहा था ताकि वे प्रशिक्षकों के साथ-साथ योग कर सकें। कार्यक्रम की शुरूआत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण से हुई। भाषण के बाद उन्होंने भी इस योग प्रषिक्षण में हिस्सा लिया। कार्यक्रम में (लगभग) 5,000 स्कूली बच्चे, 5,000 एनसीसी के कैडिट, 5,000 सेना के जवान, 1,200 महिला पुलिस अधिकारी, 5,000 केंद्रीय मंत्री व अन्य विशिष्ट जन, 5,000 राजनयिक व विदेशी नागरिक और विभिन्न योग केंद्रों के 15,000 सदस्यों ने भाग लिया। यह सुनिष्चित करने के लिए कि सभी प्रतिभागी ठीक ढंग से विभिन्न आसन करें, आयुष मंत्रालय ने कार्यक्रम से दो माह पहले उन्हें किए जाने वाले आसनों का वीडियो उपलब्ध करवाया ताकि वे अभ्यास कर सकें।’’
इस कार्यक्रम के प्रचार का जिम्मा केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को सौंपा गया, जिसने इस पर 100 करोड़ रूपए खर्च किए। आयुष मंत्रालय ने इसके अतिरिक्त 30 करोड़ रूपए खर्च किए। कार्यक्रम के इंतजाम और सुरक्षा आदि पर कितना खर्च हुआ, इसके संबंध में कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2013 में इलाहाबाद में आयोजित कुंभ पर 1,151 करोड़ रूपए खर्च किए गए, जिसमें से 1,017 करोड़ रूपए केंद्र सरकार ने उपलब्ध करवाए और 134 करोड़ रूपए राज्य सरकार ने खर्च किए। नासिक में 2015 में आयोजित होने वाले कुंभ मेले पर संभावित खर्च रूपए 2,380 करोड़ है। अर्थात दो वर्षों में कंुभ मेले के आयोजन पर होने वाला खर्च दो गुना से भी अधिक हो गया है। नासिक में सुरक्षा इंतजामों के लिए 15,000 पुलिसकर्मियों की ड्यूटी लगाई जाएगी। पानी की सप्लाई के लिए 145 किलोमीटर लंबी पाईप लाईने बिछा दी गई हैं। करीब 450 किलोमीटर लंबी बिजली की लाईनों से 35 पाॅवर सब स्टेशनों के जरिए 15,000 स्ट्रीट लाईटों तक बिजली पहुंचाई जाएगी।
संस्कृत, जो आज भारत के किसी भी हिस्से में बोलचाल की भाषा नहीं है, को बढ़ावा देने के लिए एनडीए सरकार धरती-आसमान एक कर रही है। बेशक, उन लोगों को संस्कृत अवश्य सीखनी चाहिए जो हिंदू दर्शन या धार्मिक गं्रथों को पढ़ना चाहते हैं या उन पर शोध करना चाहते हैं। परंतु आम लोगों को संस्कृत सिखाने की कोई आवष्यकता नहीं है। वैसे भी, प्राचीन भारत में संस्कृत, नीची जातियों का दमन करने के उपकरण के तौर पर इस्तेमाल की जाती थी। जो शूद्र संस्कृत बोलता था, सजा के तौर पर उसकी जीभ काटी जा सकती थी। अगर कोई शूद्र संस्कृत सुन लेता था तो उसके कान में पिघला हुआ सीसा डाला जा सकता था और अगर कोई शूद्र संस्कृत पढ़ता था तो उसकी आंखे निकाली जा सकती थीं। एनडीए सरकार भारी रकम खर्च कर संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन को प्रोत्साहन दे रही है। कंेद्रीय मानव संसाधान मंत्रालय ने शैक्षणिक सत्र 2013-14 के अधबीच में, केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन की जगह संस्कृत को तीसरी अनिवार्य भाषा बना दिया। यह इस तथ्य के बावजूद कि संस्कृत पढ़ाने के लिए न तो पर्याप्त संख्या में अध्यापक उपलब्ध थे और ना ही पाठ्यपुस्तकें थीं। थाईलैंड में 28 जून से 2 जुलाई 2015 तक आयोजित विश्व संस्कृत सम्मेलन में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के नेतृत्व में 250 सदस्यों के भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने हिस्सा लिया। इनमें से 30, आरएसएस से जुड़े संस्कृत भारती से थे।
नरम हिंदुत्व और गरम हिंदुत्व
