The belief of Aryan superiority and identifying Aryans with white skin and blue eyes was a strong component of Nazi Germany’s racial beliefs. It was intimately connected to the larger racial construction underlying imperialism. A number of scientists used the emerging disciplines of anthropology, linguistics and biology to justify brutal colonial oppression and even genocide with evolutionary arguments of survival of the fittest. It is not surprising that the RSS, with their admiration for Hitler, should seek to use the superior Aryan race theory for its reconstruction of Indian history. In this exercise, it is helped by a set of “academics”, largely Non Resident Indian (NRI) engineers turned historians, who attempt to use a little history and science with very large doses of “magical” thinking to substantiate the RSS view of history. These are the “revisionist” historians who believe that India is being denied its “rightful” place in world history due to machinations of establishment “western” historians.
The Aryan race theory fell into disrepute as the racial stereotypes constructed in 19th early 20th century were found to have little validity with advances in knowledge. It is now clear that genetic differences between races are small compared to genetic variations within any population group and that skin colour co-relates poorly to any such genetic difference. Particularly damning for racism is the discovery that Homo sapiens or modern human beings evolved first in Africa only about 200,000 years back, leaving Africa for Middle East and Europe only 50,000-70,000 years back. Genetic mapping and linguistic studies have been used to examine the diffusion of Homo sapiens across the globe. The picture that emerges is one of fairly late diffusion out of Africa and therefore explains the relatively low genetic variation between races.
रत्तू जी उनके पैरोँ के पास बैठ गए और आँखों में आंसू भरकर कहने लगे - बाबासाहब सुबह के 8:30 बज चुके है। आपको 12 घण्टे हो चुके है। आखिर आप इतनी महनत क्यों कर रहे हो? बाबासाहब ने कहा - रत्तू, मेरा समाज अभी बहुत पीछे है। मेरे लोग अभी दिशाहीन है। मेरे मरने के बाद मेरी ये किताबे ही तो उनको राह
दिखाएंगी। अब मै पूरे देश में, हर घर में तो नही जा सकता लेकिन मेरा साहित्य जरूर जायेगा। लोग मेरे
विचारो को समझ पाएंगे। मेरे सिद्धांत, विचार, दर्शन और आदर्श मेरी किताबो में ही मिलेंगे। इसलिए मै
इतनी मेहनत कर रहा हूँ।
( नानकचन्द रत्तू जी द्वारा लिखित पुस्तक - डॉ. अम्बेडकर, कुछ अनछुए पहलू से)
आतंकवाद की जड़ें पश्चिम एशिया के तेल भंडारों पर कब्जा करने की राजनीति में हैं। अमरीका ने अलकायदा को समर्थन और बढ़ावा दिया। पाकिस्तान में ऐसे मदरसे स्थापित हुए, जिनमें इस्लाम के वहाबी संस्करण का इस्तेमाल 'जिहादियों' की फौज तैयार करने के लिए किया गया ताकि अफगानिस्तान पर काबिज़ रूसी सेना से मुकाबला किया जा सके। अमरीका ने अलकायदा को 800 करोड़ डॉलर और 7,000 टन हथियार उपलब्ध करवाए,जिनमें स्टिंगर मिसाइलें शामिल थीं। व्हाईट हाउस में हुई एक प्रेस कान्फ्रेंस में अलकायदा के जन्मदाताओं को अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन ने अमरीका के संस्थापकों के समकक्ष बताया। ईरान में प्रजातांत्रिक ढंग से निर्वाचित मोसाडेग सरकार को 1953 में उखाड़ फेंका गया। उसके साथ ही वह घटनाक्रम शुरू हुआ, जिसके चलते इस्लाम की हिंसक व्याख्याओं का बोलबाला बढ़ता गया और उसके उदारवादी.मानवतावादी चेहरे को भुला दिया गया। मौलाना रूमी ने 'शांति और प्रेम को इस्लाम के सूफी संस्करण का केंद्रीय तत्व निरूपित किया था।' फिर क्या हुआ कि आज वहाबी संस्करण दुनिया पर छाया हुआ है। इस्लाम का सलाफी संस्करण लगभग दो सदियों पहले अस्तित्व में आया था परंतु क्या कारण है कि उसे मदरसों में इस्तेमाल के लिए केवल कुछ दशकों पहले चुना गया। अकारण हिंसा और लोगों की जान लेने में लिप्त तत्वों ने जानते बूझते इस्लाम के इस संस्करण का इस्तेमाल किया ताकि उनके राजनीतिक लक्ष्य हासिल हो सकें।
इतिहास गवाह है कि धर्मों का इस्तेमाल हमेशा से सत्ता हासिल करने के लिए होता आया है। राजा और बादशाह क्रूसेड, जिहाद और धर्मयुद्ध के नाम पर अपने स्वार्थ सिद्ध करते आए हैं। भारत में अंग्रेजों के राज के दौरान अस्त होते जमींदारों व राजाओं ;दोनों हिंदू व मुस्लिम के वर्ग ने मिलकर सन 1888 में यूनाइटेड इंडिया पेट्रिआर्टिक एसोसिएशन का गठन किया और इसी संस्था से मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा उपजे। सांप्रदायिक शक्तियों ने घृणा फैलाई जिससे सांप्रदायिक हिंसा भड़की। यूनाइटेड इंडिया पेट्रिआर्टिक एसोसिएशन के संस्थापक थे ढाका के नवाब और काशी के राजा। फिर हम मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा जैसे सांप्रदायिक संगठनों के उभार के लिए हिंदू धर्म व इस्लाम को दोषी ठहरायें या उस राजनीति को, जिसके चलते अपने हितों की रक्षा के लिए इन राजाओं.जमींदारों ने इस्लाम व हिंदू धर्म का इस्तेमाल किया। इस समय हम दक्षिण एशिया में म्यान्मार और श्रीलंका में बौद्ध धर्म के नाम पर गठित हिंसक गुटों की कारगुजारियां देख रहे हैं।
कोई भी इस बात से असहमत नहीं है कि स्कूलों में लाइब्रेरी होनी चाहिए और पढ़ने पर जोर होनाचाहिए। बावजूद तमाम सहमति के स्कूलों में पुस्तकालय नहीं हैं या जो हैं भी वे ठीक से नहीं चल पा रहे हैं। पढ़ने की क्षमता का विकास करने वाली परिस्थितियाँ स्कूलों मेंक्या, शिक्षकों के प्रशिक्षण संस्थानों में भी नहीं हैं। और बहुत करके हमारे महाविद्यालयों में भी नहीं हैं तो शायद इसका एक कारण है कि आज हमारी शिक्षा व्यवस्था जिसभी स्थिति में है, इस शिक्षा व्यवस्था को दरअसल लाइब्रेरी की जरूरत नहीं है। और जिस चीज की जरूरत नहीं है अगर वह पैदा नहीं होती या पैदा की जाने पर भी अगरवह पल्लवित नहीं होती तो बहुत चकित और न ही बहुत निराश होना चाहिए। जिस चीज की जरूरत नहीं है वह अगर ठीक से काम नहीं कर रही है तो कौन सा आश्चर्य है।इस बात को कहते हुए मैं वास्तव में इस दृष्टिकोण से विचार करना चाहता हूँ कि क्या हमारी स्कूली व्यवस्था में लाइब्रेरी की आवश्यकता है?
पढ़ने लिखने कीसंस्कृति को सामान्य बनाने की, हर इन्सान को किताबों के प्रति आकर्षित करने की, और किताब को एक ऐसा माध्यम बनाने की जिससे समाज में एक दूसरे की बातसुनने की, एक दूसरे की बात सहने की, अपनी बात आत्मविश्वास के साथ कहने की तहजीब पैदा हो, चिल्लाकर कहने की नौबत न आए। हथियार उठाने की नौबत नआए। शान्ति की संस्कृति जो कि अपनी बात कहती है लेकिन उससे जब कोई सहमत नहीं होता तो इतना गुस्सा नहीं करती कि दूसरे को लगे कि उसकी बात बिल्कुल व्यर्थहै। ये एक राजनीतिक मसला भी है।
बजट देश का
आज कल में बजट देश का सबके सामने आयेगा
कुल मिला कर पॉपुलर बजट इसको कहा जायेगा
दिखावे के वास्ते गरीब को कुछ लाली पॉप मिलेंगे
अम्बानी अडानी के बागों में दोबारा से फूल खिलेंगे
मध्यमवर्ग भरम में रहेगा सच को समझ न पायेगा
विकास का धर्राटा उठेगा पूरे दरवाजे खोले जायेंगे
बदेशी पूंजी के निवेश को कई क्षेत्रों में खूब बढ़ाएंगे
तरक्की जरूर होगी मगर इसका फल कौन खायेगा
सब्सिडी का खेल खेलेंगे कोई पाएंगे तो कोई झेलेंगे
टैक्स पूरी जनता पर मजबूरी कह करके ये पेलेंगे
इलाज महंगा पढ़ाई महंगी पेट मुश्किल भर पायेगा
एक हिस्से के पास पैसा खूब इकठ्ठा होना लाजमी
दूज्जे हिस्से की नौकरी अपनी होगा खोना लाजमी
क्लेश द्वेष माँर काट बढ़ेगी शासन डंडा फेर लायेगा
Of all the mega-corps running amok, Monsanto has consistently outperformed its rivals, earning the crown as “most evil corporation on Earth!” Not content to simply rest upon its throne of destruction, it remains focused on newer, more scientifically innovative ways to harm the planet and its people.
वर्ष 2014-15 के अंतरिम बजट में चार फीसदी की रियायती ब्याज दर पर आठ लाख करोड़रुपये कृषि ऋण के लिए उपलब्ध कराया गया है, जिसका फायदा मुख्य रूप से कृषि व्यवसाय में लगे उद्योग उठा रहे हैं। इसमें से मुश्किल से 60 हजार करोड़ रुपयेकिसानों के पास जा रहे हैं, जबकि बाकी 7.4 लाख करोड़ रुपये कृषि व्यवसाय में लगे उद्योग हड़प रहे हैं।
वास्तव में हमारी चिकित्सा शिक्षा और सामान्य शिक्षा दोनों ही हमारी आज की बाजारी समाज व्यवस्था के मातहत ही फलती फूलती हैं। मौजूदा शिक्षा सिर्फ ट्रेनिंग देने की एक ऐसी प्रक्रिया नहीं हैं जिससे एक खास काम लिया जा सके बल्कि यह एक व्यक्ति को एक खास तरह का अपेक्षित रोल अदा करने से रोकने की प्रक्रिया भी है।
सवाल यह है कि तमाम वैज्ञानिक प्रगति और उससे प्रदत सुविधाओं के उपयोग के बावजूद हमारे समाज एवं जीवन के स्थूल और सूक्षम आयामों में धार्मिक पाखंड की जकड़न और उसकी आक्रामकता इतनी सघन क्यों है? आकंठ भौतिकवादी सुविधाओं के इस्तेमाल में संलग्न समाज अपने अंतकरण में विज्ञान को झांकने की स्वीकृति क्यों नहीं देता? प्राद्योगिकीय उपलब्धियां हमारे जीवन की भौतिक सुख सुविधाओं के उपयोग से इतर हमारी वैज्ञानिक सोच का पोशण क्यों नहीं कर पा रही हैं? अंधविष्वास का विमर्ष वस्तुत धर्म के विमर्ष से नालबद्ध है। इस सत्य से अवगत वेद से लेकर नवजागरण तक के चिंतकों ने अपने बौद्धिक संवादों व सामाजिक संघर्शों में अन्ध विष्वास के सतामीमांसीय आणार धर्म को सैद्धान्तिक विमर्ष से परे क्यों रखा है ? जब भी धर्म पर बहस होती है तो धर्म एवं अध्यात्म में अनतर करने की षाब्दिक परिभाशाएं षुरु कर बहस के मूल मंतव्य को औझल करने की कोषिष क्यों रहती है? अंधविष्वास रोग नहीं उसका लक्ष्ण है। धर्मरुपी रोग को मानव होने की षर्त ओर उसके लक्षण अंधविष्वास को मानव के लिए षर्मनाक दिखाने की कवायद में निहित विरोधाभास के सतासूत्र कहां हैं? क्यों अकादमिक जगत व समाज सुधारकों की दिलचस्पी धर्म को पवित्र व चिंतनेतर मानकर उसे समाज सता निरपेक्ष दिखाने में रहती है ? क्यों पूरा तन्त्र अंधविष्वास को चमतकार कहकर रहस्यवाद को प्रष्नातीत बनाने के साक्ष्य जुटाने में लगा रहता है? सोच व समझ में तर्कषीलता एवं विवेकषीलता के पक्षधर लेखकों का जमावड़ा अपने अपने निजी जीवन में धर्म केन्द्रित विमर्ष पर तर्कषील आत्मसंवाद से परहेज क्यों करता है? हमारे जीवन, सोच एवं सामाजिक व्यवहार के इन विरोधाभाशों के वस्तुनिश्ठ आधार व कारण क्या हैं?