सरकार करदाताओं के धन का इस्तेमाल, नरम हिंदुत्व को बढ़ावा देने के लिए कर रही है। भाजपा के कई नेता, जिनमें मंत्री और सांसद शामिल हैं, गरम हिंदुत्व के झंडाबरदार बने हुए हैं। वे गैर-हिंदू धर्मावलंबियों के विरूद्ध आक्रामक भाषा का इस्तेमाल कर रहे हंै और उनके खिलाफ नफरत फैला रहे हैं। गरम हिंदुत्व का लक्ष्य है देष को गैर-हिंदुओं से मुक्त कराना या कम से कम उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर, मताधिकार से वंचित करना। हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए गरम हिंदुत्ववादी, युद्ध करने के लिए भी तैयार हैं। अलग-अलग बहानों से, जिनमें गौवध, लवजिहाद, हिंदुओं के पवित्र प्रतीकों का अपमान, धर्मपरिवर्तन आदि शामिल हैं, दंगे भड़काए जा रहे हैं। साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ, साध्वी निरंजन ज्योति व गिरिराज सिंह जैसे लोग दिन-रात जहर उगल रहे हैं।
दूसरी ओर, नरम हिंदुत्व का उद्देष्य मीडिया, शिक्षा संस्थाओं और बाबाओं की मदद से धार्मिक-सांस्कृतिक विमर्ष पर हावी होना और ऊँची जातियों के हिंदुओं का सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करना है। धार्मिक-सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने की इस कोशिश से भारत की धार्मिक प्रथाओं, विष्वासों, सांस्कृतिक परंपराओं और जीवन पद्धति की विविधता प्रभावित हो रही है। हिंदू धर्म के मामले में भी केवल उसके ब्राह्मणवादी संस्करण को प्रोत्साहित किया जा रहा है। हिंदू धर्म में सैंकड़ों पंथ और विचारधाराएं समाहित हैं, जिनमें लोकायत, नाथ व सिद्ध जैसी परंपराएं तो शामिल हैं ही, सभी जातियों, संस्कृतियों और परंपराओं के सैंकड़ों भक्ति संतों की शिक्षाएं भी उसका हिस्सा हैं। क्यों न डाॅ. बाबा साहेब अंबेडकर द्वारा प्रतिपादित नवायान बौद्ध धर्म को प्रोत्साहित किया जाए? क्यों न जैन और सिक्ख धर्म की शिक्षाओं का प्रसार किया जाए?
दरअसल, नरम हिंदुत्व और गरम हिंदुत्व के लक्ष्य एक ही हैं। और केवल सामरिक कारणों से ये दो अलग-अलग रणनीतियां इस्तेमाल की जा रही हैं। नरम हिंदुत्व उन लोगों के लिए है जिन्हें हिंसा और आक्रामक व अशिष्ट भाषा रास नहीं आती।
नरम और गरम हिंदुत्व एक दूसरे के पूरक हैं।  प्रधानमंत्री मोदी ने तब तक गरम हिंदुत्व का इस्तेमाल किया जब तक वह उनके लिए उपयोगी था और अब उन्होंने नरम हिंदुत्व का झंडा उठा लिया है। एनडीए सरकार के शासन में आने के बाद बाबू बजरंगी और माया कोडनानी जैसे दोषसिद्ध अपराधी जमानत पर जेलों से बाहर आ गए हैं और एनआईए की वकील रोहिणी सालियान ने आरोप लगाया है कि उन्हें यह निर्देष दिया गया है कि वे मालेगांव बम धमाकों के आरोपी कर्नल पुरोहित, दयानंद पांडे और साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के विरूद्ध चल रहे मुकदमें में नरम रूख अपनाएं और यह भी कि एनआईए नहीं चाहती कि वे यह मुकदमा जीतें। नरम हिंदुत्ववादियों के सत्तासीन होने से गरम हिंदुत्ववादियों के हौसले बुलंदियों पर हैं और वे दिन पर दिन और हिंसक और आक्रामक होते जा रहे हैं। उन्हें कानून का कोई डर नहीं है। प्रधानमंत्री, गिरीराज सिंह व साक्षी महाराज जैसे लोगों की कुत्सित बयानबाजी की निंदा नहीं करते-मौनं स्वीकृति लक्षणं। नरम हिंदुत्व का एक लाभ यह है कि यह उन लोगों में, जो धीरे-धीरे गरीबी के दलदल में और गहरे तक धसते जा रहे हैं, गर्व का झूठा भाव पैदा करता है। परंतु यह खेल ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा और जल्दी ही लोगों को यह समझ में आ जाएगा कि गरीबी, बेकारी और भूख इस देश की मूल समस्याएं हैं और उनसे मुकाबला किए बगैर, आम जनता का सही मायने में सशक्तिकरण संभव नहीं है।
-इरफान इंजीनियर