वैज्ञानिक -भौतिकवादी दर्षन ही अंधविष्वास के छल -कपट को जन्म देने वाले धर्म का यथार्थ में उन्मूलन करने के चेतना सूत्र प्रदान करता है। प्रभु वर्ग को कोपरनिकस,बू्रनो, डार्विन नहीं मनु , जिन, मौलवी चाहियें जिसके लिए अंधविष्वास का मकड़जाल उर्वरा भूमि तैयार करता है। जादू टोने व अन्धविष्वास की दुनिया ही अपने सामाजिक चरित्र में सता के लिए सुरक्षा कवच का काम करती है।
यह अकारण नहीं है कि ब्राहमणवादी सामंती- तंत्र के पक्ष-पोशक
तथाकथित आचार्यों एवं श्रृशि मुनियों ने प्राचीन भारत के आयुर्वेदाचार्यों एवं चार्वाक दार्षनिकों को चाण्डाल, वितण्डतावादी, मलेच्छ कहकर जाति-बहिश्कृत किया और तर्क को गम्भीर अपराध की श्रेणी में उाल दिया।
साम्राज्यवादी शक्तियां अखिल भूमण्डल पर शासन करना तो चाहती हैं , लेकिन जानती हैं कि ऐसा कर पाने में वे केवल आर्थिक , राजनीतिक और सैनिक वर्चस्व के बल पर समर्थ नहीं हो सकती । इसके लिए उन्हें स्वयं को दुनिया के लिए सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य बनाना होगा । यही कारण है कि संस्कृति आज इतनी महत्वपूर्ण हो उठी है कि एक ओर सांस्कृतिक साम्राज्यवाद कायम करने की जी तोड़ कोशिशें की जा रही हैं, तो दूसरी ओर दुनिया भर में ऐसी कोशिशों का विरोध और प्रतिरोध किया जा रहा है ।
दलित वर्ग के सन्दर्भ में मुक्ति संग्राम दो शक्तियों के विरुद्ध है । ये शक्तियां हैं --ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी । आंबेडकर ने कहा था कि इस देश में मजदूर वर्ग के दो शत्रु हैं -- ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद । उनके आलोचक, जिसमें समाजवादी मुख्य रूप से थे , ब्राह्मणों को मजदूरों के रूप में समझने में असफल हो गए थे \
फासीवाद को तभी रोका जा सकता है जब उससे विचलित होने वाले लोग सामाजिक न्याय को लेकर उतनी ही दृढ़ प्रतिबद्धता दिखायें, जो साम्प्रदायिकता के प्रति उनके आक्रोश के बराबर हो। क्या हम इस राह पर चल पड़ने के लिए तैयार हैं? क्या हममें से कई लाख लोग न सिर्फ सड़कों पर प्रदर्शनों में, बल्कि अपने-अपने काम की जगहों पर, दफ्तरों में, स्कूलों में, घरों में, अपने हर निर्णय और चुनाव में एकजुट होने को तैयार हैं?
The Aryan race theory fell into disrepute as the racial stereotypes constructed in 19th early 20th century were found to have little validity with advances in knowledge. It is now clear that genetic differences between races are small compared to genetic variations within any population group and that skin colour co-relates poorly to any such genetic difference. Particularly damning for racism is the discovery that Homo sapiens or modern human beings evolved first in Africa only about 200,000 years back, leaving Africa for Middle East and Europe only 50,000-70,000 years back. Genetic mapping and linguistic studies have been used to examine the diffusion of Homo sapiens across the globe. The picture that emerges is one of fairly late diffusion out of Africa and therefore explains the relatively low genetic variation between races.
रत्तू जी उनके पैरोँ के पास बैठ गए और आँखों में आंसू भरकर कहने लगे - बाबासाहब सुबह के 8:30 बज चुके है। आपको 12 घण्टे हो चुके है। आखिर आप इतनी महनत क्यों कर रहे हो? बाबासाहब ने कहा - रत्तू, मेरा समाज अभी बहुत पीछे है। मेरे लोग अभी दिशाहीन है। मेरे मरने के बाद मेरी ये किताबे ही तो उनको राह
दिखाएंगी। अब मै पूरे देश में, हर घर में तो नही जा सकता लेकिन मेरा साहित्य जरूर जायेगा। लोग मेरे
विचारो को समझ पाएंगे। मेरे सिद्धांत, विचार, दर्शन और आदर्श मेरी किताबो में ही मिलेंगे। इसलिए मै
इतनी मेहनत कर रहा हूँ।
( नानकचन्द रत्तू जी द्वारा लिखित पुस्तक - डॉ. अम्बेडकर, कुछ अनछुए पहलू से)
आतंकवाद की जड़ें पश्चिम एशिया के तेल भंडारों पर कब्जा करने की राजनीति में हैं। अमरीका ने अलकायदा को समर्थन और बढ़ावा दिया। पाकिस्तान में ऐसे मदरसे स्थापित हुए, जिनमें इस्लाम के वहाबी संस्करण का इस्तेमाल 'जिहादियों' की फौज तैयार करने के लिए किया गया ताकि अफगानिस्तान पर काबिज़ रूसी सेना से मुकाबला किया जा सके। अमरीका ने अलकायदा को 800 करोड़ डॉलर और 7,000 टन हथियार उपलब्ध करवाए,जिनमें स्टिंगर मिसाइलें शामिल थीं। व्हाईट हाउस में हुई एक प्रेस कान्फ्रेंस में अलकायदा के जन्मदाताओं को अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन ने अमरीका के संस्थापकों के समकक्ष बताया। ईरान में प्रजातांत्रिक ढंग से निर्वाचित मोसाडेग सरकार को 1953 में उखाड़ फेंका गया। उसके साथ ही वह घटनाक्रम शुरू हुआ, जिसके चलते इस्लाम की हिंसक व्याख्याओं का बोलबाला बढ़ता गया और उसके उदारवादी.मानवतावादी चेहरे को भुला दिया गया। मौलाना रूमी ने 'शांति और प्रेम को इस्लाम के सूफी संस्करण का केंद्रीय तत्व निरूपित किया था।' फिर क्या हुआ कि आज वहाबी संस्करण दुनिया पर छाया हुआ है। इस्लाम का सलाफी संस्करण लगभग दो सदियों पहले अस्तित्व में आया था परंतु क्या कारण है कि उसे मदरसों में इस्तेमाल के लिए केवल कुछ दशकों पहले चुना गया। अकारण हिंसा और लोगों की जान लेने में लिप्त तत्वों ने जानते बूझते इस्लाम के इस संस्करण का इस्तेमाल किया ताकि उनके राजनीतिक लक्ष्य हासिल हो सकें।
इतिहास गवाह है कि धर्मों का इस्तेमाल हमेशा से सत्ता हासिल करने के लिए होता आया है। राजा और बादशाह क्रूसेड, जिहाद और धर्मयुद्ध के नाम पर अपने स्वार्थ सिद्ध करते आए हैं। भारत में अंग्रेजों के राज के दौरान अस्त होते जमींदारों व राजाओं ;दोनों हिंदू व मुस्लिम के वर्ग ने मिलकर सन 1888 में यूनाइटेड इंडिया पेट्रिआर्टिक एसोसिएशन का गठन किया और इसी संस्था से मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा उपजे। सांप्रदायिक शक्तियों ने घृणा फैलाई जिससे सांप्रदायिक हिंसा भड़की। यूनाइटेड इंडिया पेट्रिआर्टिक एसोसिएशन के संस्थापक थे ढाका के नवाब और काशी के राजा। फिर हम मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा जैसे सांप्रदायिक संगठनों के उभार के लिए हिंदू धर्म व इस्लाम को दोषी ठहरायें या उस राजनीति को, जिसके चलते अपने हितों की रक्षा के लिए इन राजाओं.जमींदारों ने इस्लाम व हिंदू धर्म का इस्तेमाल किया। इस समय हम दक्षिण एशिया में म्यान्मार और श्रीलंका में बौद्ध धर्म के नाम पर गठित हिंसक गुटों की कारगुजारियां देख रहे हैं।
कोई भी इस बात से असहमत नहीं है कि स्कूलों में लाइब्रेरी होनी चाहिए और पढ़ने पर जोर होनाचाहिए। बावजूद तमाम सहमति के स्कूलों में पुस्तकालय नहीं हैं या जो हैं भी वे ठीक से नहीं चल पा रहे हैं। पढ़ने की क्षमता का विकास करने वाली परिस्थितियाँ स्कूलों मेंक्या, शिक्षकों के प्रशिक्षण संस्थानों में भी नहीं हैं। और बहुत करके हमारे महाविद्यालयों में भी नहीं हैं तो शायद इसका एक कारण है कि आज हमारी शिक्षा व्यवस्था जिसभी स्थिति में है, इस शिक्षा व्यवस्था को दरअसल लाइब्रेरी की जरूरत नहीं है। और जिस चीज की जरूरत नहीं है अगर वह पैदा नहीं होती या पैदा की जाने पर भी अगरवह पल्लवित नहीं होती तो बहुत चकित और न ही बहुत निराश होना चाहिए। जिस चीज की जरूरत नहीं है वह अगर ठीक से काम नहीं कर रही है तो कौन सा आश्चर्य है।इस बात को कहते हुए मैं वास्तव में इस दृष्टिकोण से विचार करना चाहता हूँ कि क्या हमारी स्कूली व्यवस्था में लाइब्रेरी की आवश्यकता है?
पढ़ने लिखने कीसंस्कृति को सामान्य बनाने की, हर इन्सान को किताबों के प्रति आकर्षित करने की, और किताब को एक ऐसा माध्यम बनाने की जिससे समाज में एक दूसरे की बातसुनने की, एक दूसरे की बात सहने की, अपनी बात आत्मविश्वास के साथ कहने की तहजीब पैदा हो, चिल्लाकर कहने की नौबत न आए। हथियार उठाने की नौबत नआए। शान्ति की संस्कृति जो कि अपनी बात कहती है लेकिन उससे जब कोई सहमत नहीं होता तो इतना गुस्सा नहीं करती कि दूसरे को लगे कि उसकी बात बिल्कुल व्यर्थहै। ये एक राजनीतिक मसला भी है।
आज के दौर के कुछ विचारणीय बिंदु
* भेड़ों कि तरह बेघर लोगों का शहरों के ख़राब से ख़राब घरों में बढ़ता जमावड़ा आज की एक सच्चाई है ।
* सभी सामाजिक नैतिक बन्धनों का तनाव ग्रस्त होना तथा टूटते जाना व्यवस्था की दें हैं ।
* परिवार के पितृ स्तात्मक ढांचे में अधीनता (परतंत्रता ) का तीखा होना साफ देखा जा सकता है ।
* पारिवारिक रिश्ते नाते ढहते जाना --- युवाओं के सामने गंभीर चुनौतीयाँ , परिवारों में बुजुर्गों की असुरक्षा का बढ़ते जाना ।
* महिलाओं और बच्चों पर काम का बोझ बढ़ते जाना | असंगठित क्षेत्र में जन सुविधाओं का भी काफी अभाव है | कठिन जीवन होता जा रहा है ।
* मजदूर वर्ग को पूर्ण रूपेण ठेकेदारी प्रथा में धकेला जाना आम बात की तरह देखा जा रहा है ।
* गरीब लोगों के जीने के आधार संकुचित होना
* गाँव से शहर को पलायन बढ़ना तथा लम्पन तत्वों की बढ़ोतरी | शहरों के विकास में अराजकता |
* ठेकेदारों और प्रापर्टी डीलरों का बोलबाला है चरों तरफ ।
* जमीन की उत्पादकता में खडोत , पानी कि समस्या , सेम कि समस्या
* कृषि से अधिक उद्योग कि तरफ व व्यापार की तरफ जयादा ध्यान
* स्थाई हालत से अस्थायी हालातों पर जिन्दा रहने का दौर
* अंध विश्वासों को बढ़ावा दिया जाना | हर दो किलोमीटर पर मंदिर का उपजाया जाना। टी वी पर भरमार है ऐसे मैटर की ।
* अन्याय का बढ़ते जाना।
* कुछ लोगों के प्रिविलिज बढ़ रहे हैं।
* मारूति से सैंट्रो कार की तरफ रूझान | आसान काला धन काफी इकठ्ठा किया गया है।
* उत्पीडन अपनी सीमायें लांघता जा रहा है | रूचिका कांड ज्वलंत उदाहरण है |
* व्यापार धोखा धडी में बदल चुका है
* शोषण उत्पीडन और भ्रष्टाचार की तिग्गी भयंकर रूप धार रही है। भ्रष्ट नेता , भ्रष्ट अफसर और भ्रष्ट पुलिस का गठजोड़ पुख्ता हो गया है ।
* प्रतिस्पर्धा ने दुश्मनी का रूप धार लिया है
* तलवार कि जगह सोने ने ले ली है
* वेश्यावृति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है
* भ्रम व अराजकता का माहौल बढ़ रहा है | धिगामस्ती बढ़ रही है
* संस्थानों की स्वायतता पर हमले बढ़ रहे हैं
* लोग मुनाफा कमा कर रातों रात करोड़ पति से अरब पति बनने के सपने देख रहे हैं और किसी भी हद तक अपने को गिराने को तैयार हैं
* खेती में मशीनीकरण तथा औद्योगिकीकरण मुठ्ठी भर लोगों को मालामाल कर गया तथा लोक जान को गुलामी व दरिद्रता में धकेलता जा रहा है
* बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का शिकंजा कसता जा रहा है
* वैश्वीकरण को जरूरी बताया जा रहा है जो असमानता पूर्ण विश्व व्यवस्था को मजबूत करता जा रहा है
* पब्लिक सेक्टर की मुनाफा कमाने वाली कम्पनीयों को भी बेचा जा रहा है
* हमारी आत्म निर्भरता खत्म करने की भरसक नापाक साजिश की जा रही हैं
* साम्प्रदायिक ताकतें देश के अमन चैन के माहौल को धाराशाई करती जा रही हैं
* गुट निरपेक्षता की विदेश निति से खिलवाड़ किया जा रहा है
* युद्ध व सैनिक खर्चे में बेइंतहा बढ़ोतरी की जा रही है
* परमाणू हथियारों की होड़ में शामिल होकर अपनी समस्याएँ और अधिक बढ़ा ली हैं
* सभी संस्थाओं का जनतांत्रिक माहौल खत्म किया जा रहा है
* बाहुबल, पैसे , जान पहचान , मुन्नाभाई , ऊपर कि पहुँच वालों के लिए ही नौकरी के थोड़े बहुत अवसर बचे हैं
* महिलाओं में अपनी मांगों के हक़ में खडा होने का उभार दिखाई देता है | सबसे ज्यादा वलनेरेबल भी समाज का यही हिस्सा दिखाई देता है मग़र सबसे ज्यादा जनतांत्रिक मुद्दों पर , नागरिक समाज के मुद्दों पर , सभ्य समाज के मुद्दों पर संघर्ष करने कि सम्भावना भी यहीं ज्यादा दिखाई देती है
* वर्तमान विकास प्रक्रिया भारी सामाजिक व इंसानी कीमत मानगने वाली है | इसको संघर्ष के जरिये पल टा जाना बहुत जरूरी है
*अन्ना जी को भी समझना होगा कि उनकी जंग भी समाज परिवर्तन की जंग का हिस्सा बने तो बेहतर होगा।
रणबीर
* भेड़ों कि तरह बेघर लोगों का शहरों के ख़राब से ख़राब घरों में बढ़ता जमावड़ा आज की एक सच्चाई है ।
* सभी सामाजिक नैतिक बन्धनों का तनाव ग्रस्त होना तथा टूटते जाना व्यवस्था की दें हैं ।
* परिवार के पितृ स्तात्मक ढांचे में अधीनता (परतंत्रता ) का तीखा होना साफ देखा जा सकता है ।
* पारिवारिक रिश्ते नाते ढहते जाना --- युवाओं के सामने गंभीर चुनौतीयाँ , परिवारों में बुजुर्गों की असुरक्षा का बढ़ते जाना ।
* महिलाओं और बच्चों पर काम का बोझ बढ़ते जाना | असंगठित क्षेत्र में जन सुविधाओं का भी काफी अभाव है | कठिन जीवन होता जा रहा है ।
* मजदूर वर्ग को पूर्ण रूपेण ठेकेदारी प्रथा में धकेला जाना आम बात की तरह देखा जा रहा है ।
* गरीब लोगों के जीने के आधार संकुचित होना
* गाँव से शहर को पलायन बढ़ना तथा लम्पन तत्वों की बढ़ोतरी | शहरों के विकास में अराजकता |
* ठेकेदारों और प्रापर्टी डीलरों का बोलबाला है चरों तरफ ।
* जमीन की उत्पादकता में खडोत , पानी कि समस्या , सेम कि समस्या
* कृषि से अधिक उद्योग कि तरफ व व्यापार की तरफ जयादा ध्यान
* स्थाई हालत से अस्थायी हालातों पर जिन्दा रहने का दौर
* अंध विश्वासों को बढ़ावा दिया जाना | हर दो किलोमीटर पर मंदिर का उपजाया जाना। टी वी पर भरमार है ऐसे मैटर की ।
* अन्याय का बढ़ते जाना।
* कुछ लोगों के प्रिविलिज बढ़ रहे हैं।
* मारूति से सैंट्रो कार की तरफ रूझान | आसान काला धन काफी इकठ्ठा किया गया है।
* उत्पीडन अपनी सीमायें लांघता जा रहा है | रूचिका कांड ज्वलंत उदाहरण है |
* व्यापार धोखा धडी में बदल चुका है
* शोषण उत्पीडन और भ्रष्टाचार की तिग्गी भयंकर रूप धार रही है। भ्रष्ट नेता , भ्रष्ट अफसर और भ्रष्ट पुलिस का गठजोड़ पुख्ता हो गया है ।
* प्रतिस्पर्धा ने दुश्मनी का रूप धार लिया है
* तलवार कि जगह सोने ने ले ली है
* वेश्यावृति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है
* भ्रम व अराजकता का माहौल बढ़ रहा है | धिगामस्ती बढ़ रही है
* संस्थानों की स्वायतता पर हमले बढ़ रहे हैं
* लोग मुनाफा कमा कर रातों रात करोड़ पति से अरब पति बनने के सपने देख रहे हैं और किसी भी हद तक अपने को गिराने को तैयार हैं
* खेती में मशीनीकरण तथा औद्योगिकीकरण मुठ्ठी भर लोगों को मालामाल कर गया तथा लोक जान को गुलामी व दरिद्रता में धकेलता जा रहा है
* बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का शिकंजा कसता जा रहा है
* वैश्वीकरण को जरूरी बताया जा रहा है जो असमानता पूर्ण विश्व व्यवस्था को मजबूत करता जा रहा है
* पब्लिक सेक्टर की मुनाफा कमाने वाली कम्पनीयों को भी बेचा जा रहा है
* हमारी आत्म निर्भरता खत्म करने की भरसक नापाक साजिश की जा रही हैं
* साम्प्रदायिक ताकतें देश के अमन चैन के माहौल को धाराशाई करती जा रही हैं
* गुट निरपेक्षता की विदेश निति से खिलवाड़ किया जा रहा है
* युद्ध व सैनिक खर्चे में बेइंतहा बढ़ोतरी की जा रही है
* परमाणू हथियारों की होड़ में शामिल होकर अपनी समस्याएँ और अधिक बढ़ा ली हैं
* सभी संस्थाओं का जनतांत्रिक माहौल खत्म किया जा रहा है
* बाहुबल, पैसे , जान पहचान , मुन्नाभाई , ऊपर कि पहुँच वालों के लिए ही नौकरी के थोड़े बहुत अवसर बचे हैं
* महिलाओं में अपनी मांगों के हक़ में खडा होने का उभार दिखाई देता है | सबसे ज्यादा वलनेरेबल भी समाज का यही हिस्सा दिखाई देता है मग़र सबसे ज्यादा जनतांत्रिक मुद्दों पर , नागरिक समाज के मुद्दों पर , सभ्य समाज के मुद्दों पर संघर्ष करने कि सम्भावना भी यहीं ज्यादा दिखाई देती है
* वर्तमान विकास प्रक्रिया भारी सामाजिक व इंसानी कीमत मानगने वाली है | इसको संघर्ष के जरिये पल टा जाना बहुत जरूरी है
*अन्ना जी को भी समझना होगा कि उनकी जंग भी समाज परिवर्तन की जंग का हिस्सा बने तो बेहतर होगा।
रणबीर
बजट देश का
आज कल में बजट देश का सबके सामने आयेगा
कुल मिला कर पॉपुलर बजट इसको कहा जायेगा
दिखावे के वास्ते गरीब को कुछ लाली पॉप मिलेंगे
अम्बानी अडानी के बागों में दोबारा से फूल खिलेंगे
मध्यमवर्ग भरम में रहेगा सच को समझ न पायेगा
विकास का धर्राटा उठेगा पूरे दरवाजे खोले जायेंगे
बदेशी पूंजी के निवेश को कई क्षेत्रों में खूब बढ़ाएंगे
तरक्की जरूर होगी मगर इसका फल कौन खायेगा
सब्सिडी का खेल खेलेंगे कोई पाएंगे तो कोई झेलेंगे
टैक्स पूरी जनता पर मजबूरी कह करके ये पेलेंगे
इलाज महंगा पढ़ाई महंगी पेट मुश्किल भर पायेगा
एक हिस्से के पास पैसा खूब इकठ्ठा होना लाजमी
दूज्जे हिस्से की नौकरी अपनी होगा खोना लाजमी
क्लेश द्वेष माँर काट बढ़ेगी शासन डंडा फेर लायेगा
Of all the mega-corps running amok, Monsanto has consistently outperformed its rivals, earning the crown as “most evil corporation on Earth!” Not content to simply rest upon its throne of destruction, it remains focused on newer, more scientifically innovative ways to harm the planet and its people.
कर भुगतान के दायरेमें नहीं भी आते हैं, तब भी उन्हें ऊंची मुद्रास्फीति दर के कारण परोक्ष रूप से भारी कर चुकाना पड़ता है। उनके पास त्याग के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है।
मैं देश की आबादी के उन 95 फीसदी लोगों की बात कर रहा हूं, जो ग्रामीण क्षेत्रों में 2,886 रुपये और शहरी इलाकों में 6,383 रुपये प्रति माह खर्च करने में असमर्थ हैं।नेशनल सैंपल सर्वे संगठन (एनएसएसओ) के उपभोक्ता खर्च संबंधी 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक, केवल पांच फीसदी लोग ही इस कृत्रिम रूप से तैयार समृद्धि रेखाके ऊपर रहते हैं। बाकी 95 फीसदी (करीब 118 करोड़) लोगों के लिए जीवन बहुत कठिन है। विकास हो या नहीं, उनके जीवन में बदलाव नहीं आता। हर तरह से उन्हें हीखामियाजा भुगतना पड़ता है। लेकिन मीडिया का एक वर्ग जिस तरह के कठिन फैसलों की नरेंद्र मोदी से अपेक्षा करता है, वह बेहद चतुराई से असली मुद्दों से देश काध्यान हटाने की कोशिश है। यह वास्तव में धनी एवं संपन्न लोगों के लिए और ज्यादा छूट की अपेक्षा है। यह सब वित्तीय घाटा और चालू खाता घाटा के नाम पर गरीबों औरजरूरतमंदों के संसाधनों को दूसरी तरफ मोड़ने की कोशिश है। इसलिए यहां मैं उन कुछ कठिन कदमों का जिक्र कर रहा हूं, जिन्हें प्रधानमंत्री को जरूर उठाना चाहिए,ताकि न सिर्फ एक फीसदी लोगों के, बल्कि सबके चेहरे पर चमक आए।
वास्तव में हमारी चिकित्सा शिक्षा और सामान्य शिक्षा दोनों ही हमारी आज की बाजारी समाज व्यवस्था के मातहत ही फलती फूलती हैं। मौजूदा शिक्षा सिर्फ ट्रेनिंग देने की एक ऐसी प्रक्रिया नहीं हैं जिससे एक खास काम लिया जा सके बल्कि यह एक व्यक्ति को एक खास तरह का अपेक्षित रोल अदा करने से रोकने की प्रक्रिया भी है।
सवाल यह है कि तमाम वैज्ञानिक प्रगति और उससे प्रदत सुविधाओं के उपयोग के बावजूद हमारे समाज एवं जीवन के स्थूल और सूक्षम आयामों में धार्मिक पाखंड की जकड़न और उसकी आक्रामकता इतनी सघन क्यों है? आकंठ भौतिकवादी सुविधाओं के इस्तेमाल में संलग्न समाज अपने अंतकरण में विज्ञान को झांकने की स्वीकृति क्यों नहीं देता? प्राद्योगिकीय उपलब्धियां हमारे जीवन की भौतिक सुख सुविधाओं के उपयोग से इतर हमारी वैज्ञानिक सोच का पोशण क्यों नहीं कर पा रही हैं? अंधविष्वास का विमर्ष वस्तुत धर्म के विमर्ष से नालबद्ध है। इस सत्य से अवगत वेद से लेकर नवजागरण तक के चिंतकों ने अपने बौद्धिक संवादों व सामाजिक संघर्शों में अन्ध विष्वास के सतामीमांसीय आणार धर्म को सैद्धान्तिक विमर्ष से परे क्यों रखा है ? जब भी धर्म पर बहस होती है तो धर्म एवं अध्यात्म में अनतर करने की षाब्दिक परिभाशाएं षुरु कर बहस के मूल मंतव्य को औझल करने की कोषिष क्यों रहती है? अंधविष्वास रोग नहीं उसका लक्ष्ण है। धर्मरुपी रोग को मानव होने की षर्त ओर उसके लक्षण अंधविष्वास को मानव के लिए षर्मनाक दिखाने की कवायद में निहित विरोधाभास के सतासूत्र कहां हैं? क्यों अकादमिक जगत व समाज सुधारकों की दिलचस्पी धर्म को पवित्र व चिंतनेतर मानकर उसे समाज सता निरपेक्ष दिखाने में रहती है ? क्यों पूरा तन्त्र अंधविष्वास को चमतकार कहकर रहस्यवाद को प्रष्नातीत बनाने के साक्ष्य जुटाने में लगा रहता है? सोच व समझ में तर्कषीलता एवं विवेकषीलता के पक्षधर लेखकों का जमावड़ा अपने अपने निजी जीवन में धर्म केन्द्रित विमर्ष पर तर्कषील आत्मसंवाद से परहेज क्यों करता है? हमारे जीवन, सोच एवं सामाजिक व्यवहार के इन विरोधाभाशों के वस्तुनिश्ठ आधार व कारण क्या हैं?
वैज्ञानिक -भौतिकवादी दर्षन ही अंधविष्वास के छल -कपट को जन्म देने वाले धर्म का यथार्थ में उन्मूलन करने के चेतना सूत्र प्रदान करता है। प्रभु वर्ग को कोपरनिकस,बू्रनो, डार्विन नहीं मनु , जिन, मौलवी चाहियें जिसके लिए अंधविष्वास का मकड़जाल उर्वरा भूमि तैयार करता है। जादू टोने व अन्धविष्वास की दुनिया ही अपने सामाजिक चरित्र में सता के लिए सुरक्षा कवच का काम करती है।
यह अकारण नहीं है कि ब्राहमणवादी सामंती- तंत्र के पक्ष-पोशक
तथाकथित आचार्यों एवं श्रृशि मुनियों ने प्राचीन भारत के आयुर्वेदाचार्यों एवं चार्वाक दार्षनिकों को चाण्डाल, वितण्डतावादी, मलेच्छ कहकर जाति-बहिश्कृत किया और तर्क को गम्भीर अपराध की श्रेणी में उाल दिया।
साम्राज्यवादी शक्तियां अखिल भूमण्डल पर शासन करना तो चाहती हैं , लेकिन जानती हैं कि ऐसा कर पाने में वे केवल आर्थिक , राजनीतिक और सैनिक वर्चस्व के बल पर समर्थ नहीं हो सकती । इसके लिए उन्हें स्वयं को दुनिया के लिए सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य बनाना होगा । यही कारण है कि संस्कृति आज इतनी महत्वपूर्ण हो उठी है कि एक ओर सांस्कृतिक साम्राज्यवाद कायम करने की जी तोड़ कोशिशें की जा रही हैं, तो दूसरी ओर दुनिया भर में ऐसी कोशिशों का विरोध और प्रतिरोध किया जा रहा है ।
दलित वर्ग के सन्दर्भ में मुक्ति संग्राम दो शक्तियों के विरुद्ध है । ये शक्तियां हैं --ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी । आंबेडकर ने कहा था कि इस देश में मजदूर वर्ग के दो शत्रु हैं -- ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद । उनके आलोचक, जिसमें समाजवादी मुख्य रूप से थे , ब्राह्मणों को मजदूरों के रूप में समझने में असफल हो गए थे \
यदि उनहोंने इस शत्रु को समझ लिया होता तो उनकी जंग कमजोर नहीं पड़ती और मजदूर एकता कभी की हो गयी होती । आंबेडकर ने कहा था कि ब्राह्मणवाद ब्राह्मण समुदाय के विशेषधिकारों या उनकी सत्ता का नाम नहीं है बल्कि इसका अर्थ स्वतन्त्रता , समानता और भ्रातृत्व की भावना को नकारना है । और इस अर्थ में उन्होंने कहा कि यह सभी वर्गों में मौजूद है और यहाँ तक कि मजदूर वर्ग में भी ब्राह्मणवाद मौजूद है । उनहोंने कहा कि यह बड़ा शत्रु है जिसने आर्थिक अवसरों के क्षेत्र को प्रभावित किया है
मुस्लिम कट्टरपन्थी सहित हर तरह के साम्प्रदायिक संगठनों और फासीवादी रंगतों को भी आवाम के सामने और खास तौर पर उन धर्मों व इलाकों के लोगों के बीच, बेनकाब करना उतना ही जरूरी है. पर हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि भारत में सरेआम फासीवादी सत्ता कायम करने, धर्म, जाति या क्षेत्र पर आधारित अल्पसंख्यकों को दबाने, कत्लेआम करने और बड़े पूँजीपतियों के लिए संकट के दौर में डण्डे का राज कायम करने और हर तरह के जनविरोध को कुचलने का सामर्थ्य और सम्भावना सिर्फ संघी फासीवाद में ही है। फासीवाद को तभी रोका जा सकता है जब उससे विचलित होने वाले लोग सामाजिक न्याय को लेकर उतनी ही दृढ़ प्रतिबद्धता दिखायें, जो साम्प्रदायिकता के प्रति उनके आक्रोश के बराबर हो। क्या हम इस राह पर चल पड़ने के लिए तैयार हैं? क्या हममें से कई लाख लोग न सिर्फ सड़कों पर प्रदर्शनों में, बल्कि अपने-अपने काम की जगहों पर, दफ्तरों में, स्कूलों में, घरों में, अपने हर निर्णय और चुनाव में एकजुट होने को तैयार हैं?
गोरखपुर ( हरयाणा ) परमाणु ऊर्जा संयंत्र महाविनाश को बुलावा
जापान के फुकुशिमा के दायिची परमाणु संयंत्र में सुनामी व् भूकम्प के कारण बड़ी दुर्घटना घटी , जिसकी वजह से 2 लाख लोगों को वहाँ से प्लायन करना पड़ा तथा हजारों लोग रेडिएशन से प्रभावित हुए । जिसके कारन पूरी दुनिया में परमाणु तकनीक पर फिर से सवाल उठने शुरू हो गए । इसी कारण जर्मनी , स्पेन ,स्वीडन व् चीन ने अपने नए परमाणु रियेक्टरों की मंजूरी पर रोक लगा दी । खुद जापान के प्रधान मंत्री ने कहा कि अब हमें परमाणु से बिजली पैदा करने की तकनीक से परे जाना होगा।
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